Friday, 30 December 2022

व्याख्यान

यह व्याख्यान बच्चों के लिए है बड़ों के लिए नहीं
बड़ों को सुना रहा हूं परीक्षण के लिए छोटों को सीखने के लिए। 
नवान्वेशी प्रवृत्ति स्वीकार होनी चाहिए 
देवों के रक्षक मानव ही हुए हैं
गगन के गीत गाने में भुवन को भूल मत जाना

Saturday, 10 December 2022

सनातन धर्म

वैर से वैर शांत कभी नहीं होता,
वैर तो अवैर से ही शांत होता है।
अवैर और कुछ भी नहीं प्रेम ही है,
सनातन धर्म कोई है तो प्रेम ही है।
नफ़रत सनातन नहीं हो सकती
सनातनी हो तो सबसे प्रेम करो।
सबसे प्रेम नहीं तो सनातनी नहीं,
सनातन के नाम पर धन्धा बंद करो।

Thursday, 1 December 2022

समास - नरेश बत्रा जी

शब्दयात्रा- ५०
समास- कम्पाउण्ड Compound
सम् पूर्वक असु क्षेपणे (सि.कौ.दिवादि 1209) धातु से भाव में घञ् प्रत्यय होकर समास शब्द निष्पन्न होता है। संक्षेप या मिलाने को समास कहते हैं। यह शब्द संस्कृत व्याकरण में योगरूढ़ या पारिभाषिक माना गया है अतः प्रत्येक संक्षेप को समास नहीं कह सकते, अपितु जब दो या दो से अधिक पद मिलकर एक पद हो जाते हैं तो उसे समास कहते हैं। 
समास हो जाने पर उन समस्यमान पदों की प्रायः अपनी-अपनी विभक्तियां लुप्त हो जाती हैं, परन्तु उनका अर्थ तो रहता ही है, पुनः नये सिरे से समास को एक शब्द या प्रातिपदिक मान कर नई विभक्ति आती है, तब वह समूचा नया पद बन जाता है। स्वर प्रक्रिया में तब उसे एकपद समझकर ही स्वर लगाया जाता है। समास का उदाहरण यथा गंगायाः जलम् गंगाजलम् यहां गंगायाः तथा जलम् यह दो पद मिलकर गंगाजलम् एक पद बन गया है। समास का लक्षण संस्कृत वैयाकरणों ने सामान्यतः इस प्रकार किया है-
 विभक्तिर्लुप्यते यत्र तदर्थस्तु प्रतीयते।
 पदानामेकपद्यं च समासः सोऽभिधीयते।। 
जहां विभक्ति का लोप हो जाता है, पर उसके अर्थ का बोध हो रहा होता है और जहां अनेक पद मिलकर एक पद के रूप में परिणत हो जाते हैं, उसे समास कहा जाता है।
पाणिनि के प्राक्कडारात्समासः (अष्टाध्यायी 2.1.3.) सूत्र के अनुसार समास एक अन्वर्थ संज्ञा है। इसकी व्युत्पत्ति है- समस्यते एकीक्रियते प्रयोक्तृभिरिति समासः। यहां अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् (अष्टाध्यायी 3.3.19) सूत्र द्वारा कर्म में घञ् प्रत्यय किया गया है।
कुछ आचार्य 'समास' शब्द में बहुल के कारण कर्तरि घञ् प्रत्यय स्वीकार कर समस्यते एकत्रीभवति- एकपदीभवति ऐसा व्याख्यान करते हैं। उनके मतानुसार 'समस्यते' में कर्तरि लट् होकर उपसर्गादस्त्यूह्योर्वेति वाच्यम् (वार्तिक 920) वार्तिक से आत्मनेपद हो गया है।
 समास शब्द का अक्षरार्थ लघुसिद्धान्तकौमुदीकार आचार्य वरदराज ने बताया है - तत्र समसनम् समासः अर्थात् एक साथ या पास पास रखना समास कहलाता है। मुख्य तत्व समास में यही होता है, इसके आगे जो होता है, वह इसी से ही प्रभावित एवं प्रेरित होता है। इस तत्व को महत्व न केवल संस्कृत में ही, अंग्रेजी में भी दिया गया है। संस्कृत के समास शब्द के सदृश अंग्रेजी में कम्पाउण्ड शब्द है, उस का भी यही अर्थ है। अंग्रेजी का कम्पाउण्ड शब्द लातिन भाषा के कॉम् पोनेरे शब्द से बना है। कॉम् शब्द संस्कृत के सम् शब्द का समानान्तर शब्द है। तालव्यीकरण सिद्धान्त के अनुसार जहां पाश्चात्य भाषाओं में कण्ठ्य ध्वनि होती है, वहां भारतीय भाषाओं में तालव्य ध्वनि का प्रयोग होता है। कॉम् का अर्थ वही है जो सम् का, अर्थात् एक साथ, पास पास। पोनेरे का अर्थ होता है- असनम्, रखना। दोनों ही शब्द समास तथा कम्पाउण्ड एक ही प्रकार के चिन्तन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
 जब दो या दो से अधिक शब्द पास पास रख दिए जाते हैं तो संस्कृत भाषा के सन्दर्भ में पहला परिवर्तन उसमें यह आता है कि वे अपनी अपनी स्वतन्त्र सत्ता खो बैठते हैं। जिस विभक्ति के कारण उनकी पद संज्ञा बनी थी, उसी का लोप हो जाता है। भिन्न-भिन्न पदों के एक साथ मिल जाने पर उनके अपने अपने पदत्व के स्थान पर उन सभी का एक अलग ही पद के रूप में उदय होता है। इसी बात को किसी आचार्य ने इस श्लोक में बताया है-
पदानां लुप्यते यत्र प्रायः स्वाः स्वाः विभक्तयः।
पुनरेकपदीभावः समास उच्यते तदा।।
समास शब्द का एक अर्थ संक्षेप भी है। यथा-
एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता। मनुस्मृति 2.25.
सर्वेषान्तु विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम् । स्थापयेत् तत्र तद्वंश्यं कुर्य्याच्च समयक्रियाम् ॥ मनुस्मृति 7.202. 
शिवः केशवः इसके स्थान पर जब शिवकेशवौ कहा जाता है, तब यहां इतना तो स्पष्ट ही है कि यह दो विभक्तियों का प्रयोग न होकर एक विभक्ति का प्रयोग हुआ है। कदाचित् यह संक्षेप की भावना ही समस्त पदों के प्रयोग में प्रयोजिका है। लोकोक्ति प्रसिद्ध ही है- संक्षेपरुचिर्हि लोकः।
यहां यह शंका की जा सकती है कि अलुक् समास में तथा इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च आदि वार्त्तिक द्वारा किये जाने वाले समास में जहां अन्तर्वर्तिनी विभक्ति का लुक् ( लोप) होता ही नहीं, वहां कैसा संक्षेप? और फिर वहां समासत्व का प्रयोजन ही क्या? समास होने पर वागर्थाविव एक पद होगा, समास न होने पर वागर्थौ और इव दो पद होंगे। किञ्च समास होने पर इसका विशेष उपयोग वैदिक भाषा में ही है, लौकिक संस्कृत में नहीं। अत एव सिद्धान्त कौमुदी में जीमूतस्येव यह वेद का उदाहरण दिया गया है, लौकिक संस्कृत का नहीं। वस्तुतः सिद्धान्त कौमुदी में यह अधूरा वार्तिक दिया गया है, पूरा वार्त्तिक इस प्रकार है- 
इवेन समासो विभक्त्यलोपः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। यहां ध्यातव्य है कि इव अव्यय का समास होने पर इसे अव्ययीभाव समास नहीं कह सकते क्योंकि वार्त्तिकपठित इव में तृतीया विभक्ति है, प्रथमा नहीं। प्रथमा विभक्ति होने पर इस इव की उपसर्जन संज्ञा होकर पूर्वनिपात हो जाता, अब वागर्थौ इस प्रथमान्त सुबन्त की उपसर्जन संज्ञा होकर, इसका ही पूर्व निपात होने से वागर्थाविव प्रयोग बनता है। अतः वागर्थौ इस पूर्वपद की प्रकृति के अनुकूल पूरे समास में एक स्वर होगा अर्थात् पूरे समस्त पद का केवल एक ही अच् उदात्त, शेष भाग उसका सामान्यतया सब का सब अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (अष्टाध्यायी 6.1.152) इस नियम के अनुसार अनुदात्त होगा। समास न होने पर प्रत्येक पद पर अपना-अपना अलग-अलग स्वर उदात्त होगा। अतः सिद्धान्त कौमुदीकार ने इस वार्तिक को अव्ययीभाव समास के प्रकरण में भी नहीं रखा। इसी कारण काशिका में समास के प्रयोजनों में कहा गया है- ऐकपद्यमैकस्वर्यञ्च समासत्वाद् भवति। (काशिका 2.1.25, 27)
 अलुक् को भी समास मानने से उसके एकपदत्व के कारण तद्धितोत्पत्ति में आदि अच् को वृद्धि सुलभ हो जाती है। यथा युधिष्ठिरस्येदं यौधिष्ठिरं राज्यम् यहां आदिवृद्धि एक पदत्व के कारण होती है।
संस्कृत वैयाकरण आचार्य वरदराज ने समास पांच प्रकार का बताया है तथा पांचों की परिभाषा भी अपने ग्रन्थ लघुसिद्धान्तकौमुदी में प्रस्तुत की है। तद्यथा-
समासः पञ्चधा। स च विशेषसञ्ज्ञाविनिर्मुक्तः केवलसमासः प्रथमः। प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावो द्वितीयः। प्रायेणोत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषस्तृतीयः। तत्पुरुषभेदः कर्मधारयः। कर्मधारयभेदो द्विगुः। प्रायेणान्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिश्चतुर्थः।प्रायेणोभयपदार्थप्रधानो द्वन्द्वः पञ्चमः। यहां तत्पुरुष के भेदों सहित सात प्रकार के समास कहे हैं किन्तु हिन्दी में केवल समास जिसका प्राचीन नाम सुप्सुपा समास है, की गणना नहीं की गई, पर नञ्, उपपद व अलुक् को भी पृथक् समास माना है। इस प्रकार कुल दस प्रकार के समास माने जाते हैं।
समासों के इन नामों पर दशम शताब्दी के आचार्य राजशेखर ने अपनी काव्यमीमांसा में एक रोचक उक्ति उद्धृत की है, जो बहुत प्रसिद्ध आर्या है-
द्वन्द्वोऽस्मि द्विगुरपि चाहं 
गृहे च मे नित्यमव्ययीभावः।
तत्पुरुष कर्म धारय
येनाहं स्यां बहुव्रीहिः।।
कोई निर्धन ब्राह्मण, राजा के दरबार में जाकर अपनी करुण गाथा का इस प्रकार वर्णन करता है- हे राजन्! मैं द्वन्द्व हूं- मैं अकेला नहीं बल्कि अपनी भार्या का भी मुझे भरण-पोषण करना पड़ता है। परन्तु मैं द्विगु भी हूं- मेरे घर पर दो बैल भी हैं , जिनको प्रतिदिन खिलाना पड़ता है। परन्तु मेरी दशा यह है कि मेरे पास नित्य-निरन्तर अव्ययीभाव अर्थात् खर्च करने को फूटी कौड़ी भी नहीं है। इसलिए पुरुष- श्रेष्ठ! तत् कर्म धारय- ऐसा काम करो जिससे मैं बहुव्रीहि- बहुत धन-धान्य वाला हो जाऊं ताकि मेरे पास खाने-पीने की कमी न रहे।
इस आर्या में छह समासों का नाम आया है, नित्य शब्द का प्रयोग करके अव्ययीभाव के नित्य समास होने की भी अभिव्यञ्जना की गई है, अन्यथा समास का प्रयोग वैकल्पिक होता है। अव्ययीभाव एक अन्वर्थ अर्थात् अर्थानुसारी संज्ञा है। इस समास में पूर्व पद अव्यय होता है और उत्तरपद अनव्यय परन्तु समास होने पर उत्तरपद भी अव्यय बन जाता है अतः इसका विग्रह बनता है- अनव्ययम् अव्ययं भवति इति अव्ययीभावः।
इन समासों का प्रयोग हिन्दी आदि भारतीय एवं अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में भी बहुधा देखा जाता है। यथा अंग्रेज़ी में - अव्ययीभाव In-side, Under- wood, life- long, World- wide, After-life, तत्पुरुष Rail-way, Ear- ring, Cooking- Stove, looking-glass, Bed- ridden, Heart-rending, Wood- cutter, Man- eater, Shoe-maker, कर्मधारय Grand-father, Black-board, Snow-white, Mid-night, द्विगु First-class, Second-hand, Two-seater, Four-wheeler , नञ् Non- vegetarian, Touch- me- not द्वन्द्व Husband-wife, Mother-father, Lap-top, Black and white बहुव्रीहि Well- known, One- eyed, Nobel- minded, Father- in-law, , Narrow- minded, Good- natured. इत्यादि समासों के उदाहरण हैं।
जैसा कि अभी कहा है कि किन्हीं विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त समास करने या न करने का विकल्प है, विभाषा (अष्टाध्यायी 2.1.11.) के द्वारा विकल्प का अधिकार प्रायः समस्त समास प्रकरण पर है तो भी लोक में संक्षेपरुचिहेतु होने से समास की ओर प्रवृत्ति सहज होने के कारण भाषा में समास का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। एक युग तो ऐसा आया था, जिसमें समास बहुल रचना पाण्डित्य का निकष मानी जाने लगी थी। अनेक पंक्तियों तक के सुदीर्घसमासों से विभूषित रचनाएं विद्वत्समाज के मनोविनोद का साधन बन गई थीं। संस्कृत वाङ्मय समस्तपदों से भरा हुआ है। दीर्घ समासावलि की रोमाञ्चक प्रौढता दण्डी के दशकुमारचरितम्, सुबन्धु की वासवदत्ता व बाणभट्ट की कादम्बरी व हर्षचरितम् तथा त्रिविक्रमभट्ट के नलचम्पू में देखी जा सकती है। संस्कृत के गद्य, पद्य तथा चम्पूसाहित्य में पाया जाने वाला समास का वैभवपूर्ण चमत्कार विश्व की किसी भाषा में नहीं पाया जाता।

