Monday, 27 November 2023
विजय
Friday, 24 November 2023
गौर का सपना
Tuesday, 21 November 2023
रामटा-भीमटा
Monday, 20 November 2023
Tuesday, 7 November 2023
भूखा सोना क्या होता है?
Thursday, 2 November 2023
डर
Wednesday, 1 November 2023
संविधान पढ़ूं या पाखण्ड करूं।
Tuesday, 31 October 2023
Thursday, 26 October 2023
मेरा अंधविश्वास
Tuesday, 24 October 2023
संस्कृत विभाग में अंबेडकर
Monday, 23 October 2023
भरोसे की जमीन
Sunday, 22 October 2023
पहली सेलरी
Saturday, 21 October 2023
Tuesday, 17 October 2023
Sunday, 15 October 2023
बहुजन देवियां
दुनिया आगे है पीछे क्यों रहा जाए
Monday, 9 October 2023
सबाल
Saturday, 7 October 2023
दक्षिण के वासी
Tuesday, 3 October 2023
दबंग
जयतु लोकतंत्रम्
Saturday, 30 September 2023
सेवड़ा वक्तव्य
Wednesday, 27 September 2023
अयं बन्धुः
Thursday, 21 September 2023
वक्रतुण्ड
Wednesday, 20 September 2023
चूल्हा
Sunday, 17 September 2023
गौतम जी के व्यंग
Friday, 15 September 2023
प्रेमरस
अर्थैराक्षणमिच्छति
Wednesday, 13 September 2023
संस्कृत साहित्य में अस्पृश्य विमर्श
Sunday, 10 September 2023
डॉक्टर रामहेत गौतम परिचय
Thursday, 7 September 2023
Sunday, 3 September 2023
Saturday, 2 September 2023
Wednesday, 30 August 2023
Saturday, 26 August 2023
अम्बेडकर की देन
. अंबेडकर सिर्फ हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक भेदभाव के ही विरोधी नहीं थे. वे इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे
जब भारत के प्रमुख विद्वान के तौर पर डा. अंबेडकर को भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथ बोरोह समिति के समक्ष गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सुनवाई के दौरान दलितों एंव अन्य धार्मिक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका और आरक्षण की मांग की. डा. अंबेडकर के इस मांग की तीव्र आलोचना हुई और उन पर आरोप लगा कि वे भारतीय राष्ट्र एवं समाज की एकता को खंडित करना चाहते हैं. लेकिन सच तो यह है उनका इस तरह का कोई उद्देय नहीं था. उनका असल मकसद उन रुढि़वादी हिंदू राजनेताओं को सतर्क करना था जो जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति कतई गंभीर नहीं थे.
इंग्लैंड से लौटने के बाद जब उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा तो समाज में छुआछुत और जातिवाद चरम पर था. उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रवृत्ति और खंडित समाज देश को कई हिस्सों में तोड़ देगा. सो उन्होंने हाशिए पर खड़े अनुसूचित जाति-जनजाति एवं दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रुप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज कर दी. अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 1920 में, बंबई में साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरुआत की जो शीध्र ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया. दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान उनके दिए गए भाषण से कोल्हापुर राज्य का स्थानीय शासक शाहु चतुर्थ बेहद प्रभावित हुआ और डा0 अंबेडकर के साथ उसका भोजन करना रुढि़वाद से ग्रस्त भारतीय समाज को झकझोर दिया. डा. अंबेडक्र मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों को जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति नरमी पर वार करते हुए उन नेताओं की भी कटु आलोचना की जो अस्पृश्य समुदाय को एक मानव के बजाए करुणा की वस्तु के रुप में देखते थे.
अंबेडकर ही एकमात्र राजनेता थे जो छुआछुत की निंदा करते थे
ब्रिटिश हुकूमत की विफलताओं से नाराज अंबेडकर ने अस्पृश्य समुदाय को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का कोई दखल न हो. 8 अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा और कहा कि ‘हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती. उनको शिक्षिईत करना चाहिए, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है. उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा. उनको शिक्षित होना चाहिए. एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है, जो सभी ऊंचाइयों का स्रोत है. इस भाषण में अंबेडकर ने कांग्रेस की नीतियों की जमकर आलोचना की. दरअसलअंबेडकर ही एकमात्र राजनेता थे जो छुआछुत की निंदा करते थे. जब 1932 में ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया. यह अंबेडकर का प्रभाव ही था कि गांधी ने अनशन के जरिए रुढि़वादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की. रुढि़वादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं तथा पंडित मदन मोहन मालवीय ने अंबेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा में संयुक्त बैठकें की. अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गांधी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली. इसके बदले में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश-पूजा के अधिकार एवं छुआछुत समाप्त करने की बात स्वीकार ली गयी. गांधी ने भी इस उम्मीद पर कि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर सभी शर्तें मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया.
गौरतलब है कि आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा चार संभावित उम्मीदवार चुनते और फिर इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव द्वारा एक नेता चुना जाता. उल्लेखनीय है कि इस आधार पर सिर्फ एक बार 1937 में चुनाव हुए. अंबेडकर चाहते थे कि अछूतों को कम से कम 20-25 साल आरक्षण मिले जबकि कांग्रेस के नेता इसके पक्ष में नहीं थे. उनके विरोध के कारण यह आरक्षण मात्र पांच साल के लिए लागू हुआ. अस्पृश्यता के खिलाफ अंबेडकर की लड़ाई को भारत भर से समर्थन मिलने लगा और उन्होंने अपने रवैया और विचारों को रुढि़वादी हिंदुओं के प्रति अत्यधिक कठोर कर लिया. भारतीय समाज की रुढि़वादिता से नाराज होकर उन्होंने नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट कर दी. उन्होंने अपने अनुयायिओं से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्नान किया. उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक स्थानों पर दोहराया भी. 14 अक्टुबर 1956 को उन्होंने एक आमसभा का आयोजन किया जहां उन्होंने अपने पांच लाख अनुयायिओं का बौद्ध धर्म में रुपान्तरण करवाया. तब उन्होंने कहा कि मैं उस धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का भाव सिखाता है.
डा. अंबेडकर सिर्फ हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक भेदभाव के ही विरोधी नहीं थे. वे इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे. वे मुस्लिमों में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के भी आलोचक थे. उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समाज में तो हिंदू समाज से भी कहीं अधिक बुराईयां हैं और मुसलमान उन्हें भाईचारे जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छिपाते हैं. उन्होंने मुसलमानों द्वारा अर्जल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें निचले दर्जे का माना जाता था, के साथ मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की निंदा की. वे स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर थे. उन्होंने इस्लाम धर्म में स्त्री-पुरुष असमानता का जिक्र करते हुए कहा कि बहुविवाह और रखैल रखने के दुपरिष्णाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते जो विशेष रुप से एक मुस्लिम महिला के दुख के स्रोत हैं. जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है. इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो. अगर गुलामी खत्म हो जाए फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जाएगी.
इस्लाम की कट्टरता के खिलाफ भी थे डॉ अंबेडकर
उन्होंने इस्लाम में उस कट्टरता की भी आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरशः अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है. उन्होंने लिखा है कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरित तुर्की जैसे इस्लामी देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया. राष्ट्रवाद के मोर्चे पर भी डा. अंबेडकर बेहद मुखर थे. उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के लिए मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग दोनों की कटु आलोचना की. हालांकि शुरुआत में उन्होंने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया किंतु बाद में मान गए. इसके पीछे उनका तर्क था कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए क्योंकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा होगी. वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत स्वतंत्रता के बाद हर रोज रक्त से लथपथ हो. वे हिंसामुक्त समानता पर आधारित समाज के पैरोकार थे.
उनकी सामाजिक व राजनीतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है. मौजुदा दौर में सभी राजनीतिक दल चाहे उनकी विचारधारा और सिद्धांत कितनी ही भिन्न क्यों न हो, सभी डा. अंबेडकर की सामाजिक व राजनीतिक सोच को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. डा0 अंबेडकर के राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के कारण ही आज विशेष रुप से दलित समुदाय में चेतना, शिक्षा को लेकर सकारात्मक समझ पैदा हुआ है. इसके अलावा बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ भी अस्तित्व में आए हैं जो समाज को मजबूती दे रहे हैं.
