Monday, 27 November 2023

सामाजिक परिवर्तन में भाषा- साहित्य की भूमिका

विजय

एक राजा के राज्य में बहुत अव्यवस्था थी। 
राजा को खबर लगी कि जनता में इतनी नाराजगी है कि जनता सड़कों पर उतर सकती है। 
पूरे प्रशासनिक अमले में खलबली मच गई कि अब इतना बजट भी नहीं है कि छोटा सा काम भी किया जा सके।
तभी एक चतुर मंत्री बोला कि महाराज महाराज आप जूते पहनकर मंदिर के सामने से गुजर जाईए शेष मुझ पर छोड़ दीजिए। 
राजा ने ऐसा ही किया। 
मंत्री के एक गुप्तचर ने जनता के बीच जाकर इसे मुद्दा बनाने में मदद की। 
जनता सड़कों पर आ गई जो कि उसे आना ही था।
खूब झड़पें हुईं।
जब लगने लगा कि विद्रोह पूरे उफान पर है। 
अब राजा से उस चतुर मंत्री ने कहा कि अब आप खेद प्रकट कर दो।
उधर कुछ कारिंदों को जनता के बीच से उनका प्रतिनिधि मंडल के रूप में बुला कर माफी की खबर फैलवा दी।
जनता की विजय हुई। 
अब जनता अपनी विजय की खुशी मनाने में मग्न हो गई। 
राजा का विद्रोह का संकट टल गया।

Friday, 24 November 2023

गौर का सपना

गौर का सपना मर गया
जब स्वार्थ घर कर गया।
पारा टपरा पर चढ़ गया
अखबार भी बिगड़ गया।।
बब्बा को छोड़ डब्बा 

Tuesday, 21 November 2023

रामटा-भीमटा

राम रटा तो मार खाया
भीम रटा मुक्ति पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

राम सुना तो कानों सीसा
भीम रटा सब सुन पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

राम रटा तो जीभ काटी
भीम रटा बोल पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

राम देखा तो आँखें फूटी
भीम कहा सब देख पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

राम छुआ तो हाथ काटे
भीम दिया सब छू पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

रामें चला तो पैर टूटे
भीम चाल चल पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

राम ढोया तो पीठ सूजी
भीम भार तर जाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

राम न बोला मत मारो रे!
भीम कहा जेल भिजाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

रामटा बनूं बेगार करनी
भीमटा हो हक पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

रामटा बनूं पढ़ावें न रामटे 
भीमटा बन पढ़ पाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

रामटी बनूं तो छेड़ें रामटे
भीमटी बन लड़ जाऊंगी।
रामटी बनने न दोगे तुम
तो भीमटी बन जाऊंगी।।

रामटा हो घोड़ी न चढ़ सकूं
भीमटा बन चढ़ जाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

रामटा होऊं मूँछें उखड़ें तो
भीमटा बन ऐंठ चढ़ाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

रामटों जैसा सज न सकूं तो
भीमटा बन सज जाऊंगा।
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

सुनो रामटों भेद न सहूं अब
भीमटा बन लड़ मर जाऊंगा
रामटा बनने न दोगे तुम
तो भीमटा बन जाऊंगा।।

अपनों के साथ तृप्ति पूर्वक जीने की योग्यता अवैर ही है।



Monday, 20 November 2023

रिस्ते

मेरे रिस्ते सब से अच्छे हैं
राज की बात तो यह है कि
किसी से कोई उम्मीद नहीं रखता हूं।

Tuesday, 7 November 2023

भूखा सोना क्या होता है?

नौकरी थी, वेतन भी आयी,
फिर भी भूखा सोया परिवार।
जिम्मेदारी का था अह्सास, 
आहूत रिश्तों पर था त्यौहार।

Thursday, 2 November 2023

डर

सदियों से जमे डर को अगर धीरे-धीरे निकाला जाए, जैसे छुटाते हैं किसी दाग-धब्बे को। जैसे नाली में जमा कीचड़ में पानी निरंतर डाला जाए तो धुल जाता है कीचड़। 
जमा डर कि नाराज हो सकता है देव और हो सकता है नुकसान।

Wednesday, 1 November 2023

संविधान पढ़ूं या पाखण्ड करूं।

जब दादा-दादी को रौंदा तो 
परदादे चिल्लाए- 
हे देव बचा ले!
पर, कोई नहीं आया।
दादा-दादी भी बेगार करने लगे, 
लगा सब ठीक हो गया।

माता-पिता ने किया विरोध बेगारी का फिर, 
फिर कुछ झड़पें हुईं,
फिर दादा-दादी ने दुबकाया,
विरोध, व झड़पों से बदला कुछ 
और कुछ कानून के डर से 
अब बेगार नहीं मजदूरी पाये।

फिर गांव में पंचायतें हुईं
बात रखी गई कि
कोई अंबेडकर हैं
उन्होेंने कहा है कि 
गन्दे व गुलाम मत रहो,
गंदा व उतरन मत पहनो,
गंदा व झूठन मत खाओ,
नशा व कर्ज मत करो।

कुछ  बचत होने लगी, 
कुछ अनाज, 
कुछ कपड़े, 
कुछ ईंटें तो जमा पाये,
पर न ले पाए भीम प्रतिज्ञाऐं और शिक्षा।  

कुछ आजादी,
कुछ वक्त, 
कुछ धन आया ही था कि
धूर्तविद्या का आकर्षण 
और धूर्तों को भी लालच बढ़ा।

देखा-देखी दे खर्चा सब,  
कथा कराए, 
भलें कथा का सामान न छू पाये।
दूर से ही पैंड़ भर अशीष लिया
और धूर्त ने लिया छींछा।

पाखंड में बीता समय 
और फिर पैदा हुए हम, 
जैसे हमेसां होते आए दलित।
फिरें पहने ताबीज-धागे, 
मदिरा की धार वही, 
और बली बकरों-मुर्गों की।

कालचक्र घूमा 
और हम घूमे मैले-कुचैले खेत-खदान पै।
एक दिन आदेश आया,
और मास्टर जी घबराये। 
दौड़े-भागे हांपते-भांपते, 
दलित वसती में आये और बोले-
भेजो बालक विद्यालय, 
हमारी नौकरी बच जाए।

फिर डरे सहमे से हम 
साथ पिता के स्कूल आये।
पंडित जी का लंबा सोटा 
और दलित बच्चों की लाइन अलग।
मुँह से कहते पढ़ो पर सोटे से भगो।

जैसे-तैसे पढ़ निकरें बाहर
फिर टूटे जातंकी बच्चों का कहर।
जैसे काम पै पिता,  बैसे ही स्कूल में हम, पिट आते।
हमने भी विनती करी खूब देवों से 
पर कहाँ और कब? वे बचाने आते।

एक दिन आदेश पाकर 
फिर पुलिस ने समझाया।
 मत मारो दलितों को, 
भाई! सजा का एक्ट है आया।

 मौका मिला तो 
हमने पढ़ लिया।
सुरक्षा मिली तो 
हमने बढ़ लिया।

गंडे ताबीज पहन कर भी  
बच्चे अनगिनत मर गए। 
इलाज मिल गय वक्त पर,  
और हम उनमें से बच गए।

कुछ नेक इंसान भी थे 
वे हमको राह दिखा गए।
लुढ़कते-लुढ़कते ही सही 
शिक्षा हम भी पा गए।

संविधान का सरकार पर 
और सरकार का प्रशासन पर दबाव बढ़ा।
दबाव में ही सही 
नौकरी में प्रतिनिधित्व देना पड़ा।

मेरी मजदूरी छूट गई। 
मुझे नौकरी मिल गई। 
अब सब बोल रहे हैं 
कि कुछ दान-पुण्य करो।
मेरा मन कह रहा है कि 
सबसे पहले कर्जा भरो।
अब तुम ही बताओ, 
मैं क्या करूँ?

तीर्थ करूं या 
समाज में जाऊं?
धूर्त पूंजूं या 
समाज को लौटाऊं?
पाखण्ड करूं या
संविधान पढ़ूं?