Monday, 28 November 2022

भेड़िये पाल रहे हैं नेता जी।

वोट की फ़सल रखाने को
भेड़िये पाल रहे हैं नेता जी।

वेटी की बोटी नौंचते भेड़िए
टुकुर-टुकुर देखते नेता जी।

घर में अकेली रह न सके है,
खेत पै भी आ धमकता जी।

यात्रा करे तो भी मारी जाती,
वो विद्यालय में घेर लेता जी।

कहते हो संस्कार दो बेटी को
पहनावे पै उंगली उठाता जी।

बालिका शिशु भी नोंचे जाते
अब तो हद हो चुकी है नेता जी।

बेटी बचायें-बेटी पढ़ायें कैसे?
हाय! यह पिता पूछे नेता जी।

Sunday, 27 November 2022

पूना पैक्ट कविता

भूखा वैठा था एक सन्त 
पूना की यरबदा जेल में,
जला रहे थे भक्त वस्तियां 
दलितों की जातंकी देश में।

दोहरा मताधिकार नहीं था
प्रतिनिधित्व मिला था देश में।
न जाने किस कारण किसी को 
किसी का हक् मिलना खला था।

Saturday, 26 November 2022

अंधविश्वास, अंधपरंपरा

आसाम में ब्राह्मण गाय खाते हैं-
https://www.facebook.com/100003220802774/posts/pfbid028FjekkHPRodvYBaU6fH3HbFQF8JGEkbBEniqrtTiNxgDPrBQRueq13YvwMqycP9l/?mibextid=Nif5oz
वीडियो- में 3.10 minutes पर 

Tuesday, 22 November 2022

हकदारी

रे रे आतंक!
इंकार करते हैं तेरे क्षत्र में जीने से।
जहन्नुम या नर्क भेजने की धमकी, 
या सर कलम करने का आतंक
ही दे सकते हो। 
समता, बन्धुत्व, सबको सम्मान 
दे पाना तुम्हारे वश की बात नहीं।

हक की बात करने वालों को
डराकर राष्ट्रनिर्माण नहीं होता।
राष्ट्रनिर्माण के लिए तो हमेशा
हकदारी देनी होती है सबको,
भीम की तरह, गौर की तरह। 

Tuesday, 18 October 2022

परमादरेण, अतिप्रश्रयेणं,सप्रश्रयं, सादरं.

Monday, 17 October 2022

ठठं

रामाभिषेके जलमाहरन्त्या 
हस्ताच्च्युतो हेमघटो युवत्याः।
सोपानमार्गेण करोति शब्दं 
ठठं ठठण्ठं ठठठं ठठण्ठः॥.Report · 11:16am
दिदीन् दीन् दीन् दीन् दीन् दधित् तन्दन्नन्दिमुरजम्, द्रणद् द्राणद् द्रण-द्रण-द्रणद् घर्घर-रवम्| 
स्फुरत् फू- फू- फू- फू फणिपतिफणात्फूत्कृतिशतम्, शिवं भूयो भूयः प्रथम-नट-नाट्यं दिशतु वः॥
श्रीमान्‌ शशिपाल शर्मा महाभागस्य सौजन्येन...्पुनः उद्धृतम्‌

देवाधीनं जगत्सर्वं

देवाधीनं जगत सर्वे मंत्राधीना च देवता
ते मंत्रा ब्राह्मणाधीना तस्मात् ब्राह्मण देवता।
अर्थ:- समस्त संसार देवता के अधीन है और देवता मंत्रों के अधीन हैं।सभी मंत्र ब्राह्मणों के अधीन हैं,इसलिए ब्राह्मण देवता है।
अर्थात् मंत्रों को जानने वाला ज्ञानी ब्राह्मण देवता के समान पूजनीय हैं।

Sunday, 16 October 2022

क्या आप संस्कृत पढ़ना जानते हैं?

क्या आप संस्कृत पढ़ना जानते हैं? संस्कृत प्रतियोगिता, उत्तर प्रदेश में संस्कृत का गद्यांश पढ़कर सुनाने हेतु ११ हजार रूपये का प्रथम पुरस्कार रखा गया था। गद्यांश का नमूना नीचे दिया जा रहा है, जो कि ४ भागों में विभाजित है। कथानक के भावों को समझते हुए वाचन करें। थोड़े दिनों बाद इस गद्यांश से मिलते जुलते गद्यांश का वीडियो जारी करूंगा और आप देख सकेंगे कि आपके पढ़ने तथा पुरस्कार विजेता के पढ़ने में कितना अंतर है? 

*NCERT Ruchira Class 8 chapter 3*
अद्य सम्पूर्णविश्वे "डिजिटल इण्डिया" इत्यस्य चर्चा श्रूयते । अस्य पदस्य कः भावः इति मनसि जिज्ञासा उत्पद्यते। कालपरिवर्तनेन सह मानवस्य आवश्यकताऽपि परिवर्तते । प्राचीनकाले ज्ञानस्य आदान-प्रदानं मौखिकम् आसीत्, विद्या च श्रुतिपरम्परया गृह्यते स्म । अनन्तरं तालपत्रोपरि भोजपत्रोपरि च लेखनकार्यम् आरब्धम् । परवर्तिनि काले कर्गदस्य लेखन्याः च आविष्कारेण सर्वेषामेव मनोगतानां भावानां कर्गदोपरि लेखनं प्रारब्धम्। टंकणयन्त्रस्य आविष्कारेण तु लिखिता सामग्री टंकिता सती बहुकलाय सुरक्षिता अतिष्ठत्। वैज्ञानिकप्रविधेः प्रगतियात्रा पुनरपि अग्रे गता । अद्य सर्वाणि कार्याणि सङ्गणकनामकेन यन्त्रेण साधितानि भवन्ति । समाचार-पत्राणि पुस्तकानि च कम्प्यूटरमाध्यमेन पठ्यन्ते लिख्यन्ते च । कर्मदोद्योगे वृक्षाणाम् उपयोगेन वृक्षाः कर्त्यन्ते स्म परम् सङ्गणकस्य अधिकाधिक- प्रयोगेण वृक्षाणां कर्तने न्यूनता भविष्यति इति विश्वासः। अनेन पर्यावरणसुरक्षाया दिशि महान् उपकारो भविष्यति।