बुद्ध की धूप
भारत लाल!विघटन मेट दें रार छोड़ दें।
Thursday, 24 August 2023
Saturday, 19 August 2023
हिन्दी हाईकू रामहेत
Wednesday, 16 August 2023
Sunday, 30 July 2023
मेरी यात्रा
गौरी गू को चबोरो
गेंदा में मछली
मछली पकडना
टिहरी के अंडे
अदवान से बांधते पाँव
घर की लड़ाई
ओंड़े की आग
गुरु महाराज
खरा कौ गोस
सुआटा का खेल
रतन के नेत्र में धूल
घुटीमार
गोबर उगाना
घूरे से कागज बीनता पढता
लोखन रोटी खा गया
लोखन की चिट्ठी
कौशल का गोता
पीतम ने डुबाया
कौशल्या चढ़ गई
नई घड़ी
प्रेस पर उंगली
बड़ी बाई की बाखर
हरिओम का टिरौआ
सौंज की बकरी
पहलवान को पैसा
फटी पेंट की अभिलाषा
नीबू के पेड़ पर तोते का पिंजरा
डंडा पै बैठके चले मम्मा कें
शैल की चोरी
शराब की गंध
घड़ी की खुशी
बांगर में बस्ता
मूंमफली के पौधे
कुँआ पर ओले पड़ना
रहट के पनारे पर नहाना और घिसना
नींव में नहाना
कक्को नहीं चाची नामकरण
दादा के अंतिम समय
भूत दिखना
सूखी
सगुन की आंख में फुली
हरकुँअर - घूरे पर फिरत रत और बटोर लियात कागज।
एक कंधे की तरफ गर्दन झुकाकर खड़ा हो जाता है।
पर मन में चल रहा होता है- कि क्या लिखा है इन कागजों पर।
बीड़ी के बंडल के काजल पर क्या लिखा है
पिता दीवार पर बिन्दी क्यों लगाते हैं
चटकनी बजाते बच्चे।
करेछ का कुरेदना
घूरे के कागज
गुब्बारे
कटीला के बीज सरसों में मिलाना।
दो रुपये का नोट
मोनीटर की परीक्षा
सुरेन्द्र की फट्टी
बोरी का बस्ता
नाम लिखा सहायक वाचन की किताब
गमलों में मछली बांधना
मास्साब के बेर दातुन
बर्ती ढड़काने का खेल
किताबों की चोरी
5 की परीक्षा
6वीं में प्रवेश
सुरेन्द्र की साईकिल
लल्ला के मुंडा
भट्टा की ईंटें
हैंडिल पर बोतल
नाथूराम चौबे जी
लक्ष्मीनारायण तिवारी जी
पटेरिया जी की पिटाई
हरीसिंह का साथ
देवेन्द्र सर का ट्यूशन
देवेन्द्र सर की कुट्टी
एनसीसी की बर्दी
तू पुलिस हम डकैत
झगड़ा
रुपए ऐंठता दरोगा
वकील के चक्कर
पटवारी के चक्कर
साईकिल और भूसे के बोरे
अंग्रेजी का ट्यूशन
सक्सेना सर जी के गमले
अंग्रेजी की किताब
चिट से रटना
ट्यूशन
मजदूरी और पढ़ाई
खेती और पढ़ाई
लल्ला की मालिस और टीव्ही का सौक
बूढ़ी बाई की पौर
गुरु महाराज के वचन
बाग में बैठकर पढ़ना
सगाई ्और चिट्ठी
विवाह
लक्ष्मी खेत में और मैं कॉलेज
कॉलेज की फोटो और लक्ष्मी
शिवम टाकीज
गुरु जी के काम और लोगों की बातें
टोपर क्या होता है।
कॉलेज की प्रतियोगिताएं
मेरे नोट्स और प्रोफेसर
नौकरी का आवेदन और नौकरी
आलमपुर के अनुभव
गुप्ता जी के ताने बीजमंत्र
स्नेही बखान
प्राचार्य और मैं और मेरी पढ़ाई
पीएचडी रजिस्ट्रेशन
परीक्षाओं में ड्यूटी और विवाद
कॉलेज के दायित्व और अध्ययन
भाईयों की शिक्षा और परिवार
पहलीबार गया दतिया
पहलीबार गया ग्वालियर
जब पीमार पड़ा तो डॉक्टर के पास ले जाया गया।
घोड़ों को घास नहीं वाली बात
संस्कृत विभाग में अपने कक्ष में लगाई जब तस्वीर
Saturday, 29 July 2023
Tuesday, 25 July 2023
राणा
Saturday, 22 July 2023
बस करो क्या भारत नाश करोगे
Thursday, 20 July 2023
सस्वर वेद पाठ
Wednesday, 19 July 2023
चलो चार दिना दिहाड़ी
Friday, 14 July 2023
संवेदनहीन साहित्य
Tuesday, 11 July 2023
Sunday, 2 July 2023
गुरु
Saturday, 1 July 2023
ब्राह्मणं
वेद अपौरुषेय नहीं हैं
Wednesday, 28 June 2023
ऊँची है जात
Thursday, 22 June 2023
पिता
Wednesday, 21 June 2023
मेरी सीता
Sunday, 18 June 2023
छरहरी छोरी
Saturday, 17 June 2023
तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो
Friday, 16 June 2023
बुनियादी भूल
Monday, 12 June 2023
कंधे पर
Sunday, 11 June 2023
क्यों जाननी है आपको मेरी जाति?
Thursday, 8 June 2023
Saturday, 27 May 2023
सत्यम् नाम है मेरा
Tuesday, 2 May 2023
आप लिखते कब हैं लिख जाता है
वे दलित को घोड़ी पर कैसे बैठने दें
बनारस यात्रा
Sunday, 30 April 2023
बुद्ध की कलम
भीम की कलम
Wednesday, 26 April 2023
काँटे
लुटेरों का मसीहा
रामायण महाभारत
पूरा नाम
Sunday, 23 April 2023
चुटकी
Thursday, 6 April 2023
जगह मिली संविधान से
Tuesday, 28 March 2023
अभिधा
Monday, 27 March 2023
ब्राह्मणस्य लक्षणं
Saturday, 25 March 2023
जंबूद्वीप पिस रहा
Friday, 24 March 2023
देख पथिक रे! एकाकी मत चल
Friday, 10 March 2023
Thursday, 9 March 2023
मनोबल
Sunday, 26 February 2023
बकरों के मुद्दे
ताड़न के अधिकारी
Saturday, 25 February 2023
जैन दर्शन
जैन दर्शन - प्रमाण मीमांसा
उपासक तत्व चर्चा whatsapp ग्रुप में डा. मंजू जी नाहटा द्वारा लिखे गए posts का संकलन :
प्रमाण का अर्थ:- प्रमाण का अर्थ - किसी भी पदार्थ को जानने का माध्यम या साधन। definition- "प्रमाकरणं प्रमाणं" प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआ– ज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है। एक और शब्द है - न्याय । इसे भी जानें। कारण- प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति, प्रमाता - ये न्याय के ४ अंग हैं।– "चतुरंग: न्याय: " अभी हम न्याय के प्रथम अंग प्रमाण की चर्चा करेंगें। जैनदर्शन में प्रमाण की शुरूआत:– जैनों के आगमों में पंच ज्ञान का सिद्धांत ही प्राचीन था। जैन दर्शन में सर्वप्रथम पहली शती AD के आसपास उमास्वाति ने प्रमाण की चर्चा की।फिर भी इस प्रमाण के क्षेत्र में हम जैनों का प्रवेश बौद्धों, नैयायिकों, मीमांसकों के बहुत पश्चात् ही हुआ। पण्डित सुखलालजी के अनुसार 1/. आगम युग-1st century AD, 2/.अनेकांतस्थापनायुग 2nd cent. AD से 8th cent.AD 3/. न्याय-प्रमाणस्थापना युग 8th cent.AD onwards.