पाखंड पूजा

पहले कौन?
पुत्र-पुत्री की शिक्षा
पाखंड इच्छा।

पाया किस से?
संविधान न्याय से 
विनती करे से।


Thursday, 26 October 2023

मेरा अंधविश्वास

घर में गजर, मक्का, ज्वार,  बाजरा की कोंईं बनतीं, कभी रोटी। कभी मेहमानों के लिए गेहूँ के आटे की व्यवस्था हो जाती तो बच्चों की भी लाग लग जाती।
किसी बच्चे को स्वेटर आ जाता तो महोत्सव मनता।
गप्पी, धपरा, गोई बच्चों दौलत थी।
जब बीमार पड़ते तो डॉक्टर को नहीं झाड़फूंक वाले को खोजा जाता या फिर टोने-टोटके।
गलसुआ होने पर मच्छूदाऊ के चबूतरे पर नमक की डली डाल आते।

वैचारिक रूप से मैं यहाँ हूँ  पर वह वहीं है।

धरती किसान की

धरती मिट्टी की,
बहुत खूब। 
मिट्टी लहू की,
गलत बात। 
मिट्टी कुदाल की है।
कुदाल किसान की।

Tuesday, 24 October 2023

संस्कृत विभाग में अंबेडकर

संस्कृत विभाग में अपने कक्ष में लगाई जब तस्वीर 
एक शुभचिंतक ने सलाह दी।
सर अंबेडकर जी की तस्वीर सामने क्यों लगाए हैं?
उनका चिंता स्वाभाविक थी, उन्हें पता था कि इससे संस्कृत वे मनीषी नाराज हो सकते हैं, इनका प्रमोशन, उच्च पद पर सिलेक्शन रुक सकता है।
पर मेरा विश्वास है कि अम्बेडकरवादी अंबेडकर के आदर्शों पर चलकर भी निडर व यथार्थ स्वीकार के साथ जी सकता है। प्रमोशन, सिलेक्शन गौड हैं।
तस्वीर यथावत है, सबकी स्वीकार्यता भी कम न होकर बड़ी है, क्योंकि सहयोग व समर्पण वैचारिक विरोधियों को भी अपना बना देता है। इसके बिपरीत समान विचारक भी गैर हो सकते हैं।
इससे सिद्ध हुआ आप जो हैं खुल कर जिओ, आपको नकारा नहीं जा सकता। नकार तो दोहरे चरित्र के कारण होता है।

Monday, 23 October 2023

भरोसे की जमीन

अंबेडकर की सोच से प्रभावित होकर "क" ने 
"ख" की मदद करना प्राथमिक पर रखा 
न कि अपनी सुख-सुविधाओं को।
जब "ख" लायक हुआ 
तो उसकी प्राथमिकता पाखण्ड हुआ। 
इस तरह अंबेडकर की सोच की उपेक्षा
तथा पाखण्ड की पूजा द्वारा
"ख" की मूढ़ता जानकर 
"क" के पैरों के नीचे से भरोसे की जमीन खिसक गई। 

Sunday, 22 October 2023

पहली सेलरी

पहली सेलरी आने वाली ही थी कि 
विचार आया कि पहली सेलरी सबसे पहले कहां खर्च करना चाहिए?
विचार तैरने लगे-
1. मंदिर में पर विचार आया बचपन से अब तक मंदिर से कॉपी-किताब नहीं आयी, पिता लकड़ी बेचने के बाद खरीद कर लीये थे। वह लकड़ी भी बंजर जमीन के झाड़झंकड़ से निकाल रहे थे तभी उनको ततैयों ने काट लिया था, वदन छिल गया था सो अलग। गट्ठर लेकर भुनसारे 4 बजे निकले थे झाँसी की गलियों में बेचने के लिए, डर था कि वर्रखा न मिल जाये, हुआ वही वर्रखा ने पीछा कर लिया, डर कर खूब साइकिल तदेरी पर बजन लेकर दूल्हेराजा की घटिया न चड़ सके हांपनी छूट गई, वर्रखा ने पीछे से लाठी मारी, और चिल्लाया कायरे को है?
लड़खड़ा कर गिरने से छिले घुटने को पंचा से कंकड़ झाड़ते हुए- दाऊ मैं हों मुलाम।

चैरिया बैल

आगे अगली बार 

Saturday, 21 October 2023

जातिवादः

सत्ता-संसाधनेभ्यश्च  शिक्षा-रक्षाप्रवारणं।
वृहद्भागसमाजस्य, जातिवादस्तु वञ्चनम्।। RG

Tuesday, 17 October 2023

मौलिक विचार

तुम भीड हो नकार सकते हो,
मैं अकेला लेकिन मौलिक हूँ। 
अगर सुन लोगे 

Sunday, 15 October 2023

बहुजन देवियां

महामाया, गौतमी, संघमित्रा, सावित्री, फातिमा, झलकारी, भीमा, रमा, फूलन, माया।
बहुजनहिताय बहुजन सुखाय जीवन लगाया।

दुनिया आगे है पीछे क्यों रहा जाए

मैं वाल्मीकि एक कल्पना हूं
कुछ कहकर कुछ कमाने की।
ठगों ने खूब कहा मेरा कहकर,
ठगा राजाओं को देवता कहकर। 
राजतंत्र में कथायें राजा सुनते थे,
फिर दिव्यता के सपने बुनते थे।
ठग पूजे जायें, लठैत लूटते जाएं,
गठजोड़ में जनता की पड़ी नाएं।
जनता जीती थी अपने तरीके से,
कहती-सुनती थी अपने तरीके से।
ठग शम्बूक रच राजा को सुनाते रहे,
लुटेरे खुद को राम मान मारते रहे।
ठग न वाल्मीकि थे कि लंगोटी में जीते,
लुटेरे न राम थे कि बोधिसत्व हो जीते।
कथा छोड़कर इंसान की व्यथा देखो,
आज जीना कैसे है? कुछ तथा देखो।
घंटा-घंटी से कुछ कब निकला है?
हल समता का शिक्षा से निकला है।
आवाज बुलंद हो प्रतिनिधित्व की,
बात नौकरी, व्यापार, राजनीति की।
बात घर, कुएं, खेत, खलिहान की
बात दरवाज़े, गली, गूल, सड़क की।
बात, आंगनबाड़ी, स्कूल, कॉलेज की,
बात, कक्षा, सभा, सेमिनार में मंच की।
बात वार्ड, पंचायत, विधान, संसद की,
बात थाने, अस्पताल व न्यायालय की।
बात रोटी, रोज़गार, इलाज सुरक्षा की,
बात संसाधनों के समान वितरण की।
बात सर्वत्र अबसर की बराबरी की, 
बात समान सम्मान पाने व देने की।
और इससे अधिक क्या? कहा जाए,
दुनिया आगे है, पीछे क्यों रहा जाए?

Monday, 9 October 2023

सबाल

सबाली- तुम अपने माता-पिता की क्यों नहीं सुनते?
जबावी- सुनता तो हूं।
सबाली- तो तांत्रिक के पास क्यों नहीं चले जाते।
जबावी- 
सबाली-
जबावी- 
सबाली-
जबावी- 
सबाली-
जबावी- 
सबाली-

दैवीय शक्ति किसी को भी मान लें उनकी वजह से हमारी जिन्दगी में कोई बदलाव न तो आया है और न आयेगा। बदलाव समाज सुधारकों के योगदान से आया है। वही मार्ग सही है। जिनका पेट भरा हुआ है वे भक्ति करें। जिनका पेट खाली है शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान, संसाधन, सहभागिता के लिए, उन्हें समाजसेवियों की जरूरत है अवतारों, भक्तों की नहीं।

Saturday, 7 October 2023

दक्षिण के वासी

गांव के दक्षिण में रहती थी ढूमा और उसके बच्चे।
मरे हुए पशुओं का मांस उनकी आजीविका का मुख्य साधन था।

Tuesday, 3 October 2023

दबंग

किसी का घर 
गिराने वालों पर 
उंगलियां 
उठने वाली ही थीं 
कि 
किसी का धर जल उठा।

सुना था कि
पंचों में परमेश्वर आते हैं
मगर आज देख लिया
पंच ही परमेश्वर हो जाते हैं।

लोग कहते हैं
जिसका कोई नहीं होता
उसका खुदा होता है
देख लिया है आज लेकिन
खुदा उसका होता है
जिसकी सत्ता होती है।

मिथ्या गाते हैं लोग
हर नारी देवी की प्रतिमा,
सच तो यह है
दबंग ही बताते हैं कि
कौन होगी नगर वधू।

जयतु लोकतंत्रम्

जयतु लोकतंत्रम्।

एक बार मुर्गों को भ्रम हो गया कि 
उनके वाग् देने से ही सूर्योदय होता है।
बोले हम भूदेव हैं।
सभी हमारी आज्ञा पालन करें।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो मुर्गे वाग् देना बन्द करेंगे।
यह घोषणा सुन चारों तरफ हाहाकार मच जाता।
पंचायतें होतीं।
मुर्गों के सरदार की मागें मान ली जातीं। 
जनता राहत की सांस लेती।
समय ने करवट ली।
राजतंत्र चला गया लोकतंत्र आ गया।
सबके प्रतिनिधित्व का नियम आया। 
समय के साथ मुर्गों का भ्रम सातवें आसमान पर जा पहुंचा था।
सब जगह सबके प्रतिनिधित्व की मांग के अनुसार कुछ गैर मुर्गों को अपनी बराबरी पर देख कर उनके सब्र का बांध टूट गया, और एक दिन मुर्गों ने घोषणा कर दी कि आज के बाद मुर्गे वाग् नहीं देंगे। 
वोट कटने के डर से मुर्गों की मांग नहीं मानी जा सकी।
सारे मुर्गे घुच्च मार कर सो गए, सोचे कि अब देखते हैं कि कल से कैसे संसार चलता है।
अन्य लोग रात भर बेचैन रहे कि अब क्या होगा? 
पूरी पहाड़ सी रात पलकों में ही कट गई।
सूर्योदय समय पर ही हुआ। 
संसार ठीक वैसे ही चल रहा था।
मुर्गों की आँख खुली।
अब किस मुँह से बाहर निकलें सोच ही रहे थे कि मोहल्ले के लोग एकत्रित हो आए और बोले इस लोकतंत्र में आपका प्रतिनिधित्व बना रहे अतः आओ सब मिलकर रहें।
अब मुर्गे सबके प्रतिनिधित्व की बात के साथ बोलते हैं- जयतु लोकतंत्रम्।