*उत्तरप्रदेशे वर्धिता संस्कृतम् अधिगन्तुं रुचिः, अष्टसहस्राधिकजनाः कुर्वन्ति ऑनलाइनकक्षाम्*
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानपक्षतः संस्कृतं वक्तुम् पठितुम् अधिगन्तुं च इच्छुकेभ्यः जनेभ्य: संस्कृतभाषाशिक्षणस्य सुविधा आरब्धा । सर्वतो विशिष्टा वार्ता एषा अस्ति यत् संस्कृतम् अधिगन्तुम् इच्छुकाः दूरवाणीसङ्ख्यां प्रति 9522340003 मिसकॉलएलर्टमाध्यमेन आभासिकक्षायां स्वकीयं पञ्जीकरणं कारयितुं शक्नुवन्ति । अनया सुविधया संस्थानेन अधिकः लाभः अपि प्राप्तः । बृहत्सङ्ख्यासु युवभिः छात्रैः मिसकालमाध्यमेन स्वकीयं पञ्जीकरणम् आभासिकक्षाभ्यः कारितम् अपि च ते नियततया कक्षां कुर्वन्ति । संस्थानानुसारम् आभासिमाध्यमेन संस्कृतम् अधिगन्तुम् इच्छुकेभ्यः जनेभ्यः सप्तचत्वारिंशत्कक्षाणां सञ्चालनं क्रियते। एतेषु शिक्षकैः ऑनलाइनसंस्कृतस्य पाठशाला संस्थाप्यते । संस्थानानुसारं संस्कृतम् अधिगन्तृषु युववर्गस्य सङ्ख्या अधिका अस्ति । शिक्षकाः प्रतिदिनम् एकहोरात्मिकाम् आभासिकक्षां पाठयन्ति याः पूर्णरूपेण निःशुल्कं सन्ति । उत्तरप्रदेशसर्वकारः निरन्तरं देवभाषां संस्कृतं प्रति रुचिम् आनेतुं संस्कृतम् अधिगन्तुं च इच्छुकेभ्यः जनेभ्यः अवसरं प्रदातुं संलग्नः अस्ति । अस्मिन् उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानं महतीं भूमिकां निर्वहति । संस्थानस्य अध्यक्षेण डॉ० वाचस्पतिमिश्रेण उक्तं यत् बहवः जनाः संस्कृतम् अधिगन्तुम् इच्छन्ति । विशेषतया वृत्तिवर्गाणाम् चिकित्सकानाम्, अभियन्तॄणाम्, व्यापारिणां च समयाल्पताम् उद्दिश्य एषः प्रकल्पः चिन्तितः । तन्निमित्तम् एतत् सेवायाः वरदानभूतम् । अनेन संयुज्य तत्रैव संस्कृतभाषाशिक्षणस्य पठनस्य च निःशुल्कं प्रशिक्षणं प्राप्तुं शक्यते। क्रियान्वयनगते तत्र प्रशिक्षणप्रमुखः सुधीष्ठकुमारः मिश्रः, सहायकप्रशिक्षणप्रमुखः सुशीलकुमारः, प्रशिक्षणसमन्वयकः धीरजः मैठाणी, कार्यालयसमन्वयकः रनेश्वरमणि त्रिपाठी च वर्तन्ते । तत्र तेनोक्तं यत् पञ्जीकरणाय अभ्यर्थिभिः केवलं गूगल आवेदनं पूरयिष्यते । आवेदने तेभ्यः स्वकीयव्यवसायस्य पठनस्य च विवरणं प्रदास्यते । एतदनन्तरं व्यवसायानुरूपं समूहमाध्यमेन अस्मिन् संस्कृतस्य पाठनं कारयिष्यते । तेनोक्तं यत् संस्कृतं पठितुम् इच्छुकछात्रेभ्यः संस्कृतज्ञानेन च सहैव नैतिकसंस्कारणां विषये सूचना प्रदास्यते । हिन्द्या, आङ्गलेन च सह छात्रेभ्यः संस्कृतेन वक्तुम् अपि शिक्षयिष्यते ।

*शशिरेखा*
दिनमणिः प्रवयस्कोऽपि सेवकः । ज्येष्ठोऽपि स भृत्यः । अतो बलात् किमपि वक्तुं न प्रभवति । अपृष्टः स किमपि उपदेष्टुं न शक्नोति । मनसि तस्य कोलाहलः । सम्मुखे प्रभोः मृदुविषादः । एकदा सः अपृच्छत् । 
— किमर्थं विषीदति भवान् ? स्पष्टं कथयतु ।
   को वा अभावः...?
  चिन्ताकुलः अभ्रपदः अपृच्छत् ।
— किम् 'अन्वेषणं समाप्तम् ?
— समाप्तम् ।
— तर्हि, का सा गृहेऽस्मिन् वधूः भवेत् ?
— मन्ये, मेदिनीं भवान् जानाति ।
— केयम्...?
— सा दीना... वृद्धा...।
— जानामि...। तस्या अत्र कः सम्पर्कः ?
— तस्याः कन्या श्रावणी ।
  अभ्रपद: उच्चैरहसत् ।
— पितृव्य! भवान् दासमनोवृत्या मम विवाहं चिन्तयति नु ? दिनमणिः भीत्या अवदत् ।
— न.... नहि....., श्रीमन् !
 — किं भवन्नयने दासीं दीनां वा विहाय नान्या कचित् प्रतिभाति? 
— या आसीत् सा तु भवन्तं प्रत्याख्यातवती।
सहसा अभ्रपदः सावधानः संजातः । अहंकारः तस्य उदग्रोऽभूत् । स प्रतिशोधपरायणतया अगर्जत् — नूनं तस्याः कृते किञ्चित् दर्शयितव्यम् ।
दिनमणिः शान्तभावेन अबोधयत् । प्रकृतिस्थतया चिन्तयतु ।
— नहि...। दासी भवतु वा दीना भवतु । विवाहः करणीय एव।
— स्थिरमनसा चिन्तयतु । भवतः पदमर्यादा अस्ति । वंशस्य परम्परा याश्च आभिजात्यं वर्त्तते । सम्यक् विचार्य किमपि निश्चयं करोतु ।
— विचारे पुनः को लाभः ? भवान् गच्छतु । तत्रैव सम्बन्धं विधाय प्रत्यागच्छतु ।

*प्रेमरसोद्रेकः*
उपरि, निर्दिष्टसंलापः कयोश्चिद्वृद्धदम्पत्योः कश्मीरेषु कस्मिंश्चिद् ग्रामे पान्पुरनामनि कृतावासयोर्मध्ये समवर्तिष्ट । तदाश्रयार्थमागता हामिदाभिधा काचिदङ्गना परित्यक्ता पत्येति षण्मासान् स्वगेहे ताभ्यां निवासितासीत् । वर्षार्धोत्तरं सा प्रासूत कन्यामेकाम् । द्वादशदिनानन्तरे च तां स्वपालकाभ्यां समर्प्य प्रणाञ्जहौ । सा च बालिका मातृप्रेमामृतरसानभिज्ञा दम्पतिभ्यां प्राणनिर्विशेषं लालिता, सप्रेम संवर्धिता च पौत्रीनिर्विशेषम्। सेयं सरोजलोचना कुन्दकुड्मलदन्तपङ्क्तिः प्रवालाधरा चञ्चलालका शिरीषकुसुमकोमला शारदकौमुदीव रुचिरा धैर्यशीलापि मृदुवचना, धीरापि स्थिरमति: स्नेहनिर्झरसम्प्लुता दमयन्तीव परदमनशीला क्षमातलागता सुरसुन्दरीव कमनीया कृषीवलस्य क्षेत्रादिकार्येषु मुदा प्रयस्यन्ती सुखमास्त। कश्मीरीयाणामितरासां बालिकानामिव पान्पुरपल्लिका सुपरिचितासीत्तस्या अपि। विलक्षणोऽभूत्तस्या अनतिक्रान्तशैशवाया अपि स्वान्तर्बोधः किल। भाविविषयं पूर्वमेव सहजकल्पबुद्ध्या सा व्यजानात्, न च कदापि लुप्तधैर्यासीत् दारिकामिमां सकृदेवावलोक्य तदीयहृदयङ्गमगुणरत्नसम्पत्तिं जनः क्षणादेवोपलक्षितवान्। जायापती स्थविरौ बालिकेयमतिशयितप्रेम्णानवरतं सेवते स्म । प्रतिदिनं परिणतवयस्केन कृषीवलेन सार्धमस्मा मेषव्रजं रक्षितुं क्षेत्रं याति स्म। परमद्य सन्धिवातकारणाद् गेहान्निर्गन्तुं नाशकद्वृद्धः । यदा यदा हि स स्तोकमात्रमप्यस्वस्थोऽभूत्तदा तदा वत्सेयं मृदुवचसा तस्य बहिर्गमनमरुणत् । क्षेत्रबटुं विश्रमयितुं तावदहमेव क्षेत्रं यास्यामीत्यभ्यधात् पुनः सा सनिश्चयम्, जोषं स्थितस्य पितामहस्यानुमतिर्लब्धा मयेति च सीवनकर्म मञ्जूषामादाय निर्जगाम मन्दिरात्। शैशवे मातामह्या मुखादाकर्णितां निद्रागीतिकां मन्दं मन्दमध्वनि गायन्ती क्षेत्रं प्रति सा प्राचलत् ।
     अपराह्नसमये तस्मिन् मृदुलहैमन्तार्करश्मिभिर्विस्तोर्णशालिक्षेत्रं तप्तसुवर्णसवर्णं परितो विरेजे। निरभ्रं निःशेषतो गगनतलं बृहत्कासार इव समलक्ष्यत । गन्धवाहोऽपि मान्द्यशैत्यसौरभ्ययुतो विशेषतो बभूवाह्लादकः । न चिरादस्मा मार्गवर्ति पुरातनमार्तण्डसुरमन्दिरमतिचक्राम। विध्वस्तं देवायतनमिदं क्रूरजाल्मानामवस्कन्दाद्रक्षितुमिव भगवान्मरीचिमाली स्वरश्मिजालं परितः प्रसारयामास प्राक्तनस्यास्य देवालयस्यान्तर्गताङ्गने चित्रविचित्रच्छायाचित्राणि विच्छिन्नस्तम्भानां दर्श दर्श दारिका किञ्चित्कम्पमाना प्रवारकेण कमनीयावंसौ समाच्छादयामास । "अलं भिया प्रतिच्छाया एवैताः ।" इत्यात्मानं सस्मितमाश्वास्य सा क्षेत्रं प्रति तत्वरे तस्याश्च स्निग्धकोमलमाननकमलं शीतमरुता प्रफुल्लतां ययौ । न चिरात्सा क्षेत्रमाससाद। पितामहस्य मेषयूथं शाद्वले तृणं भक्षयत् सुखमास्त। जृम्भमाणं क्षेत्रबटुमभ्युपेत्य साऽब्रवीत्सस्मितम्। "याहि गेहम्। श्रान्तोऽसि क्षुत्क्षामकण्ठश्च मेषरक्षणं स्वयं करिष्यामि। सूर्यास्तमने च तान् गोष्ठकं नेष्यामी'ति ।