जैनदर्शन में प्रमाण की आवश्यकता:– अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत रहा है। आगमयुग में अनेकांत का उपयोग द्रव्य मींमांसा के लिए हुआ करता था।किंतु समय में परिवर्तन हुआ- खण्डन मण्डन का युग आया तब अनेकान्त का उपयोग क्षेत्र भी बदल गया। अब इस दर्शन युग में अनेकान्त का उपयोग विभिन्न दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने एवं एकांतवादी दर्शनों के सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित करने मे होने लगा। धीरे - धीरे प्रमाण व्यवस्था का विकास होने पर वहाँ भी अनेकान्त का व्यापक उपयोग होने लगा। जैन आगम ज्ञान मीमांसा प्रधान रहे हैं किन्तु आगमोत्तर युग मे जैसे - जैसे न्याय विद्या का विकास हुआ वैसे - वैसे प्रमाण मीमांसा की आवश्यकता महसूस होने लगी। प्रमाण के भेद :- जैन दर्शन में प्रमाण के दो भेद माने गए हैं - प्रत्यक्ष , परोक्ष । हम पदार्थ को या तो साक्षात् देखते हैं या किसी माध्यम से । अर्थात् जानने की दो पद्धतियाँ होती हैं ।
Notable: प्रत्येक भारतीय दर्शन में प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष शब्द का ही प्रयोग हुआ है। लेकिन जैन ज्ञानमीमांसा, प्रमाण मीमांसा में प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष शब्द के साथ परोक्ष का भी प्रयोग हुआ है।प्रमाण को बिस्तार से समझने से पहले आवश्यक है कि जैन आचार्यों द्वारा दी गई प्रमाण की परिभाषाओं को हम हृदयंगम करें।
प्रमाण की परिभाषाएँ :-
सही है कि हम किसी वस्तु को जानना चाहते हैं तो सर्वप्रथम उसकी परिभाषाओं पर दृष्टिपात करें। आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण कह दिया। "ज्ञानं प्रमाणं"।
लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए। अत: later दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं।
जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक , मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई थी अत: अपनी तरफ़ से परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषा प्रस्तुत की -"प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" इस परिभाषा का अर्थ हुआ
अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते हैं कि ज्ञान स्वयं, स्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयं, स्वयं को नही काट सकता - एक चाक़ू को काटने के लिए हमें दुसरे चाक़ू की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँ, दूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो वह चढ़ सकता है । अब दूसरी और देखिए जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थो को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।
ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराए, वह प्रमाण है। सीधे शब्दों में वही ज्ञान प्रमाण की category में सम्मिलित होगा जो स्वयं को जानने के साथ पर को भी जाने।
इनके पश्चात अकलंक आए उन्होंने सिद्धसेन द्वारा प्रयुक्त 'बाधविवर्जित' शब्द को स्वीकार नहीं किया और प्रमाण उसे कहा जो अविसंवादी ( सत्य ख्यापित करने वाला) और अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो वही ज्ञान प्रमाण है।- "प्रमाणमविसंवादीज्ञानमधिगतार्थलक्ष्णत्वात् "। इसका अर्थ हुआ - ज्ञात अर्थ को पुन: जानना प्रमाण नहीं।
इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।
इनके पश्चात विद्यानंद, वादिदेवसूरि द्वारा दी गई परिभाषाएँ तो प्राय: आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र द्वारा दी गई परिभाषाओं से मेल खाती हुईं ही हैं। केवल उनके शब्दान्तर मात्र ही हैं।आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र ने 'अवभास' पद का प्रयोग किया और और इन्होंने 'व्यवसाय' या निर्णीत पद का प्रयोग कर लिया। आचार्य विद्यानंद - "स्वपरव्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्"।
चतुर्थ वर्ग में हेमचंद्राचार्य ने 'स्व, बाधविवर्जित, अनधिगत, या अपूर्व' आदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय:"
भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषा दी – "यथार्थज्ञानं प्रमाणम्"-( वस्तु को जानने का साधन प्रमाण है)।
आइए अब समझें – ज्ञान और प्रमाण क्या हैं? क्या दोनों में कोई समानता है?
उत्तर- हर ज्ञान प्रमाण नहीं होगा। लेकिन प्रमाण ज्ञान ही होगा। जैन परंपरा ज्ञान को ही प्रमाण मानती है।ज्ञान को प्रमाण किस आधार पर कहा गया? और प्रमाण के विभाग कैसे किये गये? - आचार्य महाप्रज्ञ का उत्तर- "ज्ञान केवल आत्म का विकास है। प्रमाण पदार्थ के प्रति ज्ञान का सही व्यापार है। ज्ञान आत्मनिष्ठ है। प्रमाण का संबंध अंतर्जगत् और बहिर्जगत् दोनों से है। बहिर्जगत् की यथार्थ घटनाओं को जब अंतर्जगत् तक पहुँचाए यही प्रमाण का जीवन है। बहिर्जगत् के प्रति ज्ञान का व्यापार एक सा नहीं होता। ज्ञान का विकास प्रबल होता है तब वह बाह्य साधन की सहायता के बिना ही विषय को जान लेता है।विकास कम होता है तब वह बाह्य साधन का सहारा लेना पड़ता है।"
ज्ञान को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। १/. यथार्थ- केवल प्रमाण २/. अयथार्थ- प्रमाण नहीं, केवल(only) ज्ञान। अयथार्थ ज्ञान प्रमाण नहीं होता है। अयथार्थ ज्ञान तीन प्रकार का होता है।- विपर्यय, संशय, अनध्यवसाय। ______________________________________________________________________________________________________________________________________
भारतीय परंपरा में मात्र ज्ञान पर विश्लेषण नंदी सूत्र में ही पाया जाता है। आगमों में कहीं परोक्ष शब्द का प्रयोग इस context में नहीं मिलता है। वहाँ ५ ज्ञान की चर्चा है।
आगम युग में ज्ञान चर्चा के विकास क्रम में तीन भूमिकाएं बनती हैं।:–
१/. भगवती सूत्र में ज्ञान को ५ भेदों में विभक्त किया गया है।
२/. स्थानांगसूत्र में ज्ञान को २ भेदों में विभक्त किया गया है।प्रथम दो ज्ञान परोक्ष हैं वे इंद्रिय उत्पन्न ज्ञान हैं। द्वितीय अंतिम ३ ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। हम उन्हें आत्म -सापेक्ष ज्ञान कह सकते हैं। यहाँ problem यह है कि जिस इंद्रिय ज्ञान को अन्य सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष स्वीकार करते थे– वह इंद्रिय ज्ञान जैन परंपरा में परोक्ष ही रहा। यह जैनों के आगम युग की देन थी।
३/. नंदी सूत्र में ज्ञान को ५ भागों में विभक्त करके फिर इनका समावेश प्रथम बार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में किया।
यह सब बाद के दार्शनिकों ने develop किया, विस्तार किया। 'परोक्ष' एक ऐसा शब्द है जो जैन ज्ञान मीमांसा या प्रमाण मीमांसा में ही प्रयुक्त हुआ है। Jain Logicians का यह original contribution है– " परोक्ष की अवधारणा"।
इस विभाजन की यह विशेषता है कि इसमें इंद्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दोनों भेदों के अंतर्गत स्वीकार किया गया है।
इंद्रिय ज्ञान वस्तुत: तो परोक्ष ही है लेकिन लोकव्यवहार के कारण उसको प्रत्यक्ष कहा है। वास्तविक प्रत्यक्ष तो अवधि, मन:पर्यव एवं केवल ज्ञान ही है।
Conclusion:
1/. अवधि, मन:पर्यव एवं केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। 2/. श्रुतज्ञान परोक्ष ही है। 3/. इंद्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यवहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है। 4/. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने सर्वप्रथम 'विशेषावश्यक भाष्य' में इंद्रिय ज्ञान के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया। हालाँकि लोग इसके प्रथम उपयोग करने वाले को आचार्य अकलंक मानते हैं। आचार्य अकलंक को मानने के कारण:-
१/. अकलंक उत्तरवर्ती आचार्य हैं। २/. अकलंक के ग्रंथ संस्कृत में थे इसलिए लोग उन्हें आसानी से पढ़ पाते थे। इसलिए अकलंक का नाम लिया जाता है।