Saturday, 30 September 2023

सेवड़ा वक्तव्य

नमो तस्स भगवतो अरहतो संमा संबुद्धस्स।
त्रिशरण क्यों?
त्रिशरण किसके लिए?
आपके लिए त्रिशरण क्यों?
आप कौन?
श्रमण हैं आप-  उत्पादक, निर्माता, कलाकार, नागर हैं, 
जातकों के बोधिसत्व, बौद्ध साहित्य के रचियत, गुफाओं के निर्माता,  लेखक, महाविहारों, विश्वविद्यालयों के मालिक हैं आप, वैद्य, रक्ष, 
पराधीन होने पर खो दिया-
1 स्वास्थ्य
2 सुरक्षा
3 समृद्धि
4 सम्मान 
5 शिक्षा

हारे क्यों?
तर्कशीलता का अभाव-
गैरों पर विश्वास, अपनों पर अविश्वास 
विश्वास घात,
अंधविश्वास, पाखंड,  कुरीतियां
दिखावे पर खर्च 
संपत्ति का हरण 
दमन
हौंसला टूट चुका है
हिम्मत नहीं जुटा पा रहे क्योंकि मरने का डर, 
रोज अपमानित होकर रोज मर रहे हो,
कर्जदार हो चुके हो,
अहसान तले दबे हो,
मेंड़ उनकी है,
राशन वे देते हैं
चुनाव में साडी, बाद हकमारी 
गलियां चौड़ी
चिथड़े छोड़ों
पैसा पाखंड में नहीं पढ़ाई पर 
शस्त्र और शास्त्र पर आपकी पकड़ नहीं  
प्रतीकों का प्रयोग डराने - बिजूका 
ललचाने- बहेलिया करता है
ताबीज धागे वंधन हैं

 





Wednesday, 27 September 2023

अयं बन्धुः

अयं बन्धु: अयं नेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु विगतावरणैव धी:।।
योगवासिष्ठ - ५/१८/६१

ये पापानि न कुर्वन्ति मनोवाक्कर्मबुद्धिभिः।
ते तपन्ति महात्मानो न शरीरस्य शोषणम्।।
महा. वन पर्व - २००/९९

अहिंसा सत्यवचनम् आनृशंस्यं दमो घृणा।
एतत् तपॊ विदुर्धीरा न शरीरस्य शॊषणम्।।
महा. शान्ति पर्व - ७८/१८

Thursday, 21 September 2023

वक्रतुण्ड

वक्रतुण्ड महाकायसूर्यकोटिसमप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।

वक्कतुण्डो महाकायसूरियकोटिसमम्पभा।
निव्विघ्नं कुरु मे देव सब्बकायेसु सब्बदा।।

वक्रतुण्ड- नम्र मुखमण्डल 
महाकायसूर्यकोटिसमप्प्रभा- विशाल सूर्यों की कोटि(करोड़ों सूर्य समूह) को समित करने वाली प्रभा (कान्ति सौम्यता) वाले।
निर्विघ्नं कुरु- राग रहित कर दो।
मे देव- मेरे बुद्ध देव।
सर्वकार्येषु- भौतिक भोग व्यापारों में
सर्वदा- आद्यान्त 
अर्थात्
निर्वाण प्राप्त हो।

यह शरणागत का भन्ते के सम्मुख निवेदन वाक्य है।

Wednesday, 20 September 2023

चूल्हा

चूल्हे की आग के आगे 
टिक नहीं सकता सूरज कभी।
मेरे घर की औरत सुलगाती है
सूरज उगने से पहले और 
सूरज उगने के बाद चूल्हा।

Sunday, 17 September 2023

गौतम जी के व्यंग

बांस का फटका 
आंध्रज पटका।
अक्ल नहीं आई
कहत लुगाई।।rg

पत्थर का शेर 
पत्थर की गैया।
का खाय शेर 
का देती गैया।।

पत्थर का देव 
पत्थर की मैया।
का है देते देव 
का है देती मैया।।

काहे डरें देव
काहे डरें भैया 
पढ़ो लिखो देवि
पढ़ो लिखो भैया।।

समुद्र शान्त हो तो इसका मतलब यह नहीं है,
कि कोई भी आये और नहा धोकर चला जाए। 

भारत बलि उत्तुंग शीश,
ज्ञान-मान-दान छितीश।
हिमालय बलि का शीश, 
रोंदा वामन ले बकशीश।।

भेड़िया नर
वसत विविद् घर
ओढ़ चरित्र 
ले कुतर-कुतर।

तुम वेद गाते हो,
और वेदों में गाते हो,
बहुत अच्छा गाते हो,
पर दाना नहीं उगाते हो।

हम वेद नहीं गाते हैं
हम वेदों में नहीं गाते हैं
हम तो वेदना बोते हैं,
और दाना उगाते हैं।

तुम्हारा वेद और हमारा दाना 
आओ तुम गाओ और हम पकाते हैं।
आओ परिवार हो जाते हैं।

एक जमीन, एक मान,
एक चूल्हा, एक मचान,
एक दुःख, एक सुख, 
आओ एकात्म हो जाते हैं।

अनेक भाषा, अनेक राग,
अनेक रूप, अनेक स्वाद,
अनेक पूजा, अनेक वाद,
आओ एक जगह सजाते हैं,

तुम्हारे पास किताब है,
मेरे पास कपास है,
तुम्हारे पास कल्पना है,
मेरे पास यथार्थ है,
आओ कुछ बनाते हैं।

मैं पकाऊं तुम गुनगुनाना 
मैं परोसूं तुम खाना

तुम उगाना, पकाना सीख लो
मैं लिखना, सुनाना सीखता हूं,
न तुम तुम रहो न मैं मैं रहूं,
आओ हम हो जाते हैं।
आओ भारत बनाते हैं।

चूल्हे की आग के आगे 
टिक नहीं सकता सूरज कभी।
मेरे घर की औरत सुलगाती है
सूरज उगने से पहले और 
सूरज उगने के बाद चूल्हा।

देखो तो! ये जातंकी,
हमारी औरतों को रौंदकर 
नारीपूजन को निकले हैं।
देखो तो ये जातंकी,
मनुष्यों को रौंदकर 
पशुपालन को निकले हैं।
देखो तो ये जातंकी,
सारे संसाधन हथिया कर,
मुक्ति पाने निकले हैं।

उमामन मचलौ मनजीत पै,
मनमथ मथौ महेशमन तब।
उमाकांतकान्तिक्रमितमन 
देहहीनकान्ताकान्तमन तब।।

प्रणाम पूर्वक-
कैसोई मन कौ होय वौ कारौ, 
श्यामसौदामिनी ज्यों निकारौ।
मन मंज-मंज जैहै सोई सारौ, 
घन जू! घनौ-घनौ घेरा डारो।।

यार ने आना दरिया पै, छोड़ दिया है,
जबसे ऊने फेसबुक का पैक पिया है।
व्हाट्सअप चबा-चबा कर थूकता है,
प्यारभरी सब खुरापात छोड़ दिया है।।

उड़ जावें सब दूर, वा घड़ी हेरी है,
बीच-बीच वे सुध लें, माला फेरी है।
अंत काल सम्मुख रहें, मनचेरी है,
यह घर-द्वार सम्पति सब ढेरी है।।

रात तना-तनी में जनी से 
रार विकट ठनी हमाई।
कछु देर दोऊ चिमाए रए
बिनबोलें नींद न आयी।।

सामन्ती विचारों का परिवर्तन,
संगठित लूट, 
"ठाकुर के हाथ गब्बर सिंह ने काट लिए"
शोषितों के बच्चे उसके हाथ बने।

यस्य न वितरेत्काव्यं
सहृदयपूगे समग्रमानन्दम्।
तस्य कवेः किं कार्यं
ब्रूहि मनाक्काव्यगोष्ठीषु।।
आको/३०।०९।२०२३ उमाकांत शुक्ल। 

कूटिए विप्र सकल गुण हीना,
शूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना।।
ढोल गंवार विप्र पशुचारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।। I-४

ऐसी रामचरित मानस के अंशों को भारत के स्कूली पाठ्यक्रमों में पढ़ाकर देश की पीढ़ियों को बर्बाद होने से बचाया जा सकता है।

परिग्रह से गांधी
और 
अभाव से अम्बेडकर 
निकले निकालने, रामहेत! राष्ट्र को। 10.01.2025










भेड़िया नर

भेड़िया नर
वसत विविद् घर
ओढ़ चरित्र 
ले कुतर-कुतर।

Friday, 15 September 2023

हिमालय

भारत बलि उत्तुंग शीश,
ज्ञान-मान-दान छितीश।
हिमालय बलि का शीश, 
रोंदा वामन ले बकशीश।।

प्रेमरस

जो तुम लिख देते, प्रेम रस विहारि,
काहे को पंद्रह पेज देते रे! बिगारि।
ढोल पीट ढोर न हांकते, इ गलियारि
जो तुम लिख देते प्रेम-रस विहारि।।

अर्थैराक्षणमिच्छति


मिथ्या वदति भोगान्यः
भोङ्क्ता भोगलोकस्य हि।
मूत्रत्यागी मुखे नृणां
अर्थारक्षणमिच्छति।।

Wednesday, 13 September 2023

संस्कृत साहित्य में अस्पृश्य विमर्श

नव लता जी, नमामि,
ये त्रयः कालकाञ्जा दिविदेवा इव श्रिताः।
तान्त्सर्वानह्व ऊतयेsस्मा अरिष्टतातये।।अथर्ववेद 6-80-2

लोकलवणमाप्तस्य
रत्ननिकररक्तकः।
सागरस्य सिता दत्वा
कः माधुर्यमपेक्षते।।rg

Sunday, 10 September 2023

अरे! चीटर 
कितने बड़े हुए?