इसे पढ़कर देखें। स्वयं की जांच करें।

Tuesday, 11 October 2022

स्वाभिमान वट

कलमकार स्वाभिमान के बीज को 
कुछ धूप, कुछ हवा, कुछ मिट्टी, कुछ पानी
देकर सींचते हैं जैसे सींचता है माली।
अंकुर पौधा, पौधा पेड़ बनने लगता है।
निकलने लगती हैं शाखाएं। 
शाखाओं पर पंछी कलरव करने लगते हैं।
स्वाभिमान से सर ऊंचा हो जाता है।
अपने काम को कला मान बैठता है।
कला का सम्मान हो मांग बैठता है।
काम का वाजिब दाम दो कह उठता है।
आहत हो जाता है कोई, 
औकात में रहो कह उठता है।
पर कवि की सृष्टि है।
मरती नहीं है।
नयीं जड़े पैदा कर लेती है 
वरगद की तरह।

Monday, 10 October 2022

।। पत्रकोपायनं कृतम्।। नरेश बत्रा

।। पत्रकोपायनं कृतम्।।

दिवंगतात्मनो मातुर्वर्षान्तदिवसस्मृतौ।
परिवारजनैः सर्वैः श्रद्धाञ्जलिः समर्पिता।।

समं वेदप्रचारेण यज्ञानुष्ठानपूर्वकम्।
आर्याचारप्रचाराय पत्रकोपायनं कृतम्।।

जीवनं पूर्णतां याति, कार्येषु जीविष्यति यशलब्ध यः।
परिवारजनैः सर्वैः श्रद्धाञ्जलिः समर्पिताः।।

चार्वाक

भारत में परजीवियों का एक विशाल समूह है जो बोलता है कि “सब कुछ माया है”, लेकिन व्यवहार में यह समूह सारी जिंदगी इसी “माया” के पीछे पागल रहता है। प्राचीन भारत के लोकायत संप्रदाय ने इन परजीवियों की खूब खबर ली थी।आइए लोकायत दर्शन की कुछ प्रमुख प्रस्थापनाओं को देखते हैं:

      1. यह जगत ही एकमात्र जगत है, यह जीवन ही एकमात्र जीवन है, और हमें इसे सर्वश्रेष्ठ तरीके से जीने का प्रयत्न करना चाहिए।
       2. जब तक जियो सुख से जियो। मृत्यु की निगाहों से कोई नहीं बच सकता। एक बार जब शरीर जलकर राख हो जाएगा, फिर पुनर्जन्म कैसे होगा?
       3. सुख के साथ दुख भी मिश्रित है, इसलिए हमें सुख को त्याग देना चाहिए, ऐसा मूर्खों का विचार है। अपना भला चाहने वाला कौन इंसान धूल और भूसी के कारण उत्कृष्ट सफेद अनाज वाले धान को फेंक देगा?
       4. ना कोई स्वर्ग है, ना कोई मोक्ष, ना आत्मा किसी परलोक में जाती है।
       5. वर्णाश्रम धर्म के पालन से भी कोई फल प्राप्त नहीं होता।
      6. मोर को रंग किसने दिए हैं या कोयल से गीत कौन गवाता है, इसका प्रकृति के सिवा और कोई कारण नहीं है।
      7. अग्निहोत्री यज्ञ, तीनों वेद, त्रिदंड धारण और शरीर में भस्म लगाना, ये सभी बुद्धि और पौरुषहीन लोगों की आजीविका के साधन मात्र हैं।
       8. अगर श्राद्ध में अर्पित भोजन से स्वर्ग में बैठे लोग संतुष्ट हो जाते हैं तो क्यों नहीं छत पर बैठे लोगों को नीचे ही भोजन दे दिया जाता?
      9. अगर श्राद्ध करने से मरे हुए लोगों को तृप्ति हो जाती है, तो फिर किसी राहगीर को साथ में भोजन देने की क्या जरूरत है? घर में दिए भोजन से ही उसे रास्ते में तृप्ति मिल जाएगी।
       10. अगर कोई अपने शरीर को छोड़कर परलोक चला जाता है तो अपने दोस्तों और अन्य लोगों के प्रेम में बंधकर वह दुबारा वापस क्यों नहीं लौट आता?
      11. इसीलिए, ब्राह्मणों ने मात्र अपनी आजीविका के लिए श्राद्ध कर्म की व्यवस्था की है। इसमें अधिक कुछ भी नहीं है।
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Shyam Singh Rawat मनस्वी पुरूष की हर बात ध्यान से सुनना जरूरी है, सो आपकी बात पर गौर किया। मेरी समझ में, चार्वाक को भोगवादी कहना महान ज्ञानी का अपमान है। चार्वाक परलोक को नकार कर इहलोक को सुन्दर बनाने की बात करते हैं। दूसरी बात यह कि चूंकि विज्ञान को नकारा नहीं जा सकता, तो आत्मा और अध्यात्म को लेकर बहुतेरे छद्म-वैज्ञानिक बाजार में हैं।
Rana Singh जी,
मैं कोई मनस्वी नहीं, बल्कि बहुत ही साधारण व्यक्ति हूं।
चार्वाक मत भोगवादी न होता तो वह 'यावत्जीवेत सुखं जीवेत' जैसा अनर्थकारी विचार नहीं देता।
परलोक की अवधारणा को हूबहू गांठ बांध लेना भी कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता। इसीलिए आध्यात्मिक ज्ञान-सम्पन्न योगीजनों ने स्वयं अपने अंतर्जगत की यात्रा करने को कहा है। जिसमें अंधानुकरण के लिए कोई स्थान नहीं है। यह तप तो साधक को खुद ही करना पड़ता है। तभी उसे वास्तविक सुखानुभूति हो सकती है।
जैसा कि मैं अपनी पूर्व टिप्पणी में स्पष्ट कह चुका हूं कि विज्ञान जिन छ: आधारभूत सिद्धान्तों के आधार पर कब, क्यों, कैसे, कितना आदि तरह-तरह के प्रश्नों का सम्यक उत्तर खोजने पर काम कर ही निष्कर्ष तक पहुंचता है तो फिर पराभौतिक ज्ञान के मामले में इन सिद्धान्तों को अपनाकर निष्कर्ष तक पहुंचने की कोशिश करने से पहले ही उन्हें नकार देना उचित नहीं है।

Shyam Singh Rawat तो आप जीवनकाल में जब तक जीते हो सुख से नहीं जीते हो??
ढोंग ना कीजिए

Khetaram Beniwal Malwa जी,
संसार के बिरले मनुष्यों को छोड़कर अन्य सभी लोग सारा जीवन सुख की तलाश में यत्र-तत्र भटकते हुए ही व्यतीत कर जाते हैं, क्योंकि वे सुख को इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं और इन्द्रियों की अपनी सीमाएं होती हैं तो स्वाभाविक रूप से वह सुखानुभूति भी सीमित ही रह जाती है। 
कभी सोचकर देखिए कि क्या आपको वह सुख वास्तव में प्राप्त हुआ है जिसमें तल्लीन होने का भाव सदैव भीतर उठता रहता है?

चार्वाक के विचार अवश्य अर्ध सत्य को इंगित करते हैं|

चार्वाक अपने समय का क्रांतिकारी दर्शन था, जो आज भी सत्य है।
महान मनीषी कार्ल मार्क्स ने द्वंदात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत उसी का बहुत ही परिष्कृत रूप है

वैज्ञानिक खोजें बता रही हैं कि दृश्यमान जगत से कहीं अधिक विस्तृत अदृश्य संसार है। प्रति-ब्रह्मांड पर काम हो रहा है। ब्लैक मैटर और चतुर्थ आयाम की चर्चा आम है। लाइफ आफ्टर डेथ और
एईडी (आफ्टर डेथ एक्सपीरियंस) जैसे पराभौतिक विषयों पर अनुसंधान हो रहे हैं। क्योंकि जितना हम जानते हैं, यह सकल सृष्टि उससे भी असंख्य गुना अधिक विस्तृत है। 
डॉ. रेमण्ड ए. मूडी नामक विख्यात मनःचिकित्सक का नाम सुना है आपने? उनके अनुसंधान के विषय में भी पढ़ लीजिएगा।
चार्वाक अज्ञानता के उसी अंधे कुएं में जीवन खपा देने की सिफारिश करता है।
चार्वाक दर्शन मनुष्य को पशुओं की तरह भोगवादी जीवन जीने को कहता है। इसीलिए उसे 'शिश्नोदरवाद' कहा गया है। पशु में ज्ञानार्जन की चाह पैदा नहीं होती, मनुष्य में होती है। जिज्ञासा ज्ञान की पहली सीढ़ी है और मनुष्य की समस्त उपलब्धियां इसी से संभव हुई हैं।
वैज्ञानिक उपलब्धियां एक निश्चित प्रक्रिया का परिणाम होती हैं जिसमें परिकल्पना (Hypotheses), सैद्धांतिक अध्ययन (Theory), प्रयोग (Experiment), पर्यवेक्षण (Observation), विश्लेषण (Analysis) और निष्कर्ष/परिणाम (Result/Conclusion) इन छह चरणों का क्रमिक सूक्ष्म और भरपूर प्रयास हमें अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाता है लेकिन स्वयं को नास्तिक, अनीश्वरवादी या वैज्ञानिक विचारधारा का पृष्ठपोषक बताने वाले लोग इस प्रक्रिया का पालन आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में करना बिल्कुल भी आवश्यक नहीं समझते। जबकि इसके बिना किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है।