सारे दार्शनिक उस समय इंद्रिय से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मान रहे थे– वाद विवाद का समय था। तब जैनों ने जटिल परिस्थिति में स्वयं की सुरक्षा के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को स्वीकार किया। प्रत्यक्ष का अर्थ है -
१/. आत्मा, २/. इंद्रिय।
इसलिए इसका समाहार इंद्रिय-प्रत्यक्ष और आत्म-प्रत्यक्ष में करते हैं। " आत्मा के दो गुण हैं। १/. ज्ञान और २/. दर्शन।
दर्शन प्रमाण नहीं बनता केवल (only) ज्ञान ही प्रमाण बनता है।
प्रमाण की आवश्यकता:- वस्तु का अर्थ स्वत: सिद्ध होता है। ज्ञाता उसको जाने या न जाने इससे उसके अस्तित्व में अंतर नहीं पड़ता। हाँ , जब वह वस्तु ज्ञाता के द्वारा जानी जाय तब वह प्रमेय बन जाती है। और ज्ञाता जिससे जानता है, वह ज्ञान यदि सम्यक् और निर्णायक होता है तो प्रमाण बन जता है।
भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषित करते हुए लिखा है– "युक्त्यार्थपरीक्षणं न्याय:"– युक्ति के द्वारा पदार्थ का परीक्षण करना न्याय है। यहाँ दो शब्दों को समझना ज़रूरी है– युक्ति और परीक्षा।
१/. युक्ति- साध्य और साधन के अविरोध का नाम है युक्ति। २/. परीक्षा- एक वस्तु के बारे में अनेक विरोधी विचार सामने आते हैं। तब उनके बलाबल अर्थात् सही ग़लत के निर्णय करने के लिए जो विचार किया जाता है उसका नाम परीक्षा है।
प्रयोजन of न्याय:- पदार्थ का ज्ञान, वस्तु को जानना। वस्तु को जानने के साधन: वस्तु को जानने के साधन दो हैं।
१/. लक्षण २/. प्रमाण १/. लक्षण:- लक्षण का अर्थ पहचान, identity, यह वस्तुगत होती है। लक्षण के दो प्रकार हैं:- १/. आत्मभूत लक्षण २/. अनात्मभूत लक्षण १.आत्मभूत लक्षण:- जिस लक्षण से स्वयं को अलग न किया जा सके।जैसे- गेहूँ से लकीर, जीव से चेतना, गाय से सास्ना( गलकंबल), साधु से महाव्रत। intrinsic nature. २. अनात्मभूत लक्षण:- जो लक्षण लक्ष्य से अलग किया जा सके। जैसे दण्डी से दण्ड, चश्मुद्दीन से चश्मा, लाल टोपी वाले से टोपी। ___________________________________________________________________ ___________________________________________________________________
Qu.1. प्रमाण क्या है?
Ans.1. किसी भी पदार्थ को जानने का माध्यम या साधन।
Qu.2.प्रमाण की परिभाषा क्या है
Ans.2."प्रमाकरणं प्रमाणं"
प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआ– ज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है।
Qu.3.न्याय क्या है।
Ans.3.युक्ति के द्वारा पदार्थ (प्रमेय) – वस्तु की परीक्षा करना । इसके चार अंग है –
i. प्रमाण – (यथार्थ ज्ञान) – मीमांसा का मानदंड ii. प्रमेय – (पदार्थ) – जिसकी मीमांसा की जाए iii. प्रमाता (आत्मा) – तत्त्व की मीमांसा करने वाला iv. प्रमिति (हेय-ज्ञेय-उपादेय बुद्धि) – मीमांसा का फल
Qu.4.प्रमाण और न्याय में क्या कोई संबंध है?
Ans.4. प्रमाण, न्याय का ही एक अंग है ।
Qu.5.जैन दर्शन में प्रमाण-मीमांसा की शुरुआत कब और कैसे हुई ?
Ans.5. भगवान् महावीर के समय में भी वादी मुनि थे, जो अपने मत की स्थापना व दूसरे मत का युक्ति सहित निराकरण करते थे, परन्तु आप्तपुरुष की उपस्थिति में शायद उस समय इसको प्रमाण-मीमांसा में नहीं माना गया ।
जैन दर्शन में सर्वप्रथम पहली शती AD के आसपास उमास्वाति ने प्रमाण की चर्चा की।फिर भी इस प्रमाण के क्षेत्र में हम जैनों का प्रवेश बौद्धों, नैयायिकों, मीमांसकों के बहुत पश्चात् ही हुआ। आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र और आचार्य अकलंक आदि ने इसके क्रमशः विकास में योगदान दिया।
Qu.6. जैन दर्शन में प्रमाण मीमंसा की आवश्यकता क्यों पड़ी?
Ans.6.अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत रहा है। आगमयुग में अनेकांत का उपयोग द्रव्य मींमांसा के लिए हुआ करता था।किंतु समय में परिवर्तन हुआ- खण्डन मण्डन का युग आया तब अनेकान्त का उपयोग क्षेत्र भी बदल गया। अब इस दर्शन युग में अनेकान्त का उपयोग विभिन्न दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने एवं एकांतवादी दर्शनों के सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित करने मे होने लगा। धीरे - धीरे प्रमाण व्यवस्था का विकास होने पर वहाँ भी अनेकान्त का व्यापक उपयोग होने लगा।
Qu.7.प्रमाण के भेद कितने है !(मौटे तौर पर)
Ans.7. 1/प्रत्यक्ष , 2/. परोक्ष।
Qu.8.जैनों की प्रमाण मीमांसा में एक विशेषता क्या है ? जैन आचार्यों द्वारा दी गई परिभाषाओं को क्रमश: समझें और अनुभव करें कि किसकी परिभाषा किस दर्शनमें प्रभावित है?
Answer8:
1. आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण कह दिया। "ज्ञानं प्रमाणं"। लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए।
2. तदुपरान्त दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं। जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक , मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई अत: इस परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषाएँ प्रस्तुत की।
अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते है कि ज्ञान स्वयं, स्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयं, स्वयं को नही काट सकता - एक चाकु को काटने के लिए हमें दुसरे चाकु की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँ, दूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो चढ़ सकता है ।
3. जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थों को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।
ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराए, वह प्रमाण है। सीधे शब्दों में वही ज्ञान प्रमाण की category में सम्मिलित होगा जो स्वयं को जानने के साथ पर को भी जाने।
4. इनके पश्चात अकलंक आए उन्होंने सिद्धसेन द्वारा प्रयुक्त 'बाधविवर्जित' शब्द को स्वीकार नहीं किया और प्रमाण उसे कहा जो अविसंवादी ( सत्य ख्यापित करने वाला) और अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो वही ज्ञान प्रमाण है।- "प्रमाणमविसंवादीज्ञानमधिगतार्थलक्ष्णत्वात् "। इसका अर्थ हुआ - ज्ञात अर्थ को पुन: जानना प्रमाण नहीं।
इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।
5. इनके पश्चात विद्यानंद, वादिदेवसूरि द्वारा दी गई परिभाषाएँ तो प्राय: आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र द्वारा दी गई परिभाषाओं से मेल खाती हुईं ही हैं। केवल उनके शब्दान्तर मात्र ही हैं।आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र ने अवभास पद का प्रयोग किया और और इन्होंने व्यवसाय या निर्णीत पद का प्रयोग कर लिया। आचार्य विद्यानंद - "स्वपरव्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्"।
6. हेमचंद्राचार्य ने स्व, बाधविवर्जित, अनधिगत, या अपूर्व आदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय: प्रमाणम्"
7. भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषा दी – "यथार्थज्ञानं प्रमाणम्"।
- Question: "युक्ति- साध्य और साधन के अविरोध का नाम है युक्ति।" साध्य और साधन में अविरोध कैसे होगा ? कोई उदाहरण
Answer: युक्ति –
• साध्य और साधन में अविरोध । • It means there is no contradiction between probandum (साध्य) and probans (साधन) । • साध्य है अग्नि और साधन है धुआं । • यदि इनमें विरोध हुआ तो उसका अर्थ हुआ “धुआं है, अग्नि नहीं है” । यह कोई युक्ति नहीं हुई । क्या कभी आग के बिना धुआं उठेगा ? यदि इनमें अविरोध होगा तो अर्थ होगा ‘जहाँ- जहाँ धुआं है, वहाँ-वहाँ अग्नि है । यह युक्ति हुई ।
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मिथ्या ज्ञान को प्रमाणाभास कहते हैं। वे तीन हैं:- 1/. संशय 2/. विपर्यय 3/. अनध्यवसाय
१/. संशय-विरुद्ध अनेक कोटि स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते है, जैसे यह सीप है या चांदी। व्यक्ति doubtful रहता है।
२/. विपर्यय- विपरीत एक कोटि ज्ञान के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते है। जैसे सीप को चांदी जानना।wrong knowledge.