डॉक्टर रामहेत गौतम परिचय

डॉ . रामहेत गौतम का 
जन्म 09 जनवरी 1980 को 
पिता श्री मुलायम सिंह गौतम व 
माता श्रीमती लीलावती सिंह गौतम 
के घर ग्राम गुजर्रा ( सम्राट अशोक का लघु शिलालेख स्थल ) पो . परासरी जिला दतिया म.प्र . में हुआ। आपने एम.ए. संस्कृत साहित्य , 
यू.जी.सी. नेट व 
पीएच - डी , की उपाधि प्राप्त की। 
भाषा ज्ञान- पालि, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी
लिपिज्ञान -धंम लिपि लेखन-पाठन
वर्तमान समय में आप डॉ . हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर ( म.प्र . ) के संस्कृत विभाग में सहायक प्राध्यापक के रूप में 28.05.2013 से कार्यरत हैं। 
आपकी 
01 पुस्तक, 
06 सह सम्पादित पुस्तकें व 
30+ शोध - पत्र, 
10+संस्कृत कविताएं प्रकाशित, 100+ अप्रकाशित, 
10+हिन्दी कविताएं प्रकाशित, 100+ अप्रकाशित, 
लघुकथाएं - 01
संस्मरण- 05 अप्रकाशित 

 पुस्तक अध्याय प्रकाशित - 10+
साहित्य अकादमी प्रकाशित 01
IGNU से 01

आपकी शोध 60+ संगोष्ठियों, 
मंचीय व्याख्यान- 5+
आमंत्रित व्याख्यान- 15+
आयोजन- सेमीनार 02
कोर्सवर्क- 01
विशेष व्याख्यान 05+

05+ कार्यशालाओं में सहभागिता रही है।  
सफल छात्र- 
सहायक प्राध्यापक- 02(रविन्द्र पंत, निकिता यादव)
हायर सेकडरी व्याख्याता- 03(रामप्रकाश, शिल्पी, सूर्यकांत, प्रदीप, जितेन्द्र, रुक्मणी, 
हाईस्कूल- राजेन्द्र आलमपुर, गोविंद सिंह देभई, मनीषा टेड़ा मोहनपुरा, 
पारिवारिक सदस्य- भानसिंह, पहलवान, संजीव, राजकुमार, विजय 
सम्मान
रजत पदक शिक्षा हेतु
संस्कृत सेवी, साहित्य हेतु

अभिरुचि-
अअध्ययन-अध्यापन, समाजसेवा , प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण के प्रति जागरुकता का कार्य, बौद्धसाहित्य एवं दर्शन का अध्ययन में आपकी विशेष अभिरुचि है।

रामहेत शब्द श्रमण परंपरा का शब्द है। 
रामहेत का अर्थ है वह जातक जो सबके प्रति मैत्रीभाव रखता है।
दशरथ जातक कथा में राम पंडित एक बोधिसत्व का नाम है जो लोकहित के लिए जीवन यापन करता है। उसका न किसी से राग है और न ही किसी से द्वेश। वह मध्यमार्गी है। यह राम एक जातक है। प्रज्ञावान है अतः पंडित है। 
न हि वेरेन वेरानि संमंतीध कुदाचनं 
अवेरेन च संमंतीध एस धंमो सनंतनो। 
का अनुगामी है। 
अवेर अर्थात शत्रुता का अभाव मैत्रीभाव। 
वर्तमान में भी बुंदेली में हेत का अर्थ भी मैत्री ही है। जैसे कि हेत लगाना।

Thursday, 7 September 2023

चपड़

ज्यादा चपड़-चपड़ न करो
अरे भाई बुरा मत मानो,
चपड़ का अर्थ है वक्ता।

Sunday, 3 September 2023

कवि मिलन की चाह

उत्तम काव्य सुनि-सुनि जगे, 
कवि दर्शन की चाह।
फूले फूला लखि-चखि के,
भाड़ परन की राह।।

Saturday, 2 September 2023

रिश्तों का कायदा

रिश्तों का कायदा 
छोड दो फ़ायदा।
सुनो हे गौतम!
छोड़ दे फायदा।।
 

समुद्र

समुद्र शान्त हो तो इसका मतलब यह नहीं है,
कि कोई भी आये और नहा धोकर चला जाए। 

रिश्ते

रिश्तों में मुनाफाखोरी
रिश्ते बिगाड़ देती है।
नियत साफ हो तो गौतम!
फ़रिश्ते जुगाड़ देती है।।

Wednesday, 30 August 2023

गुरु नाव हैं

गुरु! नाव हो किनारे पर रहो,
पथिक हूँ, 'कंधे पै लो' न कहो।

Saturday, 26 August 2023

अम्बेडकर की देन

. अंबेडकर सिर्फ हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक भेदभाव के ही विरोधी नहीं थे. वे इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे

जब भारत के प्रमुख विद्वान के तौर पर डा. अंबेडकर को भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथ बोरोह समिति के समक्ष गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सुनवाई के दौरान दलितों एंव अन्य धार्मिक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका और आरक्षण की मांग की. डा. अंबेडकर के इस मांग की तीव्र आलोचना हुई और उन पर आरोप लगा कि वे भारतीय राष्ट्र एवं समाज की एकता को खंडित करना चाहते हैं. लेकिन सच तो यह है उनका इस तरह का कोई उद्देय नहीं था. उनका असल मकसद उन रुढि़वादी हिंदू राजनेताओं को सतर्क करना था जो जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति कतई गंभीर नहीं थे.

इंग्लैंड से लौटने के बाद जब उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा तो समाज में छुआछुत और जातिवाद चरम पर था. उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रवृत्ति और खंडित समाज देश को कई हिस्सों में तोड़ देगा. सो उन्होंने हाशिए पर खड़े अनुसूचित जाति-जनजाति एवं दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रुप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज कर दी. अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 1920 में, बंबई में साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरुआत की जो शीध्र ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया. दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान उनके दिए गए भाषण से कोल्हापुर राज्य का स्थानीय शासक शाहु चतुर्थ बेहद प्रभावित हुआ और डा0 अंबेडकर के साथ उसका भोजन करना रुढि़वाद से ग्रस्त भारतीय समाज को झकझोर दिया. डा. अंबेडक्र मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों को जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति नरमी पर वार करते हुए उन नेताओं की भी कटु आलोचना की जो अस्पृश्य समुदाय को एक मानव के बजाए करुणा की वस्तु के रुप में देखते थे.

अंबेडकर ही एकमात्र राजनेता थे जो छुआछुत की निंदा करते थे
ब्रिटिश हुकूमत की विफलताओं से नाराज अंबेडकर ने अस्पृश्य समुदाय को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का कोई दखल न हो. 8 अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा और कहा कि ‘हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती. उनको शिक्षिईत करना चाहिए, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है. उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा. उनको शिक्षित होना चाहिए. एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है, जो सभी ऊंचाइयों का स्रोत है. इस भाषण में अंबेडकर ने कांग्रेस की नीतियों की जमकर आलोचना की. दरअसलअंबेडकर ही एकमात्र राजनेता थे जो छुआछुत की निंदा करते थे. जब 1932 में ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया. यह अंबेडकर का प्रभाव ही था कि गांधी ने अनशन के जरिए रुढि़वादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की. रुढि़वादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं तथा पंडित मदन मोहन मालवीय ने अंबेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा में संयुक्त बैठकें की. अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गांधी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली. इसके बदले में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश-पूजा के अधिकार एवं छुआछुत समाप्त करने की बात स्वीकार ली गयी. गांधी ने भी इस उम्मीद पर कि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर सभी शर्तें मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया.

