मृग सा भटकता है।
ताली नहीं ठोकता
ध्यान खींचता है।
ढोलक नहीं पीटता
कान खोलता है।
गाता नहीं है वह
उलाहना देता है।
क्यों छीना रे निष्ठुर
हमसे रिश्तों का रस।
किन्नर नहीं नाचता
भूखा पेट नाचता है।
घर में, विद्यालय में
आफिस में सोचता है।
समाज में पैदा हुआ
समाज से जूझता है।
क्या मनुष्य नहीं हूं मैं ?
नर-नारी से पूछता है।
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