चार्वाक दर्शन भी भारतीय दर्शन का ही अंग है ,यह कहीं बाहर से नहीं आया। इसे समझने के लिए अन्य भारतीय दर्शनों का अध्ययन बहुत आवश्यक है जो कि एक दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी। मैने भी कुछ समय पूर्व चार्वाक पर एक पुस्तक पढ़ी थी जिसमें विस्तार पूर्वक इस दर्शन पर विचार किया गया था। जो सम्भवतः न्यायदर्शन से प्रभावित था। न्याय दर्शन को ही तर्कशास्त्र भी कहा जाता है। अधूरा ज्ञान अनर्थकारी होता है।

शिवभूषण सिंह गौतम यह वेदों और भारतीय षटदर्शन के पूर्व का दर्शन है भौतिक वादी होने से शास्त्रों में इसकी चर्चा विरोधी दर्शन के रूप में है लोकायत नाम भी है इस दर्शन का।

यही तो बैज्ञानिक सोच और तार्किक खोज है जिसके कारण परिणीती लोग इसका बिरोध करने और आखिरी में उसे नास्तिक नाम पुकारने लगते हैं करें भी क्यों न धंधे पर आंच आने लगतीहै

Saroj Kumar Bishal 'ॠणम् कृत्वा घृतम् पीवेत्’ चार्वाक की बात नहीं है। यह किसी दुष्ट ने चार्वाक दर्शन को बदनाम करने के लिए उनसे जोड़ दिया।

Rana Singh जितने भी दर्शन हैं सभी में दुष्ट घुसकर कुछ न कुछ खुराफात कर दिये हैं।

Sunday, 9 October 2022

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्। 
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥
¤¤
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥
¤¤

आदिकवेः महर्षिवाल्मीकेः जयन्तीम् अभिलक्ष्य उत्तर-प्रदेश-संस्कृत-संस्थानेन आयोजितासु राज्यस्तरीयप्रतियोगितासु गद्यवाचन-प्रतियोगितायां निर्णायकरूपेेण भूमिकां निर्वोढुं शुुभावसरं प्रापम्। अत्रावसरे संस्कृतजगतः अनेकैः मूर्धन्यविद्वद्भिः सह मेलनस्य सान्निध्यम् अलभे। विद्वत्परम्परायै मम अनन्ताः प्रणामाः 🙏🙏

#महर्षिवाल्मीकिजयन्ती
#उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानलखनऊ
#जयतुसंस्कृतम् #जयतु_भारतम्

वाल्मीकियों! उठो।

वाल्मीकियों


अछूतों! उठो, 
रामायण उठाओ
पढ़ो,  
राम मंदिर जाओ,
मंदिर में बैठकर, 
रामायण पाठ करो,
भक्तों को प्रसाद 
और आशीर्वाद 
दोनों दो।
और तुम लो चढ़ावा।
इसमें भक्तों का भविष्य 
और तुम्हारा वर्तमान 
दोनों सुधर सकते हैं।

स्थाल्यां क्षीरं नभे चन्द्रः, अमृतं पाति पूर्णिमा।
मृत्युं तरति प्राज्ञः ना, सर्वे अङ्गन्तु पूर्णिमाम्। ।rg

Saturday, 8 October 2022

काव्स्यात्मा स एवार्थस्तदा चादिकवे‌: पुरा।क्रौञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थ:शोक:श्लोकत्वमागत:।।

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि जयंती पर हार्दिक शुभकामनाएं 🌸🌸
काव्स्यात्मा स एवार्थस्तदा चादिकवे‌: पुरा।
क्रौञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थ:शोक: श्लोकत्वमागत:।।
दलितानां दशां दृष्ट्वा, सः आयाति कवेः न किम्।।
                      आचार्य आनन्दवर्धन ,ध्वन्यालोक /१/५
अर्थात् काव्य की आत्मा तो वही अर्थ है जब प्राचीन काल में क्रौंच पक्षी के जोड़े में से शिकारी द्वारा एक के मार दिये जाने के कारण जब दूसरा पक्षी विलाप कर रहा था उस वियोग के कारण संवेदन शीलता की पराकाष्ठा के कारण आदि कवि वाल्मीकि का हृदय का शोक श्लोक बन गया ।
यह विश्व में पहला लौकिक काव्य अभिव्यक्त होने का समय था ।यह पहला पहला संस्कृत का श्लोक था । यहां प्राचीन काव्यशास्त्र के आचार्य आनन्द वर्धन यह तो प्रमाणित कर रहे हैं कि कवि में स्वार्थ के स्थान पर परार्थ ही होता है कि वह दूसरे के दु:ख को अपना सके जिससे उसके हृदय का दु:ख ही भावनाओं में बहता हुआ वाणी का रूप ग्रहण करे । वह वाणी समाज में दुराचारी का सामुहिक बहिष्कार कर सदाचारी की प्रतिष्ठा करे
वह वाणी सत्य ,शिव और सुन्दर हो जोकि संसार में ऐसे कल्याण धारण किये हो जो कि जो किसी काल और स्थान की सीमा से दूर कालजयी समाज प्रेरक वाणी हो ।
इस श्लोक को आधार कर आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण सनातन रूप से मानव मात्र को मार्ग दिखाती रहेगी कि" रामादिवद्वर्तितव्यं न रावणादिवत्" राम जैसा आचरण करो रावण जैसा नहीं ।इसलिये राम हमारे शाश्वत भाव है ।कहा गया है" धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां "अर्थात् धर्म का तत्व तो हमारे हृदय में रहता है वह राम का भाव ही हमारी भावनाओं में बहता ।विग्रहवान् धर्म हो जाता है इसलिये कहा है "रामस्तु साक्षाद्विग्रहवान् धर्म:"अर्थात् राम तो प्रत्यक्ष रूप से धर्म का शरीर धारण किये हैं ।
जय सियाराम 🙏
जय आदिकवि महर्षि वाल्मीकि 🙏
जय महाकवि गोस्वामी तुलसीदास 🙏

Friday, 7 October 2022

अयि गिरिनन्दिनिमहिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम्

अयि गिरिनन्दिनि
महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम् 
कनकमंजरी छन्द 
कनक मंजरी छंद मिलकर साथ सभी चलते
*कनक मंजरी छंद*

शिल्प~4लघु+6भगण(211)+1गुरु]=23 वर्ण
 चार चरण समतुकांत]
 {1111+211+211+211 
                      211+211+211+2}

मिलकर साथ सभी चलते , 
    नित सर्जन देश तभी सजते ।
खिलकर साथ तरु फलते, 
     नव पुष्पित बाग सभी सजते ।
बढ़कर राह रहें चलते,
     सत लक्ष्य सही तब ही मिलते ।
गढ़कर प्रीत नई गढ़ते ,
      नव गीत सदा जब ही मिलते । 

बढ़ चल तू चलता चल ,
     साथ सभी कम ही बढ़ते चलते ।
थक कर तू थमता कब ,
     पाँव नही अब ये मुड़ते चलते ।
पग पग उठा पथ पे रखना ,
      पथ पे पग चिन्ह यही बनते ।
अभय सदा चल तू चलना ,
     भय ज़ीवन लक्ष्य नही बनते ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

कनक-मंजरी छन्द विधान : 
यह वार्णिक छन्द है। गुरु का अर्थ गुरु, लघु का अर्थ लघु [ चार लघु + ६ भगण (२११)+ १ गुरु ] = २३ वर्ण , चार चरण, सभी समतुकान्त [ मापनी ११११,२११,२११,२११, २११,२११,२११,२ ]
यह वर्णिक छन्द 'शैलसुता' है। इसके लघु-गुरु का क्रम निम्न प्रकार है -
लललल गालल गालल गालल गालल गालल गालल गालल गा
यदि मदिरा सवैया छन्द के प्रथम गुरु को दो लघु में बदल दिया जाये तो शैलसुता छन्द बन जाता है! उदाहरण -
परिणय का अति पावन बंधन, बंधन जीवन-जीवन का,
सुख दुख में अनुरूप रहे यह, बंधन है तन का मन का।
निरख बुरे दिन छोड़ सभी चलते पर दम्पति साथ निभाते,
जब तन जर्जर हो चलता तब भी बन सम्बल हाथ मिलाते।
- आचार्य ओम नीरव


उदाहरण : 

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥
Iii. Isi.    
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥

विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥

कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २१ ॥



iii.         Isi.     Isi.       Isi.     Isi.        Isi.     Isi. Is
अयिज+नजागृ+तलोक+समावृ+तविस्मि+तवाच+नदीप्ति+कृते
किमधिकसुन्दरविश्वकलेवरसंस्कृतशासनसारधृते ।
कलितमनोरमरूपगणावृतकोटिदिवाकरपारमिते
जय जय हे सुरभारति वैष्णवि झंकडचारिणि हासरते ॥
नन्दप्रदीप्तकुमारः

Thursday, 6 October 2022

अंग्रेज कादम्बरी में भी लिख गए-मातंगजातिस्पर्शदोषभयादस्पृश्यतेयमत्पादिता प्रजापतिना

अंग्रेज कादम्बरी में भी लिख गए-
मातंगजातिस्पर्शदोषभयादस्पृश्यतेयमत्पादिता प्रजापतिना

Wednesday, 5 October 2022

दशहरे का सम्बन्ध न राम से है न रावण से

दशहरे का सम्बन्ध न राम से है न रावण से
दशहरा शक्ति पूजा का पर्व है बस
नव दिन की शक्ति आराधना के बाद दसवे दिन शस्त्र पूजा करके विजय की कामना हेतु देवी के रूप विजया का पूजन किया जाता है और यह दसमी के दिन होता है इसलिये इसे विजया दशमी कहते है
दस दिशाओ से शक्ति का पूजन करने के कारण विजय दशमी कहते है
दशहरा शब्द आधुनिक पत्रकारों एव लेखकों ने जोड़ दिया
बाकी राम रावण युध्द का पूरा विवरण सन्दर्भ सहित नीचे लिखा है

पद्म पुराण के पातालखंड इसका विवरण है ‘‘युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक (87 दिन)’’ 15 दिन अलग अलग युद्धबंदी 72 दिन चले महासंग्राम में लंकाधिराज रावण का संहार क्वार सुदी दशमी को नहीं चैत्र वदी चतुर्दशी को हुआ।