३/. अनध्यवसाय- यह क्या है! ऐसे प्रतिभास को अनध्यवसाय कहते हैं जैसे-मार्ग में चलते हुए तृण का ज्ञान करना। actually अनध्यवसाय आलोचना मात्र होता है। किसी पक्षी को देखाऔर एक आलोचना शुरू हो गयी -इस पक्षी का नाम क्या है? चलते चलते किसी पदार्थ का स्पर्श हुआ। यह जान लिया स्पर्श हुआ है किन्तु किस वस्तु का हुआ है, यह नहीं जाना। इस ज्ञान की आलोचना में ही परिसमाप्ति हो जाती है, कोई निर्णय नहीं निकलता। इसमें वस्तु स्वरूप का अन्यथा (उलटा-पुल्टा) ग्रहण नहीं होता इसलिए यह विपर्यय से भिन्न है और यह विशेष का स्पर्श नहीं करता, इसलिए संशय से भिन्न है।
Conclusion:
1.यथार्थ ज्ञान=यह रस्सी है। 2.विपर्ययज्ञान =यह साँप है। 3.संशय ज्ञान =यह रस्सी है, या साँप है। 4.अनध्यवसाय ज्ञान= रस्सी को दैख कर भी पता नहीं चलता कि यह किया है? विषय का स्पर्श मात्र हुआ, नामोल्लेख नहीं होता। अगर यह आगे बढ़े तो अवग्रह के अंतर्गत आ जाएगा। ______________________________________________________________________________________________________________________________________
प्रत्यक्ष प्रमाण
प्रत्यक्ष प्रमाण की चर्चा :-
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रमाण है जबकि प्रायः सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में 'अक्ष' पद का अर्थ इन्द्रिय मानकर कर रहे थे । उनमें से किसी दर्शन ने भी 'अक्ष' शब्द का 'आत्मा' अर्थ मानकर व्युत्पत्ति नहीं की ।
न्याय- वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा आदि दर्शनों के अनुसार इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है ।
इन दर्शनों में प्रसिद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण जैन आगमिक परम्परा के अनुसार परोक्ष-प्रमाण कहलाता है । जैन दार्शनिकों ने इस विरोध को दूर करने के लिए और अन्य दर्शनों के साथ समन्वय करने की दृष्टि से प्रत्यक्ष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन किया और कहा 'विशदः प्रत्यक्षम्' -विशद् (स्पष्ट) ज्ञान प्रत्यक्ष है ।
प्रत्यक्ष के उन्होंने दो भेद कर दिये-१/. पारमार्थिक प्रत्यक्ष और २/. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष। सर्व प्रथम जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और आचार्य अकलंक ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में इन्द्रिय प्रत्यक्ष को प्रतिष्ठापित कर आगमिक और दार्शनिक युग का समन्वय किया । इस प्रकार जैन दृष्टि से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अन्य दर्शनों के साथ समन्वय का फलित रूप है।
जैन दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार माने गए हैं।
1/ पारमार्थिक प्रत्यक्ष, 2/ सांव्यव्हारिक प्रत्यक्ष।
1/. पारमार्थिक प्रत्यक्ष (transcendent) जिस ज्ञान में इन्द्रिय,मन या किसी अन्य प्रमाणों की सहायता की अपेक्षा नहीं होती तथा जो आत्मा से सीधा होता है, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
इसके तीन प्रकार है-
1. अवधिज्ञान, 2. मनः पर्यवज्ञान, 3. केवलज्ञान।
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परोक्ष प्रमाण
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष प्रमाण समझने के पश्चात् हम परोक्ष प्रमाण को समझें
Qu. परोक्ष प्रमाण के भेद?
Ans. मुख्य ५ हैं।
१/. स्मृति २/. प्रत्यभिज्ञा ३/. तर्क ४/. अनुमान ५/. आगम
१/. स्मृति – हम अपना अधिकांश व्यवहार स्मृति के आधार पर ही चलाते हैं। पानी पीते हैं और प्यास बुझ जाती है। यह हमारा जो अनुभव किया हुआ है उसकी स्मृति के आधार पर ही हमें जब-जब प्यास लगती है हम पानी पीते हैं। और पाते हैं कि easily प्यास बुझ जाती है। अत: जैन स्मृति को प्रमाण मानते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसा तर्क भी देते हैं कि कभी कभी स्मृति गलत भी हो जाती है। ऐसी अयथार्थ स्मृति को प्रमाण कैसे समझा जाय? इस आरोप का जैन कुछ इस तरह समाधान देते हैं– जैसे कभी उड़ती हुई धूल को दूर से देख कर प्रत्यक्ष लगता है कि धुंआ उठ रहा है। अत: ऐसे अयथार्थ ज्ञान कभी कभी प्रत्यक्ष में भी हो जाते हैं। ऐसे ही कभी स्मृति से भी ऐसे अयथार्थ ज्ञान होने की संभावना हो सकती है। प्रमाणयुग में अन्य दार्शनिकों ने जैनों द्वारा स्मृति को प्रमाण मानने की युक्तियों पर आक्षेप लगाए गए। जैनों द्वारा दूसरों के द्वारा लगाए हुए आक्षेपों की समीक्षाओं के उत्तर में ये युक्तियाँ दी गईं।
Question:
अन्य दार्शनिकों द्वारा जैनों के परोक्ष प्रमाण स्मृति पर लगाए गए आक्षेप क्या थे? और जैनों द्वारा स्मृति को परोक्ष प्रमाण सिद्ध करते हुए क्या उत्तर दिए गए?
1/ बौद्ध: बौद्धो ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना। उसे प्रमाण न मानने के पीछे उनका यह तर्क था की स्मृति पूर्व अनुभव के अधीन होती है इसीलिए वह अपूर्व नहीं होती अत: वह प्रमाण नहीं हो सकती । इनके अनुसार प्रमाण वह ज्ञान होता है जो अपूर्व अर्थ को जानता है (अपूर्व= पहले कभी न जाना गया, वह ) स्मृति में अपूर्वता नहीं होती अतः वह प्रमाण नहीं।
2/ मीमांसक: कुमारिल (एक आचार्य) आदि मीमांसक ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना। इनका कहना है की स्मृति गृहीतग्राही ज्ञान है। (गृहीतग्राही ज्ञान का अर्थ है ~ ग्रहण किये हुए ज्ञान को पुनः ग्रहण करना)और गृहीतग्राही ज्ञान कभी प्रमाण नहीं बन सकता।मीमांसक बौद्ध आदि के अनुसार स्मृति गृहीतग्राही होने के कारण या आप यू कह दे की अपूर्व अर्थ का प्रकाशन न होने के कारण अप्रमाण हैं। अब इस आपेक्ष के उपरांत स्मृति को प्रमाण साबित करते हुए जैन अपने पक्ष को पुष्ट इस प्रकार करते हैं:-जैन कहते हैं की पहले से गृहीतग्राही हर ज्ञान अप्रमाण कहा जाए तब तो फिर यदि किसी व्यक्ति ने पहले पर्वत पर उठते हुए धुंए को देख कर वहां अग्नि है ऐसा अनुमान से जाना और फिर वहां on the spot जाकर अनुमान से जानी हुई अग्नि को प्रत्यक्ष से जाना तो वह प्रत्यक्ष भी अप्रमाण कहलाएगा। क्योंकि यहाँ पर भी गृहीतग्राही होने के कारण अपूर्वता नहीं हैं।क्योंकि जिस अग्नि को अनुमान से जाना उस अग्नि को ही प्रत्यक्ष से जाना गया हैं।जैनो का कहना हैं की अनुमान से जानी हुई अग्नि को प्रत्यक्ष से जानने पर उस में कुछ अपूर्वता रहती हैं।अतः जब प्रत्यक्ष प्रमाण हैं तो स्मृति को अप्रमाण क्यों माने ?