गौरतलब है कि आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा चार संभावित उम्मीदवार चुनते और फिर इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव द्वारा एक नेता चुना जाता. उल्लेखनीय है कि इस आधार पर सिर्फ एक बार 1937 में चुनाव हुए. अंबेडकर चाहते थे कि अछूतों को कम से कम 20-25 साल आरक्षण मिले जबकि कांग्रेस के नेता इसके पक्ष में नहीं थे. उनके विरोध के कारण यह आरक्षण मात्र पांच साल के लिए लागू हुआ. अस्पृश्यता के खिलाफ अंबेडकर की लड़ाई को भारत भर से समर्थन मिलने लगा और उन्होंने अपने रवैया और विचारों को रुढि़वादी हिंदुओं के प्रति अत्यधिक कठोर कर लिया. भारतीय समाज की रुढि़वादिता से नाराज होकर उन्होंने नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट कर दी. उन्होंने अपने अनुयायिओं से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्नान किया. उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक स्थानों पर दोहराया भी. 14 अक्टुबर 1956 को उन्होंने एक आमसभा का आयोजन किया जहां उन्होंने अपने पांच लाख अनुयायिओं का बौद्ध धर्म में रुपान्तरण करवाया. तब उन्होंने कहा कि मैं उस धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का भाव सिखाता है.
डा. अंबेडकर सिर्फ हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक भेदभाव के ही विरोधी नहीं थे. वे इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे. वे मुस्लिमों में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के भी आलोचक थे. उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समाज में तो हिंदू समाज से भी कहीं अधिक बुराईयां हैं और मुसलमान उन्हें भाईचारे जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छिपाते हैं. उन्होंने मुसलमानों द्वारा अर्जल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें निचले दर्जे का माना जाता था, के साथ मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की निंदा की. वे स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर थे. उन्होंने इस्लाम धर्म में स्त्री-पुरुष असमानता का जिक्र करते हुए कहा कि बहुविवाह और रखैल रखने के दुपरिष्णाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते जो विशेष रुप से एक मुस्लिम महिला के दुख के स्रोत हैं. जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है. इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो. अगर गुलामी खत्म हो जाए फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जाएगी.
 इस्लाम की कट्टरता के खिलाफ भी थे डॉ अंबेडकर
उन्होंने इस्लाम में उस कट्टरता की भी आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरशः अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है. उन्होंने लिखा है कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरित तुर्की जैसे इस्लामी देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया. राष्ट्रवाद के मोर्चे पर भी डा. अंबेडकर बेहद मुखर थे. उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के लिए मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग दोनों की कटु आलोचना की. हालांकि शुरुआत में उन्होंने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया किंतु बाद में मान गए. इसके पीछे उनका तर्क था कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए क्योंकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा होगी. वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत स्वतंत्रता के बाद हर रोज रक्त से लथपथ हो. वे हिंसामुक्त समानता पर आधारित समाज के पैरोकार थे.
उनकी सामाजिक व राजनीतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है. मौजुदा दौर में सभी राजनीतिक दल चाहे उनकी विचारधारा और सिद्धांत कितनी ही भिन्न क्यों न हो, सभी डा. अंबेडकर की सामाजिक व राजनीतिक सोच को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. डा0 अंबेडकर के राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के कारण ही आज विशेष रुप से दलित समुदाय में चेतना, शिक्षा को लेकर सकारात्मक समझ पैदा हुआ है. इसके अलावा बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ भी अस्तित्व में आए हैं जो समाज को मजबूती दे रहे हैं.  

बुद्ध की धूप

ये बन्द की जा सकती नहीं मुट्ठियों में,
न ही तिजोरियों में। 
ये बुद्ध की धूप है,
फैली है आंगन में, 
फुलवारियों में।
झोपड़ी में,
महलों में।
सेक पाता है वही इसे 
जो उतार फेंकता है आवरण
कुलीनता का।

भारत लाल!विघटन मेट दें रार छोड़ दें।

जो कुबेर हैं 
वे धन बिखेर दें
रोग मेट दें। 

जो विद्वान हैं
वे ज्ञान बिखेर दें
रात मेट दें।

जो सबल हैं
वे रक्षा बिखेर दें
भय मेट दें

उत्पादक जो
वे धान्य बिखेर दें
भूख मेट दें।

व्यसनी हैं जो
वे व्यसन छोड़ दें
नशा मेट दें।

भारत लाल!
विघटन मेट दें
रार छोड़ दें।

Thursday, 24 August 2023

अमृत प्रेम है।

अमृत प्रेम है,
और जहर द्वेष 
प्रेम रस पी।
जितनी चाहत जी
विष मत पी।


Saturday, 19 August 2023

हिन्दी हाईकू रामहेत

रे रे पत्थर हाईकू

रे रे पत्थर!
तूं भी तो घिसेगा रे!
मगर धीरे।

मैं पानी हूं रे!
घुसूंगा तुझमें भी,
मगर धीरे।

फिर वहेगी,
एक नदी मरु में,
मगर धीरे।

तेरी बटरीं,
मैं नदी हो बहेंगे,
मगर धीरे।

तूं मीनार में,
मैं सागर में होंगे,
बदल धीरे!
डॉक्टर रामहेत गौतम, सहायक प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, डॉक्टर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर म.प्र.।