घन घमंड गरजत चहु ओरा।
प्रियाहीन डरपत मन मोरा।।

रामचरित मानस हो बाल्मीकि रामायण अथवा ‘रामायण शत कोटि अपारा’ हर जगह ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास प्रवास के प्रमाण मिलते हैं। पद्मपुराण के पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में पहुंचते हैं। परिचय देकर प्रणाम करतेे है।
शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- गुरु का वचन सत्य हुआ। सारूप्य मोक्ष का समय आ गया। उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के महात्म्य का उपदेश देते हुए कहा था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास पहुंचा देंगे।
इसी के साथ ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते है- जनक पुरी में धनुषयज्ञ में राम लक्ष्मण कें साथ विश्वामित्र द्वारा पहुचना और राम द्वारा धनुषभंग कर राम- सीता विवाह का प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया तब विवाह राम 15 वर्ष के और सीता 06 वर्ष की थी विवाहोपरांत वे 12 वर्ष अयोध्या में रहे 27 वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई के वर मांगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।
वनवास में राम प्रारंभिक 3 दिन जल पीकर रहे चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। पांचवें दिन वे चित्रकूट पहुंचे, वहां पूरे 12 वर्ष रहे। 13वें वर्ष के प्रारंभ में राम लक्ष्मण और सीता के साथ पंचवटी पहुचे। जहां सुर्पनखाॅ को कुरूप किया।
माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता का हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया। आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष तें वानरों ने सीता की खोज शुरू की समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को संपाती नामक गिद्ध ने बताया सीता लंका की अशोक वाटिका में हैं।
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने छलांग लगाई , रात में लंका प्रवेश कर खोजवीन करने लगे। कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल तेरस को वाटिका विध्वंश किया, उसी दिन अक्षय कुमार का बध किया। कार्तिक शुक्ल चौदस को मेघनाद ब्रह्मपाश में बांधकर दरवार में ले गये और लंकादहन किया। हनुमानजी कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित सभी वानरों ने नाचते गाते 5 दिन मार्ग में लगाये और अगहन कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया
हनुमान की अगवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुचे। हालचाल दिये।
अगहन कृष्ण अष्टमी उ. फाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और 7 दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया।
अगहन शुक्ल चतुर्थ को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर परिचर्चा हुई। सागर से मार्ग याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक 4 दिन अनशन किया। सप्तमी को अग्निवाण का संधान हुआ तो रत्नाकर प्रकट हुए और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से तेरस तक 4 दिन में श्रीराम सेतुबनकर तैयार हुआ।
अगहन शुक्ल चौदस को श्रीराम ने समुद्रपार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक 3 दिन में वानरसेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को सुक सारन वानर सेना में घुस आये। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और पहचान करके उन्हें अभयदान दिया।
पौष कृष्ण तेरस से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्याभ्यास किया। पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया। इसके बाद पौष शुक्ल द्वितीया से अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ।
पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में बांध दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटा और राम लक्ष्मण को मुक्त किया।
पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल तेरस को कंपन बध, पौष शुक्ल चौदस से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक 3 दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का बध, माघ कृष्ण द्वितीया से चतुर्थी तक राम रावण में तुमुल युद्ध हुआ और रावण को भागना पड़ा।
रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक 4 दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया।
कुंभकरण बध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विसतंतु आदि 5 राक्षसीें का बध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया।
माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ बध, माघ शुक्ल तेरस से फागुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष बध हुआ।
फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण मेघनाद युद्ध प्रारंभ सप्तमी को लक्ष्मण मूच्र्छित हुए उपचार हुआ। इस घटना के कारण फागुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक 5 दिन युद्ध विराम रहा।
फागुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फागुन कृष्ण नवमी से तेरस तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया।
इसके बाद फागुन कृष्ण चौदस को रावण की यज्ञ दीक्षा ली और फागुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया। फागुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ।
फागुन शुक्ल षष्टी से अष्टमी तक युद्ध में महापाश्र्व आदि का राक्षसों का बध हुआ। फागुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूच्र्छित हुए, सुखेन बैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि लाये और लक्ष्मण पुनः चेतन्य हुए।
राम-रावण युद्ध फागुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फागुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ दान किया।
फागुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से तक 18 दिन युद्ध चला। चैत्र कृष्ण चौदस को दशानन रावण को मौत के घाट उतारा गया
युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक (87 दिन) 15 दिन अलग अलग युद्धबंदी रही 72 दिन चला महासंग्राम और श्रीराम विजयी हुए, चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नये युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया।
अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया का सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण, सीता उत्तर दिशा में उड़े। चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज के आश्रम में पहंचे। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ।
चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोघ्या पहुंचाया जहां अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।


विकाश श्योराण जी
उत्तर भारत में विशेषकर उत्तर प्रदेश बिहार का जो क्षेत्र है वहां पर नवरात्रि के अंतर्गत रामलीला का मंचन नौ दिवसीय होता है और रावण वध के बाद रावण जलाने की परंपरा एक षड्यंत्र के तहत अंग्रेजों द्वारा काशी में आरंभ की गई।
और उस उत्सव को आगे बढ़ाते हुए दीपावली जोकि विशेष रूप से पितरों की विदाई का पर्व है। उसे भगवान श्री राम के आगमन से जोड़ दिया गया हालांकि भगवती लक्ष्मी का प्राकट्य भी उस दिन नहीं है

दशहरा

आओ बड्डे
लोंग, सुपारी, पान पा लो,
भूलें बिसरा दो
गले लगा लो।
ऐसौ हतौ दशहरा रीत कौ, 
होत हतौ व्यवहार प्रीत कौ।
मारा मूरी, जला-जलोई से 
दुशमनियाँ नोईं मिटत हैं,
वे तौ मिटत हैं
आवे-जावे सें,
मिले-मिलाये सें,
 लैवे-दैवे सें,
खावे-खवाय सें,
सो आओ भज्जा, 
बैठो थाई पै, 
खोलो मुँह
लोंग, सुपारी, 
पान खा लो।
खोलो हाथ 
गौतम को 
गरें लगा लो।

Tuesday, 4 October 2022

दशानन

दशानन 

जहाँ भी जाती है दुनिया 
वहाँ होता है उसका आनन।
जितनी दिशाएं हैं धरती कीं,
उतने हैं उसके आनन।

लोग मरे जा रहे हैं,
उसे मारने के चक्कर में।
पर वो हर वार जगाकर 
डाल देता है काम के चक्कर में।

कौए काँव-काँव करें या
उल्लू दुबकें।
गायें रम्भाएँ 
या चिड़ियाँ चहकें ।

दशानन है 
न अस्त होता है, 
न उगता है।

रमन्ते योगिनो यस्मिन्न सोsत्र शोमतेsद्य तु।
सशस्त्रं कुपितं तुण्डं रमणसाधकं कथम्?rg

रे मनु

रे मनु!
कितने बहुरूपिया हो,
डींग हाँकने में
घोड़ा बन जाते हो,
काम पड़े तो कहते हो,
मैं गधे की तरह लदा हूं।

घास दिखे तो 
गउ बन जाते हो,
कोई असहमत होता,
तब भौंकने लगते हो।

अकेला जान 
देते गीदड़ भवकियां,
अकेले फसते हो
लोमड़ी हो जाते।

जब ताकतवर होते ही
दहाड़ते हो।
जान फसे तो 
मिमियाने लगते हो।

तुम सब बन सकते हो
मगर आदमी 
क्यों नहीं 
रह सकते हो?






घोड़ा-गधा

ओढ़ा
अश्व की खाल 
घुमा रहा था
ठाठ से।

पर 
तब हुआ कमाल 
लगा 
रैंकने जब
गधा।।

घोड़ा 
सरपट दौड़ 
सकता है 
मैदान में, 
मगर 
पहाड़ पर तो 
गधा ही 
चढ़ सकता है।

ऐ आदमी!
मत आंक
गधे को कमतर, 
हिमालय पर 
चढ़ने का हुनर
घोड़े के पास नहीं है।

संस्कृतस्यैव शापेन जाता दशा

ब्राह्मणाः कर्महीनाः सदा लोलुपाः
विप्रभेषेण नित्यं हि ते पूजकाः।
भारतीसेवने नैव तेषां मतिः
संस्कृतस्यैव शापेन जाता दशा।। damodar tripathi facebook 

उंगलियाँ उठने ही वाली थीं

किसी का घर 
गिराने वालों पर 
उंगलियां 
उठने ही वाली थीं 
कि 
किसी का धर जल उठा।

सुना था कि
पंचों में परमेश्वर आते हैं
मगर आज देख लिया
पंच ही परमेश्वर हो जाते हैं।

लोग कहते हैं
जिसका कोई नहीं होता
उसका खुदा होता है
देख लिया है आज लेकिन
खुदा उसका होता है
जिसकी सत्ता होती है।

मिथ्या गाते हैं लोग
हर नारी देवी की प्रतिमा,
सच तो यह है
दबंग ही बताते हैं कि
कौन होगी नगर वधू।

Monday, 3 October 2022

मनुवादिनः

मानवजातिजः मूढः जनः जनन्न पश्यति।
मानवो मानवं ब्रूते, किं ते भो! जाति वर्णः।।rg

स्थापिता पाठशाला यया बालिका

संस्थिता या खरे कालरूपा शुभा, 
        रौद्ररूपा सदा भीकरी शत्रुणाम्।
या च संहारहेतुर्मता प्राणिनां,
        वन्द्यते सा मया कालरात्रिः हृदा॥

■..... ✍️ ०२/१०/२०२२

Saturday, 1 October 2022

भीमटा BHIMATA

 

डॉ. रामहेत गौतम,

सहायक प्राध्यापक, संस्कृत विभाग,

डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मध्य प्रदेश।

 

भीमटा

 

भीमटा एक सम्मान जनक शब्द है। भारतीय भाषाओं में इस शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है। जैसे मराठी में भीमटे एक उपनाम है। मेरे एक मित्र का नाम है प्रोफेसर राजकुमार भीमटे।1 मोहन के. भीमटे।2