3/नैयायिक :
ये स्मृति को प्रमाण नहीं मानते, इसका कारण हैं यह कहते हैं की स्मृति पदार्थ जन्य नहीं हैं।अब जैन कहते हैं की यदि नैयायिक स्मृति को प्रमाण नहीं मानते तो उन्हें अनुमान को भी प्रमाण मानने में कठिनाई होगी(जबकि नैयायिक अनुमान को प्रमाण मानते हैं-इसकी हम आगे चर्चा करेंगे)। एक उदहारण से जैन अपने पक्ष पुष्ट करते हैं-जैसे सुबह नदी में बाढ देख कर रात में वर्षा होने का अनुमान किया जाता हैं। यहाँ पर भी रात्रि में हुई वर्षा को हमने प्रत्यक्ष नहीं देखा था,फिर भी वर्षा का अनुमान कर लिया, तो यह अनुमान जिसे नैयायिक प्रमाण मानते हैं,ये कैसे संभव होगा ? अतः जैन कहते हैं की स्मृति अर्थ जन्य (पदार्थजन्य) न होने पर भी प्रमाण हैं।
Conclusion:
जैनो के अनुसार स्मृति प्रमाण हैं, क्योंकि उसका अपना स्वरुप, कारण, विषय एवं प्रयोजन हैं। प्रमाण का आधार अपूर्वता ,अगृहीतग्राहिता या अर्थ जन्य नहीं अपितु प्रमाण की कसोटी हैं - अविसंवादिता (यथार्थ ज्ञान) हैं।और यह अविसंवादीता स्मृति में पायी जाती हैं।अत:स्मृति प्रमाण हैं।
'प्रत्यभिज्ञा' 2/ प्रत्यभिज्ञा :- स्मृति के पश्चात् यह परोक्ष प्रमाण का दूसरा भेद है। प्रत्यभिज्ञा अनुभव और स्मृति के योग से उत्पन्न होता है । जैसे:- यह वही है, यह उसके समान है, यह उससे भिन्न है, विलक्षण है, प्रतियोगी है आदि। अर्थात् की यह एक संकलनात्मक ज्ञान हुआ। A/.स्मृति का कारण जहाँ धारणा है, वहाँ प्रत्यभिज्ञा के दो कारण है- प्रत्यक्ष और स्मृति।
B/. स्मृति का विषय जहाँ अनुभूत पदार्थ है, वहाँ प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप, स्मृति और प्रत्यक्ष इन दोनों अवस्थाओं के बीच रहा एकत्व है।
C/. स्मृति का स्वरूप जहाँ 'वह मनुष्य है' ; वहाँ प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप, 'यह वही मनुष्य है' है।
conclusion: 'यह' मनुष्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है, और 'वही' स्मृति में है। इन दोनों का प्रत्यक्ष और स्मृति का योग हो जाने पर जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञा है।
जैनों के अतिरिक्त अन्य किसी ने भी प्रत्यभिज्ञा के स्वतन्त्र प्रमाण्य को स्वीकार नहीं किया। एक उदाहरण से समझें– किसी एक व्यक्ति ने किसी व्यक्ति को बताया, जो दूध और पानी को अलग करे, वह हंस होता है। वक्ता के ये दो शब्द उसके मन में संस्कार स्वरूप निर्मित हो गए। एक दिन उसने देखा की पक्षी की चोंच प्याले में पड़ी और दूध फट गया। क्षीर, नीर अलग हो गए। यहाँ उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों का योग हुआ, और वह हंस नामक पक्षी को जान गया। इस प्रकार स्मृति और प्रत्यक्ष के निमित्त से होने वाले जितने संकलनात्मक ज्ञान हैं, वे सब प्रत्यभिज्ञा के ही प्रकार हैं।
जैनों के अनुसार प्रत्यभिज्ञा ज्ञान परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि उसका अपना स्वरूप, कारण तथा विषय है। प्रत्यभिज्ञा में भी यथार्थ ज्ञान होता है,अतः वह भी प्रमाण है।
'तर्क'
3/. परोक्ष प्रमाण का तीसरा प्रकार 'तर्क' है । इसका अपना स्वतन्त्र कार्य है। चिंतन के क्षेत्र में तर्क का महत्व बहुत पहले से है और न्याय शास्त्र में इसकी विशेष भूमिका रही है। अब मुझे आप लोगो को दो नए शब्दों से परिचित करवाना होगा-अन्वय और व्यतिरेक । अन्वय और व्यतिरेक के निर्णय को तर्क कहा जाता है।
A/ अन्वय: " यत्र यत्र धूमः तत्र- तत्र वह्नि"। जहाँ जहाँ धुँआ होता है, वहाँ- वहाँ अग्नि होती है। अब देखिये यहाँ दो चीजे हैं - 1/ साधन और 2/ साध्य
इस उपरोक्त पंक्ति में साधन "धुँआ" है (साधन= medium)। और साध्य अग्नि है, अर्थात् हमारा लक्ष्य अग्नि को जानना है और अग्नि को जानने के लिए साधन धुँआ होता है। अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे की जहाँ-जहाँ धूम (साधन) है, वहाँ-वहाँ अग्नि (साध्य) है। अर्थात् साधन के होने पर साध्य के होने को अन्वय कहते हैं।इसे तर्क की भाषा में अन्वय व्याप्ति भी कह देते हैं।
B/ व्यतिरेक:- साध्य के अभाव में साधन का अभाव होना व्यतिरेक है। जैसे- जहाँ-जहाँ अग्नि का अभाव है, वहाँ-वहाँ धूम का भी अभाव है । हम यह न भूलें अग्नि साध्य है, धूम साधन है। धुँआ देखकर ही हम अग्नि के होने को जानते हैं, अग्नि के अभाव में धुँए का भी अभाव होता है। अतः साध्य के न होने पर साधन के न होने को व्यतिरेक कहा जाता है । इसे तर्क की भाषा में व्यतिरेक व्याप्ति कहते हैं।
अन्वय और व्यतिरेक के सम्बन्ध का ज्ञान तर्क से होता है।अतः तर्क का विषय है व्याप्ति को ग्रहण करना। अनुमान के लिए व्याप्ति की अनिवार्यता होती है, और व्याप्ति के लिए तर्क की अनिवार्यता होती है।क्योंकि तर्क के बिना व्याप्ति की सत्यता निर्णय नहीं किया जा सकता। प्रायः सभी परम्पराएँ जो तर्क शास्त्रीय हैं, इसके महत्व को स्वीकार करती हैं। इनमें यदि मतभेद हो, तो वह अपने प्रामाण्य के विषय में है। अर्थात् कि कोई उसे प्रमाण और कोई उसे अप्रमाण मानता है।
तर्क प्रमाण या अप्रमाण: जैन परम्परा में तर्क प्रमाण रूप से स्वीकृत है। जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है- यह व्याप्ति है। यह व्याप्ति का ज्ञान हमें तर्क प्रमाण के द्वारा होता है।
'अनुमान'
4/. अनुमान: यह न्याय शास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। चार्वाक के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शन 'अनुमान प्रमाण' को स्वीकार करते हैं। अनु +मान= अनुमान। अनु का अर्थ है पश्चात् और मान का अर्थ है ज्ञान। अर्थात् बाद मे होने वाला ज्ञान अनुमान है।
भिक्षुन्याय कर्णिका में अनुमान की परिभाषा है– 'साधनात् साध्यज्ञानमनुमानम्' । साधन से साध्य का ज्ञान करना अनुमान है। इस परिभाषा से यह फलित होता है कि अनुमान के मुख्य दो अंग है – 1/ साधन और 2/ साध्य।
1/. साधन प्राय: प्रत्यक्ष होता है और साध्य परोक्ष होता है। हम सबसे पहले साधन को (धूम को) प्रत्यक्ष देखते हैं। फिर जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। इस व्याप्ति की स्मृति करते हैं और उसके बाद साध्य ( अग्नि) का ज्ञान करते हैं।
उदाहरण स्वरुप: पर्वत पर धुआँ है क्योंकि वहाँ पर अग्नि है। इस अनुमान वाक्य मे धूम साधन है। और अग्नि साध्य है। और जिससे सिद्ध किया जाता हैं वह साधन कहलाता है। पर्वत पर उठता हुआ धुआँ जो कि साधन है, वह हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है और उस धुएँ को देखकर हम पर्वत पर अग्नि होने का अनुमान कर लेते हैं। जैन दर्शन में 'अनुमान' (परोक्ष प्रमाण) के दो भेद हैं।