Wednesday, 16 August 2023

वसंत

नाजुक अथर को
कठोर दांत जब
धीरे से दबाता है
वसंत छा जाता है। 
rg

Sunday, 30 July 2023

मेरी यात्रा



गौरी गू को चबोरो

गेंदा में मछली

मछली पकडना 

टिहरी के अंडे

अदवान से बांधते पाँव

घर की लड़ाई

ओंड़े की आग

गुरु महाराज

खरा कौ गोस

सुआटा का खेल

रतन के नेत्र में धूल

घुटीमार

गोबर उगाना

घूरे से कागज बीनता पढता

लोखन रोटी खा गया

लोखन की चिट्ठी

कौशल का गोता

पीतम ने डुबाया

कौशल्या चढ़ गई 

नई घड़ी 

प्रेस पर उंगली 

बड़ी बाई की बाखर

हरिओम का टिरौआ

सौंज की बकरी

पहलवान को पैसा

फटी पेंट की अभिलाषा

नीबू के पेड़ पर तोते का पिंजरा

डंडा पै बैठके चले मम्मा कें

शैल की चोरी

शराब की गंध

घड़ी की खुशी

बांगर में बस्ता

मूंमफली के पौधे

कुँआ पर ओले पड़ना

रहट के पनारे पर नहाना और घिसना

नींव में नहाना

कक्को नहीं चाची नामकरण

दादा के अंतिम समय

भूत दिखना

सूखी 

सगुन की आंख में फुली

हरकुँअर - घूरे पर फिरत रत और बटोर लियात कागज। 

एक कंधे की तरफ गर्दन झुकाकर खड़ा हो जाता है। 

पर मन में चल रहा होता है- कि क्या लिखा है इन कागजों पर।

बीड़ी के बंडल के काजल पर क्या लिखा है

पिता दीवार पर बिन्दी क्यों लगाते हैं

चटकनी बजाते बच्चे।

करेछ का कुरेदना

घूरे के कागज

गुब्बारे

कटीला के बीज सरसों में मिलाना।

दो रुपये का नोट

मोनीटर की परीक्षा

सुरेन्द्र की फट्टी

बोरी का बस्ता

नाम लिखा सहायक वाचन की किताब

गमलों में मछली बांधना

मास्साब के बेर दातुन

बर्ती ढड़काने का खेल

किताबों की चोरी

5 की परीक्षा

6वीं में प्रवेश

सुरेन्द्र की साईकिल

लल्ला के मुंडा

भट्टा की ईंटें

हैंडिल पर बोतल

नाथूराम चौबे जी

लक्ष्मीनारायण तिवारी जी

पटेरिया जी की पिटाई

हरीसिंह का साथ

देवेन्द्र सर का ट्यूशन

देवेन्द्र सर की कुट्टी

एनसीसी की बर्दी

तू पुलिस हम डकैत

झगड़ा 

रुपए ऐंठता दरोगा

वकील के चक्कर 

पटवारी के चक्कर 

साईकिल और भूसे के बोरे

अंग्रेजी का ट्यूशन

सक्सेना सर जी के गमले

अंग्रेजी की किताब

चिट से रटना

ट्यूशन

मजदूरी और पढ़ाई

खेती और पढ़ाई

लल्ला की मालिस और टीव्ही का सौक

बूढ़ी बाई की पौर

गुरु महाराज के वचन

बाग में बैठकर पढ़ना

सगाई ्और चिट्ठी

विवाह 

लक्ष्मी खेत में और मैं कॉलेज

कॉलेज की फोटो और लक्ष्मी

शिवम टाकीज 

गुरु जी के काम और लोगों की बातें

टोपर क्या होता है।

कॉलेज की प्रतियोगिताएं

मेरे नोट्स और प्रोफेसर 

नौकरी का आवेदन और नौकरी

आलमपुर के अनुभव

गुप्ता जी के ताने बीजमंत्र

स्नेही बखान 

प्राचार्य और मैं और मेरी पढ़ाई

पीएचडी रजिस्ट्रेशन

परीक्षाओं में ड्यूटी और विवाद

कॉलेज के दायित्व और अध्ययन

भाईयों की शिक्षा और परिवार

पहलीबार गया दतिया

पहलीबार गया ग्वालियर 


जब पीमार पड़ा तो डॉक्टर के पास ले जाया गया। 


घोड़ों को घास नहीं वाली बात

संस्कृत विभाग में अपने कक्ष में लगाई जब तस्वीर 

एक शुभचिंतक ने सलाह दी।
सर अंबेडकर जी की तस्वीर सामने क्यों लगाए हैं?
उनका चिंता स्वाभाविक थी, उन्हें पता था कि इससे संस्कृत वे मनीषी नाराज हो सकते हैं, इनका प्रमोशन, उच्च पद पर सिलेक्शन रुक सकता है।
पर मेरा विश्वास है कि अम्बेडकरवादी अंबेडकर के आदर्शों पर चलकर भी निडर व यथार्थ स्वीकार के साथ जी सकता है। प्रमोशन, सिलेक्शन गौड हैं।
तस्वीर यथावत है, सबकी स्वीकार्यता भी कम न होकर बड़ी है, क्योंकि सहयोग व समर्पण वैचारिक विरोधियों को भी अपना बना देता है। इसके बिपरीत समान विचारक भी गैर हो सकते हैं।
इससे सिद्ध हुआ आप जो हैं खुल कर जिओ, आपको नकारा नहीं जा सकता। नकार तो दोहरे चरित्र के कारण होता है।


Saturday, 29 July 2023

सत्य सरल होता है

सत्य कितना सरल होता है।
निकलता तभी है,  जब व्यक्ति भी सरल होता है।

Tuesday, 25 July 2023

राणा

महाराणा सा घोड़ा 
महाराणा सी असि,
महाराणा सी मूंछें हैं।
पर नहीं है तनिक भी
महाराणा सा सौर्य।

कैसे हो सकता है वो
महाराणा का वंशज,
फेकता हो भाला जो
दुर्बल-नारी की ओर।

Saturday, 22 July 2023

बस करो क्या भारत नाश करोगे

जाति देखकर मूतोगे मुंह पर, 
और एक्ट का विरोध करोगे।
जाति देखकर साड़ी खींचोगे,
और प्रावधान का विरोध करोगे।
जाति देखकर नियुक्ति दोगे,
और आरक्षण का विरोध करोगे। 
जाति देखकर हमला करोगे,
और तुम भी हिंदू का गान करोगे।
पगड़ी उछाल के, घोड़ी से गिरा के
बस भीड़ बना पिछलग्गू बनाओगे।
अरे! इतने दोगले तो अंग्रेज भी न थे,
बस करो क्या पूरा भारतनाश करोगे।

Thursday, 20 July 2023

सस्वर वेद पाठ

(परदा हटता है)
सस्वर वेद पाठ करता हुआ एक बालक -
किसान- क्या कर रहे बेटा?
बालक- अन्न पैदा करने के लिए वेद मंत्र पढ़ रहा हूं।
किसान- अरे नादान, अन्न ऐसे पैदा नहीं 

Wednesday, 19 July 2023

एक पुरुष की जिंदगी

वो कौन-सा मजदूर है 
जिसे संवारने में खर्ज हो जाती है 
एक पुरुष की जिंदगी।

चलो चार दिना दिहाड़ी

चलो चार दिना दिहाड़ी 
अक्कल लगे न, तो कइओ। 
हम न रोक हैं दुबारा
फिर जितै रानें, सो रइओ।।

हम जो-जो करत हैं
बौई-बौई तुम भी करिओ। 
न टोक हैं तुमए लाने,
और जो गानें सो गइओ।

Friday, 14 July 2023

संवेदनहीन साहित्य

चाबुक खाते रहे बहुजन बैल बनकर और भरे पेट सांड़ जुगाली करते रहे। उसी जुगाली से एकत्रित फसूकर का ढेर है यह संवेदनहीन साहित्य।

Tuesday, 11 July 2023

बुलडोज़र

बुलडोज़र 
मुसलमान पर चला,
अंधभक्त खुश हुआ।

बुलडोज़र 
विपक्ष पर चला,
अंधभक्त खुश हुआ। 

बुलडोज़र 
अंधभक्त की वस्ती में आ घुसा 
अंधभक्त चीख पड़ा-
बुलडोज़र नीति बन्द करो 
बुलडोज़र नीति अनैतिक है।

जंग

मुखज, भुजज, उरुज को खा जायेगी इनमें उठी जंग।
जैसे खा जाती है सदा ही लोहे को लोहे में उठी जंग।।

Sunday, 2 July 2023

गुरु

जैसे मां बच्चे को अछूत नहीं मानती, 
धो देती है मल-मल कर के सारे मल।
उसी प्रकार शरण आये मानव के मल,
मल-मल कर धोने वाला गुरु वंदनीय।

Saturday, 1 July 2023

ब्राह्मणं

क्षान्तं दान्तं जितक्रोधं जितात्मानं जितेन्द्रियं।
तमग्र्यं ब्राह्मणं मन्ये शेषा शूद्रा इति समृताः।। महाभारत- खंड 6 आश्वमेधिक पर्व, अध्याय- 92 ( पृ 1072)

वेद अपौरुषेय नहीं हैं

वेद अपौरुषेय होते तो 
किसी को लूटने मारने की बात न होती।
देवता आते और कहते कि 
जब तक तुम शोषण बन्द नहीं करते 
तब तक हम खुश नहीं हो सकते, 
पर न देवता आते हैं न उनका संदेश 
चालाक लोग उल्लू बनाते रहते हैं।
मजा मारते रहते हैं।

Wednesday, 28 June 2023

ऊँची है जात

पत्थर देव 
पत्थर धर्मभीरू 
पत्थर भक्त। 
कुछ कहां कहेंगे?
ऊँचे, मौन रहेंगे।

ऊंची है जात 
जयकारा न भात 
मारन आत।
मंदिर पे औकात 
बहुजन जानते।

आँखें खोलिए 
जय भीम बोलिए 
स्कूल चलिए।
अक्ल पर ताला है
यहाँ से निकलिए।

मार हथौड़ा 
पत्थर है टूटेगा
पाखण्ड-पाश।
शिक्षित हो भारत
मुक्ति की है जो आश।

Thursday, 22 June 2023

पिता

पीठ की सवारी
हाथी पर भारी,
कंधे पर चढ़ना
किले पर चढ़ना,
बाहों में झूलना
हिंडोले में झूलना,
अंगुली पकड़ना
छत लेके चलना,
कदमों का चलना
सपनों का चलना,
होता है जिसका
वो कोई और नहीं।
तुम ही हो पिता

Wednesday, 21 June 2023

मेरी सीता

खेती मेरी सीता है
रावण घात करता है।
वह खेती नहीं करता 
उसके पुरखों ने भी नहीं की।
झूठ से, लूट से, ठगी से 
हमारी सीता को हर लेता है।
हमारी सीता रोटी है,
जो पेट को शीतल करती है।

Sunday, 18 June 2023

छरहरी छोरी

छरहरी छोरी लहराती चाल,
जाके वाके जो मसकत गाल।rg

ये पंछी गावें 
नित्नित् परोपकार 
तरुवरों के।

दो क्वारीं दो व्याहता, दो विधवा दो बांझ। 
त्यों त्यों जे प्यारीं लगें, ज्यों ज्यों भीजे सांझ।।

Saturday, 17 June 2023

तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो

तुम उठो प्रिय! संविधान पढ़ो, मनुविधान भीम ने तोड़ा है।
मनुविधान भीम ने तोड़ा है,  शिक्षा से नाता जोड़ा है। 

तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो, मनुविधान भीम ने तोड़ा है। 

हाथ प्रिय के कलम सोहे, पुस्तक की छवि प्यारी है। 
प्यारी प्यारी क्या कहिये, संविधान से इज्जत हमारी है। 

तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो, मनुविधान भीम ने तोड़ा है। 

शीश प्रिय के सेहरा सोहे, चश्मे की छवि न्यारी है। 
न्यारी न्यारी क्या कहिये, संविधान से इज्जत हमारी है।

तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो, मनुविधान भीम ने तोड़ा है। 

अंग प्रिय के कोट सोहे, टाई की छवि न्यारी है।
न्यारी न्यारी क्या कहिये, संविधान से इज्जत हमारी है।

तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो, मनुविधान भीम ने तोड़ा है। 

पैर प्रिय के जूता सोहे, मोजे की छवि न्यारी है। 
न्यारी न्यारी क्या कहिये, संविधान से इज्जत हमारी है। 

तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो, मनुविधान भीम ने तोड़ा है। 

संविधान से धनधान्य मिला है, इज्जत बढ़ी हमारी है।
हमारी हमारी क्या कहिये, भीमराव की बलिहारी है।

तुम उठो प्रिय संविधान पढ़ो, मनुविधान भीम ने तोड़ा है। 


Friday, 16 June 2023

बुनियादी भूल

ईशावास्यमिदं सर्वं रटते हुए भी
किसी को बराबरी पर न देख पाना 
बुनियादी भूल है।
शुक है, शुकविद्या है,
बहेलिये का साधुवेश फिजूल है।

Monday, 12 June 2023

कंधे पर

पिता कंधे पर उठाता है मेले में,
भाई कंधे पर उठाता है झमेले में,
प्रिय कंधे पर उठाता है अकेले में 
दुनिया कंधे पर उठाती है खेले में।

Sunday, 11 June 2023

क्यों जाननी है आपको मेरी जाति?