इतना ही नहीं भारतीय भाषाओं के विकास क्रम में इस प्रकार के शब्द देखने को मिलते हैं। जैसे- बांगला भाषा में टा और टि अथवा टी प्रयय शब्दों के साथ जोड़े जाते हैं।  डॉ. चाटुर्ज्या ने लिखा है कि टा प्रत्यय मूलतः पुल्लिङ्ग भाव व्यक्त करता था। और किसी वस्तु का बड़ा या अनगढ़ होना व्यक्त करता था। उसी प्रकार टि अथवा टी मूलतः स्त्रीलिङ्ग भाव व्यक्त करते थे। और किसी वस्तु की लघुता या कोमलता सूचित करने के लिए प्रयुक्त होते थे। बंगला में यह भेद नष्ट हो गया और ये प्रत्यय वस्तु की निश्चयात्मक स्थिति को सूचित करते हैं। राम के साथ टा और टि दोनों का व्यवहार हो सकता है। रामटि कहने पर आत्मीयता का भाव है, रामटा कहने से राम के भारी भरकम होने का बोध होगा। इसी प्रकार गाछटा और गाछटि दोंनों रूप, लिंग भेद से तटस्थ, केवल एक निश्चित वृक्ष का बड़ा छोटा होना सूचित करेंगे। ये टा, टी राजस्थानी के डा, डी मालूम होते हैं। डॉ. चाटुर्ज्या ने बताया कि बंगाल की जनपदीय बोलियों में डा. डी  भी बोले जाते हैं।3

इस प्रकार हम देखते हैं कि भीमटा भीमटी शब्द भी टा प्रत्यय के लगने से बनते हैं। यहाँ भीम शब्द का अर्थ है- भारी अर्थात् गुरु से युक्त। भीमा शब्द भीम का स्त्री वाची शब्द है।

संस्कृत अमरकोष में भी भीम शब्द का अर्थ भयंकर के अर्थ में ही है। जो कि दुराचारियो, दुष्टों में भय पैदा करता है।

बिभेत्यस्मादिति भीमः अमरकोष, प्रथम काण्ड, स्त्रीवर्ग, पृ. 10

भीमं घोरं भयानकं- बिभेत्यस्मादिति भीष्मम्, भीमम् (अमरकोषे) नाट्यवर्ग, प्रथमकाण्ड। पृ 92

 अब बात करते हैं भीमटा’ ‘भीमटी की तो हम पाते हैं कि रामटा’ ‘रामटी की तरह ही हैं ये दोनों शब्द।

भीमटा का अर्थ होता है- भयानक, विशाल। विशालता के अर्थ में एक शब्द और देखने को मिलता है वो है अटा, अटा हुआ। अटारी, अटरिया। विटा शब्द भी ढेर के लिए प्रयुक्त होता है।

अब हम आते हैं वर्तमान के भारतीय सामाजिक संघर्ष व राजनीतिक परिदृश्य में भीम शब्द का प्रयोग भारत के संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकर के संक्षिप्त नाम के रूप में लिया जाता है। सामाजिक व राजनीतिक क्रान्ति के आदर्श वाक्य के रूप में जय भीम  का उच्चारण मन्द स्वर में अभिवादन के लिए, मध्यम स्वर में बाबा साहब भीमराव के नाम बोध के लिए तथा तृतीय स्वर में उद्घोष के लिए किया जाता है।

मुख्य रूप से उद्घोष के लिए प्रयुक्त होने के कारण जहाँ एक ओर सामाजिक रूप से दमित लोग इसे उर्जा का संचार कर अपनी आवाज को बुलन्द करने के लिए अच्छा मानते हुए बार-बार दोहराते है। भारत के विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों, मेलों, आन्दोलनों आदि में इस जय भीम के उद्घोष को सुना जा सकता है।

इस उद्घोष को सुनकर कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग इसे अपने खिलाफ उद्धोष मान बैठते हैं। और बाबा साहब भीमराव के इन दीवानों को रोश में भीमटा या भीमटी कहते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। पुरा साहित्य में भी शब्दों का दूषण देखने को मिल जाता है। बड़े-बड़े साहित्यकार भी इस कुचक्र से नहीं बच सके। जैसे- बुद्ध से द्वेष होने के कारण द्वेषियों ने बुद्धू शब्द को प्रचलित किया। भारत के गौरव महान सम्राट् अशोक के उपाधि नाम देवानां पिय को मूर्खता के अर्थ में प्रचलित करने की कोशिश की। भट्टशब्द का अर्थ विद्वान् होता है। काशमीर के विद्वानों की एक सुदीर्घ शृंखला भट्ट उपनाम से रही है। लेकिन दुर्बुद्धि लोगों ने भट्ट का भट्टा प्रचलति कर दिया। जिसका अर्थ किया गया अधिक भोजन करने वाला। खैर ऐसे लोगों के प्रयास चाँद पर धूलि उछालने के कुकृत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

सामाजिक विद्वेष् से बचें। भीमटा शब्द कोई बुरा शब्द नहीं है। दुर्बुद्धियो के द्वारा पुनः ऐसा प्रयास किये जाने पर मेरा एक पद है कि-

भीमपुत्र को देखिकर, जातंकी का गला फटा,

भीरू ने फिर से भीमटा, भीमटा, भीमटा रटा।

इतना ही नहीं एक संस्कृत पद्य भी प्रस्तुत है-

विभेत्यस्मातनीतिगः,
तसिल्पूर्वकभीम तु।
भीमपुत्रमपश्यन्स:
भीरु: रटति भीमटा।।

  अर्थात् अनीतिग( अनीति पर चलने वाला) जिससे भयभीत होता है। वह भीमता शब्द भीम शब्द में तसिल् प्रत्यय के लगने से बनता है। भीमता भीमराव अम्बेडकर के विचार को मानने वालों के लिए प्रयुक्त होता है। तीब्र ध्वनि के उच्चार के समय स्वर में बदलाव होता है। तथा त के स्थान पर टा हो जाता है। जैसे कि जय भीम के नारों के साथ शोषकों को ललकारते हुए आगे बढ़ते हैं तो शोषकों में में एक भय पैदार हो जाता है कि अब इनका शोषण करना आसान नहीं है। ये लोग प्रतिकार करने लगे है। अतः कुपित होकर वे भीमटा कह कर के ही अपना रोष निकाल लेते हैं।

 वर्तमान भारत में देखा जाये तो प्रत्येक व्यक्ति जो लोकतन्त्र में विश्वास रखता है तथा चाहता है कि संविधान से देश चले तो वह स्वयं संविधान का पालन करता है। कवि बिहारीलाल हरीत के द्वारा उनकी कविता  में 1946 में प्रयुक्त किया गया था। वह कविता है-

नवयुवक कौम के जुट जावें, सब मिलकर कौमपरस्ती में।

जय भीम का नारा लगा करे, भारत की बस्ती-बस्ती में।।4

इतना ही नहीं भीमानुरागी बाबू एल.एन.(लक्ष्मण नागराले) हरदास4 के द्वारा 1935 ई. में गढ़ा गया हुआ माना जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने भीम विजय संघ के श्रमिको की सहायता से अभिवादन के इस सिद्धान्त को बढ़ाया।5

 वर्तमान समय में भारत का प्रत्येक समाजवादी चिन्तक, राजनीतिक नेता, छात्र नेता, छात्र, किसान, किसान नेता, व्यापारी, वकील, डॉक्टर, मजदूर, कर्मचारी, अध्यापक, प्राध्यापक, महिलायें, पेंशनर, बृद्ध, बच्चे, जबान सभी अपनी आवाज को बुलन्द करने के लिए जयभीम का उद्घोष करते हैं। प्रधान मन्त्री हो या राष्ट्रपति सभी यथा अवसर जय भीम का उद्घोष करते देखे जा सकते हैं। इस प्रकार तो वे सभी भीमटा है।

संस्कृत जगत् भी बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के जीवनचरित को लेकर संवर्धित हो रहा है। कुछ संस्कृत रचनायें इस प्रकार हैं-

1.        श्रीकृष्ण सेमवाल प्रणीतं- भीमशतकम्, प्रकाशक- दिल्ली संस्कृत अकादमी, दिल्ली प्रशासन।

2.       अनन्य व्यक्तित्वः डॉ बाबासाहेब आंबेडकरः, पं. वि.शं. किरतकुडवे, 2017, कौस्तुभांजली किरतकुडवे, मुम्बई।

3.       भीमाम्बेडकरशतकम्, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली।

4.       अम्बेडकरदर्शनम्, प्रो. बलदेव सिंह मेहरा, रोहतक, हरियाणा।

5.       भीमायनम्, प्रभाकर शंकर जोशी, शारदा मठ से प्रकाशित।

6.       संस्कृतप्रेमी डॉ. अम्बेडकरः, संस्कृत भारती।

7.       डॉ. बाबा साहेब आंबेडकराः, संस्कृतपुष्पमाला,1972

8.       राष्ट्रनायकः डॉ. अम्बेडकरः अनु. सूर्यनारायण के. एन्. 2007

9.       भारतरत्नमम्बेडकरः संस्कृतभाषा च, डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात 2010

10.  अभिनवशुकसारिकायां अम्बेडकरवर्णनम्, आचार्य राधावल्लभत्रिपाठी 2011

11.  अम्बेडकरस्य संस्कृताभिमानः, सम्भाषणसन्देशे, संपादकीयः, मई 2002

12.  अम्बेडकरः संस्कृतेन भाषते स्म, चमूकृष्ण शास्त्री जून 2003

13.  भारतीये संविधाने सन्ति रामकृष्णादयः अपि, चिन्तामणिः जनवरी.2006

14.  संकल्पं वच्मि वाटिके, डॉ. रामहेत गौतमः।

संगोष्ठियाँ- संस्कृत साहित्ये दलितविमर्शः साहित्य अकादमी, नई दिल्ली।

वर्तमान साहित्य जगत् बाबा साहब को लेकर खूब समृद्ध हो रहा है।

अब तो फिल्म जगत् भी बाबा साहब के विचार को उद्घाटित प्रचारित प्रसारित कर रहा है। दक्षिण भारत में सूर्या के द्वारा निर्मित तमिल फिल्म जयभीम ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं।