A/ स्वार्थानुमान: जो अपने अज्ञान की निवृति करने में समर्थ हो, वह स्वार्थानुमान है । B/ जो दुसरों के अज्ञान को दूर करने में समर्थ हो, वह परार्थानुमान है।
1/. दूसरे शब्दों में अनुमान के मानसिक क्रम को स्वार्थानुमान और वाचिक क्रम को परार्थानुमान कहते हैं। 2/. स्वार्थानुमान में अनुमान करने वाला स्वयं अपने संशय की निवृति करता है और परार्थानुमान में दुसरों की संशय निवृति के लिए कुछ वाक्यों का प्रयोग करता है जिसे पंच अवयव वाक्य कहते हैं।
उदाहरण स्वरुप : स्वार्थानुमान में व्यक्ति स्वयं धुएँ को देख कर अनुमान कर लेता है। उसे किसी प्रकार के वचनों की सहायता लेनी नहीं पड़ती। पर जब उसी बात का किसी दूसरे को अनुमान करवाना होता है तो उसे कुछ वाक्य बोलकर ही समझाया जा सकता है। ये वाक्य ही अनुमान के अवयव कहलाते हैं। ये पांच अवयव निम्न हैं।
1/ प्रतिज्ञा:- पर्वत अग्नि से युक्त है। 2/ हेतु:- क्योंकि वहाँ धुँआ है। 3/ उदाहरण:- जहाँ जहाँ धुँआ होता है , वहाँ वहाँ अग्नि होती है। जैसे - रसोई घर। 4/ उपनय: क्योंकि पर्वत पर धुँआ है। 5/ निगमन: इसीलिए पर्वत पर अग्नि है।
Notable words: 1. व्याप्ति: किसी एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का मिला होना 2. अन्वयी : पाया जाने वाला 3. व्यतिरेकी: न पाया जाने वाला
प्रश्न - परोक्ष प्रमाण के सारे भेद क्या मति के भेद ही है, सिर्फ आगम को छोड़कर जो कि श्रुतज्ञान का भेद लग रहा है । Answer: - मति श्रुत दोनों मिले जुले से ही होंगें। Question - अगर हाँ - तो क्या अवग्रह, इहा, अवाय, धारणा आदि के साथ स्मृति आदि का कोई सम्बन्ध है? Answer -स्मृति का संबंध धारणा के साथ है। धारणा पक्की हो कर स्मृति बन जाती है। Question - जैसे ये साँप ही है, यहां यथार्थ ज्ञान में आया ज्ञान मीमांसा में ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान अवाय में आता है । Answer - आ सकता है। Question - ऐसे ही अनुमान यहां ईहा जैसा लग रहा है । दोनों वर्तमान में ही है । स्मृति भूतकाल से है । Answer अनुमान पक्का करके आप धारणा भी बना सकते हैं। स्मृति तो definitely भूतकाल है।
5/ आगम यह परोक्ष प्रमाण का अंतिम भेद है। जैन आगमिक परम्परा में इसका आगमिक नाम श्रुत है। जैसे – जैन आगमिक परम्परा का मतिज्ञान जैन तार्किक परम्परा में सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के नाम से अभिहित हुआ।वैसे ही श्रुत भी आगम के नाम से अभिहित हुआ।
Actually- आगम श्रुत ज्ञान या शब्द ज्ञान है। उपचार से आप्त वचन या द्रव्य श्रुत को भी आगम कहा जाता हैं। किन्तु वास्तव में आगम वह ज्ञान है, जो श्रोता या पाठक को आप्त वचन की मौखिक या लिखित वाणी से होता है।
जैन दर्शन सम्मत श्रुत ज्ञान का क्षेत्र काफी व्यापक है। यह सभी असर्वज्ञ प्राणियों में होने वाला वाच्यवाचक संबंधात्मक ज्ञान है, जो शब्द, संकेत आदि माध्यमों से होता है।
चार्वाक दर्शन के अनुसार कोई आप्त नहीं ,अतः किसी के वचन प्रमाण नहीं हो सकते। वैशेषिक दर्शन और बौद्ध दर्शन के अनुसार शब्द प्रमाण अनुमान का ही रूप है। जैन दर्शन को ये दोनों ही मत मान्य नहीं हैं । शब्द सुनते ही श्रोता उसका अर्थ समझ जाता हैं । अतः उसे घट शब्द सुनने के बाद 'घट' शब्द और 'घट' पदार्थ में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं जोड़ना पड़ता। अतः शब्द स्वतंत्र प्रमाण है,अनुमान के अधीन नहीं है। शब्द सुनने पर यदि अवबोध ना हो ,उसके लिए व्याप्ति का सहारा लेना पड़े तो आप शब्द को प्रमाण कहना उचित नहीं,- ऐसा कह सकते हैं। actually वह अनुमान के अंतर्गत नहीं गिना जा सकता। जैन दृष्टि के अनुसार आगम स्वतः प्रमाण, पौरुषेय तथा आप्त प्रणीत होता है। ये दो प्रकार के हैं। 1.लौकिक आगम 2.लोकोत्तर आगम
1. लौकिक आगम:- जो जिस समय जिस लौकिक विषय का यथार्थ ज्ञान एवं यथार्थ वक्ता होता है, वह आप्त है। उसके वचन लौकिक आगम हैं। 2.लोकोत्तर आगम:- आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म का यथार्थ ज्ञान रखने वाला तथा यथार्थवादी महापुरुष लोकोत्तर आप्त कहलाता है। उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य लोकोत्तर आगम के विषय हैं।
वस्तुतः जैन दृष्टि से पुस्तक, ग्रन्थ ,आदि उस ज्ञान के साधन होने से उपचारतः आगम हैं। मुख्य आगम तो वह आप्त स्वयं हैं। अतः आगम पुरुष है, ग्रन्थ नहीं। जिन ग्रंथों में प्रत्यक्ष, युक्ति तथा तर्क नहीं चल सकते, उन परोक्ष और अहेतुगम्य विषयों में आगम ही एक मात्र ज्ञान का साधन है। अतः आगम को प्रमाण न मानने वाले दार्शनिक प्रस्थानों के समक्ष उन विषयों को जानने का कोई आधार नहीं।
Conclusion: जैन परोक्ष प्रमाण के, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, और आगम, ये पाँच भेद हैं।
Notable:
प्रमाण की परिभाषाएँ :-
सही है कि हम किसी वस्तु को जानना चाहते हैं तो सर्वप्रथम उसकी परिभाषाओं पर दृष्टिपात करें।
लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए। अत: later दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं।
जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक , मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई थी अत: अपनी तरफ़ से परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषा प्रस्तुत की -"प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" इस परिभाषा का अर्थ हुआ
अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते हैं कि ज्ञान स्वयं, स्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयं, स्वयं को नही काट सकता - एक चाक़ू को काटने के लिए हमें दुसरे चाक़ू की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँ, दूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो वह चढ़ सकता है । अब दूसरी और देखिए जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थो को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।
ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराए, वह प्रमाण है।
इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।
चतुर्थ वर्ग में हेमचंद्राचार्य ने 'स्व, बाधविवर्जित, अनधिगत, या अपूर्व' आदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय:"
आइए अब समझें – ज्ञान और प्रमाण क्या हैं? क्या दोनों में कोई समानता है?