क्यों जाननी है आपको मेरी जाति?
शायद, ताकि आप तय कर सकें कि 
मैं आपसे मेल-जोल लायक हूँ या नहीं।
तो फिर आप दूर ही रहिए क्योंकि 
यह भावना भारतीय एकता के खिलाफ है।
इस भयानक रोग को रोका जाना चाहिए। 
बोलो हम सब भारतीय हैं, हम सब एक हैं।

मत पूछ जाति किसी की, 
परवरिश का पता चल जाता है,
खटास की एक बूंद से 
सारा मीठा दूध फट जाता है।
एक मछली सारे तालाब को 
गंदा कभी नहीं करती।
एक जातिवादी सारे कुल को 
कलंकित कर जाता है।

जब तक जाति पर गौरव किया जाता रहेगा, 
तब तक भारत विखण्डित ही रहेगा।
विखण्डित राष्ट्र हो या परिवार 
लुटेरों के लिए आसान शिकार बना रहता है।

क्या कहा? 
अपनी जाति पर गौरव करने से 
राष्ट्र विखण्डित कैसे हो सकता है,
तो सुनो,
जब भी तुम अपनी जाति पर गौरव करते तो
सबसे पहले तो राष्ट्रीयता को गौण बना देते हो।

जब भी तुम अपनी जाति पर गौरव करते तो
सबको जता देते हो कि इस परिधि में तुम नहीं आते हो।

हवा में घुला जहर चारों तरफ फैल जाता है,
वेहोश लोगों को मारना कहां कठिन रह जाता है।

घर जल जाता है नादानी में
इंसान धुंए में लट्ठ भांजता रह जाता है।

उठो, 
खून है भारत का तो
नादानी छोड़ो,
सबको प्रेम से जोड़ो।

Thursday, 8 June 2023

शोषण

न पांच हजार साल न ही सौ साल
नजर डालिए हो रहा जो आजकल। rg

Saturday, 27 May 2023

सत्यम् नाम है मेरा

मानव नाम है मेरा 
मुझे सत्य सिद्ध होना है।
सत्य यह है कि 
मैं इंसान का बच्चा हूँ,
सिद्ध होना है कि 
मुझमें इंसानियत पल रही है।
इंसानियत की पहचान है
भले-बुरे की समझ होना,
बुराई से बचना और 
भलाई को अपना लेना।
समझ बढ़ाने के लिए पढ़ना होता है,
इसलिए मैं पढ़ता हूँ निरंतर 
सावित्रीबाई फुले की तरह। 

बुरा लगता है जब लोग 
झगड़ते हैं धुत्त होकर,
और फिर संगठित नहीं रह पाते।
उनके संसाधन बर्बाद हो जाते हैं
झगड़ों, आडम्बर और कुरीतियों में।
मैं पढ़ता हूँ ताकि बच सकूँ इन सबसे,
संगठित रह सकूँ समझदारों के साथ
इसलिए पढ़ता हूँ अच्छी किताबें
ज्योतिराव फुले की तरह। 

अच्छा लगता है जब 
सम्मान होता है पढ़े-लिखे लोगों का,
और सुनता हूँ उनके संघर्ष की कहानियाँ।
हमारे पास संसाधन नहीं हैं 
पर होंसला नहीं खोऊँगा मैं
भटकूँगा भी नहीं।
सीमित संसाधनों का सदुपयोग करता हूँ
और बर्बादी से भी बचता हूँ ताकि
संघर्ष कर सकूं हर परिस्थिति में
भीमराव अंबेडकर की तरह। 

मानव नाम है मेरा 
मुझे सत्य सिद्ध होना है।
मुझे भारत का सपूत बनना है
और फिर कहना है-
जय भीम जय भारत। 

डॉक्टर रामहेत गौतम, 
सहायक प्राध्यापक, 
संस्कृत विभाग, डॉक्टर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर म.प्र.।





Tuesday, 2 May 2023

आप लिखते कब हैं लिख जाता है

आप लिखते कब हैं लिख जाता है जैसे कि
नदी स्वतः बहती है किनारे भ्रम में रहते हैं।

वे दलित को घोड़ी पर कैसे बैठने दें

वे दलित को घोड़ी पर कैसे बैठने दें
घोड़ी उनकी कुछ खास लगती है।
वे दलित को बैंड बाजा क्यों बजाने दें
वे बैंड बाजे उनके पुरखों के चाम से बने हैं।
वे बिंदोली कैसे निकलने दें
वे बिन्दोलियाँ उनको चिड़ाती है कि 
वे भी किसी के गुलाम थे।
वे मूँछ क्यों रखने दें क्योंकि 
मूँछ तलवार सी चुभती हैं उन कायरों को।
और अधिक क्या कहा जाए 
विदेशी आक्रान्ताओं का खून जो है
उनकी रगों में।
अगर भारतीय खून होता तो 
भारतीयों पर हमला न करते।
भारतीयों के स्वाभिमान को 
सहन न कर पाना
भारत द्रोह का साक्ष्य है।rg 02.05.2023

बनारस यात्रा

बनारस गया था मैं भी
सुनकर विद्या की राजधानी।
कमाल तो तब हुआ 
जब चौगुना दाम वसूल लिया गया।
राहत भी मिली कि 
वा इज्जत लौट आये।

Sunday, 30 April 2023

बुद्ध की कलम

बुद्ध की कलम प्रेम लिखती है,
युद्ध की कलम नाश लिखती है।
हे अर्जुन खड्ग छोड़ बुद्धसुत से,
भारत में सनातन धम्म फैला।।

बुद्धसुत = राहुल/प्रेम का बंधन/शिक्षा।
सनातन धम्म = अवैर/नफरत का त्याग। 

भीम की कलम

कई ने कलम से लाखों टुकड़े किये,
उनकी कलम में राग और द्वेष दोनों थे।
भीमराव ने एक कलम से जोड़ दिये
भीम की कलम में एकमात्र प्रेम था।

Wednesday, 26 April 2023

काँटे

जब काँटे भरे हों अपने आंगन में
तो दूसरों के आंगन को बुहारने का उद्यम 
तब तक बेईमानी है 
जब तक कि 
अपना आंगन न बुहार लें।

लुटेरों का मसीहा

लुटेरों का मसीहा 
कैसे बसा सकते हो अपने दिलों में।
भेड़िए का दांत भेड़ के गले में क्यों?

रामायण महाभारत

मुझे रमापति नहीं बनना है
क्योंकि मैंने रामायण पढ़ ली है।
मुझे धर्मराज नहीं बनना है
क्योंकि मैने महाभारत पढ़ ली है।
मुझे भक्त नहीं बनना है
क्योंकि मैंने मनुस्मृति पढ़ ली है।
मुझे तो भीमराव बनना है 
क्योंकि मैंने संविधान पढ़ लिया है।

पूरा नाम

मत पूछ पूरा नाम,
पूरा नाम पूछते ही
दिल में मरु उग सकता है।
बिना पूछे 
दिल बाग-बाग रह सकता है तो
रहने दो न।


Sunday, 23 April 2023

चुटकी

बहुत मजा आता है लोगों को 
जब मौका मिलता चुटकी लेने का
और वे चुटकी ले लेते हैं।
कितनी मजेदार है चुटकी। 




आप दश बार लो, 
कोई अगर एक बार ले ले तो बुरा मत मानों।

Thursday, 6 April 2023

जगह मिली संविधान से

जगह मिली संविधान से
भीम जी के बलिदान से।
धिक् उड़ा दिया ध्यान से
पूजत भूत अभिमान से।।rg

Tuesday, 28 March 2023

अभिधा

पंकज चतुर्वेदी
अभिधा पर बहुत एतराज़ होता है, मगर कबीर और तुलसी जैसे कवियों ने क्या अभिधा का जमकर इस्तेमाल नहीं किया? दोनों की कविता से सिर्फ़ एक उदाहरण देना हो, तो ज़रा देखिए :

* 'जौ तू बाम्हन बम्हनी जाया, आन बाट काहे नहिं आया?
   जौ तू तुरक तुरकनी जाया, भीतरि ख़तना क्यों न कराया?'