            वर्तमान सोशल मीडिया पर इस शब्द का बहुत प्रयोग हो रहा है। लोग अपनी खुन्नश निकालने के लिए शब्दों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहे हैं। जो कि भाषा के साथ खिलवाड़ है। खैर भाषा एक नदी की तरह है। जिसमें बाढ़ के समय बहुत सारा कचरा आ जाता है। फिर भी समय के साथ कचरा छट जाता है। आखिर में शुद्ध जल धारा ही निरन्तर बहती रहती है।  दुर्बुद्धियों के द्वारा प्रदुष्ट किये जाने की लाख कोशिशों के बावजूद भी यह शब्द अपने मूल अर्थ को नहीं खोयेगा।

निस्कर्षतः कहा जा सकता है कि- संविधान के दायरे में रहकर अत्याचार, अनाचार, दुराचार, शोषण, हकमारी के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द करने का पर्याय बन चुका है- जयभीम। भारत भी नहीं पूरी दुनिया अब जय भीम के उद्घोष को अपना चुकी है। भीम शब्द का अर्थ ही है भय पैदा कर देने वाला। बाबा साहब भीमराव अम्बेकर से एक आदर्श नागरिक जो तर्कशील है वो भीम से डरता नहीं प्रेम करता है। डरता तो दुष्ट है। जो भारतीय संविधान के सपनों का मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण सम्पूर्ण प्रभुत्त्व सम्पन्न, समाजवादी, लोकतंत्रात्मक गणराज्य भारत बनने में बाधक बनता है। उसमें भीम शब्द को सुनते ही भय पैदा होना स्वाभाविक ही है। दुष्टता से मुक्त होकर सबको सम्मान, सबको शिक्षा, सबकी सुरक्षा, सबका स्वास्थ्य व सबकी समृद्धि के विचार के साथ  पूरा संसार भीमटा होने को उतारूँ है। क्योंकि भीमटा सम्मान, स्वाभिमान, शिक्षा स्वास्थ्य, समृद्धि के लिए संघर्ष करने वालों का पर्याय बन चुका है। अतः कहा जा सकता है कि- भीमटा होना गौरव की बात है।

 



1       जिनके वारे में निम्नलिखित लिंक से जाना जा सकता है। https://www.linkedin.com/in/rajkumar-bhimte-76433699/

2       अन्य नाम देखने के लिए लिंग को क्लिक करें- https://www.linkedin.com/in/mohan-k-            bhimate-95b572162/?originalSubdomain=in

 

3       देखिए- भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी खण्ड -1, पृष्ठ 92,   राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली/ पटना। PDF देखने के लिए क्लिक करें-  https://ia801600.us.archive.org/18/items/in.ernet.dli.2015.444322/2015.444322.Bharat-Ke.pdf

4       जय भीम का नारा (dalitsahitya.in) 27.04.2021

4       BBC .com जय भीम का नारा---

5       जय भम चे जनक बाबू हरदास एल.एन. (मराठी ग्रन्थ) लेखक पी. टी. रामटेके

Friday, 23 September 2022

स्वीकार्यता कहां से लाओगे

चोटी रखी जा सकती है,
जनेऊ पहना जा सकता है,
कपड़े खरीदे जा सकते हैं,
तिलक जगाया जा सकता है,
नाम भी लिख सकते हैं,
स्वरूप में सब कर सकते हैं,
पर स्वीकार्यता कहां से लाओगे?
उसके बिना मारे जा सकते हो,
घर जलाया जा सकता है,
बहू बेटियों की इज्जत लूटी जा सकती है,
और तो और तुम शीर्ष पर नहीं आ सकते,
शीर्ष धर्म का हो या राजधर्म का या फिर समाज का।
तुम अपने प्रति पुण्य का लालच और 
पाप का भय पैदा नहीं कर सकते।
यह तो मोटे मोटे ग्रन्थ लिख कर किया जा सकता है,
दुर्बोध मंत्र सुना कर किया जा सकता है।
ऐसा तुम कर नहीं सकते क्योंकि तुम्हें काम करना है।
कमेरों के पास समय कहां है ये सब करने के लिए। 
काम नहीं करेंगे तो खायेंगे क्या? पहनेंगे क्या?
चढ़ाबा लेने का जन्मजात अधिकार तुम्हारे लिए नहीं उनके लिए है।
ये अधिकार उन ग्रन्थों में ही लिखा है जिन्हें छाती से लगाये घूमते हो।
उनको जिनके पुरखों ने लिखा तो यह अधिकार उनके लिए लिखा।
तुम सिर्फ डरो आप्त अवज्ञा से।
तुम सिर्फ भीड़ हो, भिड़ो उनके लिए भेड़ों की तरह।
बरेदी मत बनो।
बरेदी एक ही है।
उसकी अभिलाषा है-
तुम सिर्फ चलते रहो, चलते रहो, चलते रहो 
पीछे-पीछे पीछे-पीछे पीछे-पीछे

Thursday, 22 September 2022

हिन्दी मातृभाषा

हिन्दी मातृभाषा
सपने में भी बोलता हूं।
संस्कृत शास्त्रभाषा
शास्त्रों में बोलता हूं।
अंग्रेजी विश्वभाषा
मंचों पर बोलता हूं।
पालि बुद्धभाषा
बोध में घोलता हूं।
हर दिवस मेरा हिन्दी,
हर दिवस मेरा संस्कृत है
हर दिवस मेरा अंग्रेजी,
हर दिवस मेरा बुद्धपालि है।
न कोई भाषा वहिष्कृत
हर दिवस मेरा परिष्कृत है।
हमारा कोई द्वेषी नहीं 
वसुधैव कुटुंबकम् उद्घोष है।

अरे ओ जातीय श्रेष्ठ

अरे ओ जातीय श्रेष्ठ!
कितनी खोखली है तेरी श्रेष्ठता?
इतनी कि कोई खड़ा भी हो 
तो तुम्हारी चूलें हिल जाती हैं।
और तुम बौखला जाते हो।
और लगते कुचलने किसी के स्वाभिमान को
ताकि केवल तुम्हारा ही स्वाभिमान ज़िन्दा रहे,
और तुम खड़े रहो निर्लज्ज ठूंठ की तरह।

यह जाति ब्रह्मजाल का वो तन्तु है
जिसे वह सीने से लगाके ढोता हैं।
केन्द्र में बैक के सोता है सृष्टिकर्ता,
कई के शोषण से वो पोषण पाता है।

Wednesday, 21 September 2022

कुछ अभावों को चीर कर लड़े किसको पता है?

किलों से कूदकर लड़े राजा-रानी सबको पता है,
कुछ अभावों को चीर कर लड़े किसको पता है?
लेखनी से गद्दारी कर गये जातंकी इतिहासकार, 
कुछ पक्षपाती अधूरी बात बोले किसको पता है। rg

Wednesday, 6 July 2022

जातंकवाद

 जातंकवाद

जातंकवाद शब्द का क्या अर्थ है?

उत्तर - जातंकवाद शब्द का अर्थ है जाति के आधार पर फैला आतंकवाद।

यह भारत में सदियों से व्याप्त है। देश को दीमक की तरह खोखला कर रहा है।

राष्ट्र की रक्षा के लिए जातंकवाद को दूर करना ही एक मात्र उपाय है।

यह शब्द जात और आतंकवाद दो शब्दों के मेल से बना है।
इसका अर्थ है कि जात अर्थात् जाति के आधार पर फलता फूलता आतंकवाद।
जो लोग जातीय रूप से हिंसक होते हैं। संसाधनों पर पीढ़ी दर पीढ़ी इनका कब्जा बना हुआ है। संसाधन हीन लोगों को अपनी बराबरी में नहीं देख सकते। सम्मान व समृद्धि में बराबरी करने की सोचने पर ही दंडित करना इन जातीय आतंकवादियों को स्वाभिमान का कार्य लगता है।
अपने ही आस-पास के आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को पनपने नहींं देते।
इन लोगों को समय पर मजदूरी नहीं देते।
इनके खेल-खलिहानों पर कब्जा कर लेते हैं।
इनके मुहुल्लों में जाकर अपने भय से आतंकित करते रहते हैं।
दलित इनके यहां कम मजदूरी में काम करने से मना कर देने पर पूरे परिवार को मारते पीटतेें ताकि आसपास के दलित आतंकित रहें और इनके यहां काम करने से मना न कर सकें।
ये जातंकवादी इन दलितों की बहू बेटियों को कभी भी छेड़ देते हैं। ये लोग उन्हें अपने आतंक से रिपोर्ट लिखाने थाने तक नहीं जाने देते।
अगर थाने चले भी जाते हैं तो डराधमका कर केस बापस लेने के लिये दबाव बनाते हैं।
थाने में पैसा अथवा राजनैतिक प्रभाव के बल पर बच निकलते हैं। और पुनः पीड़ित परिवार को आतंकित करते है।
जब दलित के घर बच्चा पैदा होता है तो उसका नाम सम्मानजनक हो तो सहन नहीं कर पाने के कारण ये जातंकवादी उसका नाम विगाड़कर बुलाना शुरु कर देते हैं। जैसे किसी का नाम गब्बर सिंह है तो उसे गबरू कहकर बुलायेंगे। किसी लड़की का नाम मानकुँअर है तो उसे मनकुज्जा कह कर बुलायेंगे।

यदि कोई दलित बालक स्कूल में जाने लगता है। तो उसे रास्ते में परेशान करते हैं। लड़कियाँ सुरक्षा कारणों से सीघ्र ही शाला त्याग कर देती हैं।
कोई दलिय युवा मूँछ रख ले तो उसे आतंकित करते हैं।
अगर कोई दलित स्वाभिमान की जिंदगी जीना आरम्भ कर देता है तो उसके साथ ये जातंकवारी लूट-खसोट करने से नहीं चूकते।

दलितों को आरक्षण का लाभ उठाकर सम्मान, सुरक्षा , समृद्धि के साथ शिक्षित जीवन जीता देखकर आरक्षण का विरोध करने के लिए जातंकवारी पूरी दमखम लगा देते हैं।

मुगलों से लड़ी वीरांगना,
अंग्रेजों से लड़ी वीरांगना।
जातंकियों की न बनी अंगना,
अंगार बन गई, न अंगना।
फूल थी शूल जो बन गई,
फूलन को शतवार वंदना।rg

दीन की बेटी
मसल दी गई
फूल-सी।
समेटा दामन
उठी शूल-सी।
जातंकवाद से
हिसाब बसूल की।
पली-बढ़ी वो
बीच बबूलन थी।
अब फूल नहीं
वो फूलन थी।