उत्तर- हर ज्ञान प्रमाण नहीं होगा। लेकिन प्रमाण ज्ञान ही होगा।
भारतीय परंपरा में मात्र ज्ञान पर विश्लेषण नंदी सूत्र में ही पाया जाता है। आगमों में कहीं परोक्ष शब्द का प्रयोग इस context में नहीं मिलता है। वहाँ ५ ज्ञान की चर्चा है।
आगम युग में ज्ञान चर्चा के विकास क्रम में तीन भूमिकाएं बनती हैं।:–
१/. भगवती सूत्र में ज्ञान को ५ भेदों में विभक्त किया गया है।
२/. स्थानांगसूत्र में ज्ञान को २ भेदों में विभक्त किया गया है।प्रथम दो ज्ञान परोक्ष हैं वे इंद्रिय उत्पन्न ज्ञान हैं। द्वितीय अंतिम ३ ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। हम उन्हें आत्म -सापेक्ष ज्ञान कह सकते हैं।
३/. नंदी सूत्र में ज्ञान को ५ भागों में विभक्त करके फिर इनका समावेश प्रथम बार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में किया।
इस विभाजन की यह विशेषता है कि इसमें इंद्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दोनों भेदों के अंतर्गत स्वीकार किया गया है।
इंद्रिय ज्ञान वस्तुत: तो परोक्ष ही है लेकिन लोकव्यवहार के कारण उसको प्रत्यक्ष कहा है। वास्तविक प्रत्यक्ष तो अवधि, मन:पर्यव एवं केवल ज्ञान ही है।
Conclusion:
1/. अवधि, मन:पर्यव एवं केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने सर्वप्रथम 'विशेषावश्यक भाष्य' में इंद्रिय ज्ञान के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया। हालाँकि लोग इसके प्रथम उपयोग करने वाले को आचार्य अकलंक मानते हैं।
१/. अकलंक उत्तरवर्ती आचार्य हैं।
१/. आत्मा,
इसलिए इसका समाहार इंद्रिय-प्रत्यक्ष और आत्म-प्रत्यक्ष में करते हैं। "
दर्शन प्रमाण नहीं बनता केवल (only) ज्ञान ही प्रमाण बनता है।
भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषित करते हुए लिखा है–
१/. युक्ति- साध्य और साधन के अविरोध का नाम है युक्ति।
१/. लक्षण
Ans.1. किसी भी पदार्थ को जानने का माध्यम या साधन।
Ans.2."प्रमाकरणं प्रमाणं"
प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआ– ज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है।
i. प्रमाण – (यथार्थ ज्ञान) – मीमांसा का मानदंड
Ans.4. प्रमाण, न्याय का ही एक अंग है ।
Ans.5. भगवान् महावीर के समय में भी वादी मुनि थे, जो अपने मत की स्थापना व दूसरे मत का युक्ति सहित निराकरण करते थे, परन्तु आप्तपुरुष की उपस्थिति में शायद उस समय इसको प्रमाण-मीमांसा में नहीं माना गया ।
जैन दर्शन में सर्वप्रथम पहली शती AD के आसपास उमास्वाति ने प्रमाण की चर्चा की।फिर भी इस प्रमाण के क्षेत्र में हम जैनों का प्रवेश बौद्धों, नैयायिकों, मीमांसकों के बहुत पश्चात् ही हुआ। आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र और आचार्य अकलंक आदि ने इसके क्रमशः विकास में योगदान दिया।
Ans.6.अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत रहा है।
1. आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण कह दिया। "ज्ञानं प्रमाणं"। लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए।
2. तदुपरान्त दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं। जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक , मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई अत: इस परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषाएँ प्रस्तुत की।
अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते है कि ज्ञान स्वयं, स्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयं, स्वयं को नही काट सकता - एक चाकु को काटने के लिए हमें दुसरे चाकु की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँ, दूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो चढ़ सकता है ।
3. जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थों को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।
ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराए, वह प्रमाण है।
इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।
6. हेमचंद्राचार्य ने स्व, बाधविवर्जित, अनधिगत, या अपूर्व आदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय: प्रमाणम्"
• साध्य और साधन में अविरोध ।
१/. संशय-विरुद्ध अनेक कोटि स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते है, जैसे यह सीप है या चांदी। व्यक्ति doubtful रहता है।
२/. विपर्यय- विपरीत एक कोटि ज्ञान के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते है। जैसे सीप को चांदी जानना।wrong knowledge.
३/. अनध्यवसाय- यह क्या है! ऐसे प्रतिभास को अनध्यवसाय कहते हैं जैसे-मार्ग में चलते हुए तृण का ज्ञान करना। actually अनध्यवसाय आलोचना मात्र होता है। किसी पक्षी को देखाऔर एक आलोचना शुरू हो गयी -इस पक्षी का नाम क्या है? चलते चलते किसी पदार्थ का स्पर्श हुआ। यह जान लिया स्पर्श हुआ है किन्तु किस वस्तु का हुआ है, यह नहीं जाना। इस ज्ञान की आलोचना में ही परिसमाप्ति हो जाती है, कोई निर्णय नहीं निकलता। इसमें वस्तु स्वरूप का अन्यथा (उलटा-पुल्टा) ग्रहण नहीं होता इसलिए यह विपर्यय से भिन्न है और यह विशेष का स्पर्श नहीं करता, इसलिए संशय से भिन्न है।
Conclusion:
1.यथार्थ ज्ञान=यह रस्सी है।
प्रत्यक्ष प्रमाण की चर्चा :-
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रमाण है जबकि प्रायः सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में 'अक्ष' पद का अर्थ इन्द्रिय मानकर कर रहे थे । उनमें से किसी दर्शन ने भी 'अक्ष' शब्द का 'आत्मा' अर्थ मानकर व्युत्पत्ति नहीं की ।
न्याय- वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा आदि दर्शनों के अनुसार इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है ।
इन दर्शनों में प्रसिद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण जैन आगमिक परम्परा के अनुसार परोक्ष-प्रमाण कहलाता है । जैन दार्शनिकों ने इस विरोध को दूर करने के लिए और अन्य दर्शनों के साथ समन्वय करने की दृष्टि से प्रत्यक्ष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन किया और कहा 'विशदः प्रत्यक्षम्' -विशद् (स्पष्ट) ज्ञान प्रत्यक्ष है ।
जैन दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार माने गए हैं।
1/ पारमार्थिक प्रत्यक्ष,
इसके तीन प्रकार है-
1. अवधिज्ञान,
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष प्रमाण समझने के पश्चात् हम परोक्ष प्रमाण को समझें
Qu. परोक्ष प्रमाण के भेद?
Ans. मुख्य ५ हैं।
१/. स्मृति
अन्य दार्शनिकों द्वारा जैनों के परोक्ष प्रमाण स्मृति पर लगाए गए आक्षेप क्या थे? और जैनों द्वारा स्मृति को परोक्ष प्रमाण सिद्ध करते हुए क्या उत्तर दिए गए?
3/नैयायिक :
ये स्मृति को प्रमाण नहीं मानते, इसका कारण हैं यह कहते हैं की स्मृति पदार्थ जन्य नहीं हैं।अब जैन कहते हैं की यदि नैयायिक स्मृति को प्रमाण नहीं मानते तो उन्हें अनुमान को भी प्रमाण मानने में कठिनाई होगी(जबकि नैयायिक अनुमान को प्रमाण मानते हैं-इसकी हम आगे चर्चा करेंगे)।
Conclusion:
जैनो के अनुसार स्मृति प्रमाण हैं, क्योंकि उसका अपना स्वरुप, कारण, विषय एवं प्रयोजन हैं।
'तर्क'