~ कबीर

* 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।'

~ तुलसीदास 

यों अभिधा में कमी खोजने के बजाय सचाई क्या यह नहीं कि प्रसंग के मुताबिक़ बड़े कवि शब्द की सभी शक्तियों का प्रयोग करते हैं? युद्ध जब चल रहा हो, तो अधिकतम दाँव आने चाहिए और कुछ रणनीतियों की खोज तो लड़ाई के दौरान ही हो पाती है : यह इस पर भी निर्भर है कि दुश्मन कब किस तरह हमला करता है!

मनोवृत सरोज-
-अभिधा पर कभी ऐतराज़ नहीं हुआ है, न ही होगा। अभिधा का सटीक और सार्थक प्रयोग बहुत ज़रूरी है। अभिधा में सबसे बड़ा ख़तरा यह रहता है कि भाव और अर्थ-सम्प्रेषण नीरस और उबाऊ हो सकते हैं। कविता में अभिधा के लिए शब्द-संयोजन और विचारों की प्रस्तुति में कसाव और कलात्मक सौंदर्य अपरिहार्य हो उठता है।

किन्तु, यह भी सत्य है कि कवि के लिए चुनौतीपूर्ण रचनात्मक कसौटी, अभिधात्मक कविता ही है। उसकी अर्थवत्ता, सम्प्रेषणीयता और बिम्बात्मक विन्यास-संयोजन, व्यंजना से कई मायनों में मुश्किल और दुष्कर होती है ।

Monday, 27 March 2023

ब्राह्मणस्य लक्षणं

★जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते ।
विद्यया याति विप्रत्वं श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च ।।अत्रिसंहिता १४१।। 
●ग्रहा गावो नरेन्द्राश्च ब्राह्मणश्च विशेषतः ।
पूजिताः पूजयन्त्येते निर्दहन्त्यपमानिताः ।।
अग्निरर्को विषं शस्त्रं विप्रो भवति कोपितः ।
गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः परिकीर्तितः ।।आदिपर्व२८/४।।
●मनोः सम्मतिः --
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।
स हि धर्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।
●भीष्मकथनम् -- 
गोरजो धान्यधूलिश्च पुत्रस्यालिङ्गने रजः ।
विप्रपादरजो राजन् हन्ति दारुण दुष्कृतिम् ।।शान्तिपर्व।।
यथा भर्त्राश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके युधिष्ठिर ।
स देवः सा गतिर्नान्या क्षत्रियस्य यथा द्विजाः ।।
क्षत्रियः शतवर्षी च दशवर्षी द्विजोत्तमः ।
पितापुत्रौ च विज्ञेयौ तयोर्हि ब्राह्मणो गुरुः ।।
(महा०अनुशासनपर्वणि ८/२०-२१)
दुर्ग्राह्यो मुष्टिना वायुः दुःस्पर्शः पाणिना शशी ।
दुर्धरा पृथिवी राजन् दुर्जया ब्राह्मणा भुवि ।।
(उक्त ३३/२७)
अविद्वान् ब्राह्मणो देवः पात्रं वै पावनं महत् ।
विद्वान् भूयस्तरो देवः पूर्णसागरसन्निभः ।।
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत् ।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।।
श्मशाने ह्यपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति ।
हविर्यज्ञे च विधिवद् गृह एवातिशोभते ।।
एवं यदप्यनिष्टेषु वर्तते सर्वकर्मसु ।
सर्वथा ब्राह्मणो मान्यो दैवतं विद्धि तत्परम् ।। 
(उक्त १५१/२०-२३)
●शिवपुराणे कैलाससंहितायां -- 
समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतवः 
   समुत्थितापत्कुलधूमकेतवः ।
अपारसंसारसमुद्रसेतवः 
   पुनन्तु मां ब्राह्मणपादरेणवः ।।१२/४४।।
आपद्घ्नध्वान्तसहस्रभानवः 
   समीहितार्थार्पणकामधेनवः ।
समस्ततीर्थाम्बुपवित्रमूर्तयः 
   रक्षन्तु मां ब्राह्मणपादपासवः ।।४५।।
●चाणक्यभणितम् --
निर्गुणो ब्राह्मणो पूज्यः न च शूद्रो जितेन्द्रियः ।
निर्दुग्धापि हि गौ पूज्या न तु दुग्धवती खरी ।।

Saturday, 25 March 2023

जंबूद्वीप पिस रहा

एक आंगन जाल से है भरा,
किसी को खोटा किसी को खरा।
किसी को जान के हैं लाले,
किसी ने सात पुश्तों को भरा।।
कोई तो जाल कुतरता है,
कोई दिन व रात सींच रहा।
जंबुद्वीप जा जाल में गौतम!
सदियों से यूँ हि  पिसता रहा।।

Friday, 24 March 2023

देख पथिक रे! एकाकी मत चल

देख पथिक रे! एकाकी मत चल,
नभ ने नूतन पाठ पढ़ाया है।
आज दुनिया को चांद भाया है,
जो वो तारे को साथ लाया है।। rg

आज चांद और तारा का
साथ-साथ सैर सपाटा।
आज तो हिंदू भी खुश 
मुसलमान भी है खुश।।rg

Friday, 10 March 2023

कलमकसाई

कसाई की कमाई का कायदा कत्ल है।
अब बो चाहे कलम से करे या छुरी से।।rg11.03.2023

Thursday, 9 March 2023

मनोबल

लघुकथा मनोबल 

गुलाम- मालिक साहब! हमारी बस्ती के कुछ युवा आपकी चाकरी करने से रोकते हैं।
शोषक- ठीक है, ताड़ना पड़ेगा।
(मौका पाकर)
गुलाम- देखो तो सरकार! हमारे हालात के लिए सरकार का नाम ले रहे है।
(गुलामों की बस्ती में जाकर स्वाभिमान के लिए विद्रोही युवकों पर शोषक हमला कर देते हैं।)
गुलाम- अब आया मजा। 
युवा- हमारा तो मनोबल अपनों ने तोड़ा है गैरों में कहाँ दम था, समाज हमेशा लुटा है क्योंकि मनोबल कम था।

Sunday, 26 February 2023

बकरों के मुद्दे

कुछ कसाई इकट्ठे हुए,
विमर्श के लिए, 
विमर्ष का विषय था बकरों के मुद्दे।
खूब गहमा-गहमी हुई
निष्कर्ष निकला
बकरा विमर्ष के मुद्दे राजनैतिक स्टंट भर हैं।
सरकारी अनुदान से सब ने छक कर खाया 
और मुँह पोंछते हुए 
हास्य रस में सराबोर होकर 
लौट गये कसाई सभी।

डॉक्टर रामहेत गौतम

ताड़न के अधिकारी

प्रोफेसर सरोज गुप्ता जी की कलम से
" ढोल,गवार,शुद्र,पशु,नारी,ये सब ताड़न के अधिकारी" पंक्ति का वैज्ञानिक विश्लेषण" विषय पर वेबिनार आयोजित "भारतीय शिक्षण मंडल" कानपुर प्रांत की "वीरांगना मंडल झांसी" की संयोजिका श्रीमती मृदुला अग्रवाल के सौजन्य से वेबिनार के रूप में मंडल परिचर्चा आयोजित वैदिक और पौराणिक धरोहर पर अनेकों सवाल हमारे हिंदू समाज में हमारे हिंदू भाइयों द्वारा ही किया जा रहा है बड़े शर्म की बात है कि इसके लिए हमें सफाई देनी पड़ रही है हमारे ग्रंथों पर ही लोगों को जानकारी ना होने के कारण अर्थ का अनर्थ बना डालते हैं यह भी नहीं सोचते कि यह ग्रंथ कब लिखा गया? कब कहा गया ? किस संदर्भ में कहा गया? संदर्भ पर एक परिचर्चा आयोजित की जिसमें कई जानी मानी विदुषीयो ने भाग लिया।परिचर्चा का शुभारंभ ध्येय मंत्र मृदुला अग्रवाल के द्वारा, ध्येय वाक्य किरण चौड़ेले के द्वारा, सरस्वती वंदना की प्रस्तुति श्रीमती डॉ रश्मि दुबे द्वारा दी गई तथा संगठन गीत श्रीमती आराधना रावत के द्वारा प्रस्तुत हुआ। मुख्य वक्ता-सुश्री अरुंधति कावड़कर जी ने २६ फरवरी को वीरसावरकर जी की पुण्य तिथि पर उनका स्मरण कर गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा कही गई पंक्ति के मर्म को , ताड़न शब्द को संरक्षण,परखने, पालन पोषण करने, उद्धार करने के अर्थ में सटीक तरीके से स्पष्ट किया। प्रोफेसर सरोज गुप्ता ने कहा कि इस चौपाई में निहित ताड़न शब्द का अर्थ मनोविज्ञान के सूक्ष्म अतिसूक्ष्म भाव पर केन्द्रित है। ताड़ना शब्द निगरानी रखना,आत्मीय स्तर पर समभाव की स्थिति का परिचायक है। आज राजनीति प्रधान युग में गोस्वामी तुलसीदास जी की दार्शनिक मान्यताओं को ध्वस्त किया जा रहा है। समुद्र के कथन को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करना विवाद की स्थिति निर्मित करना ही इनका लक्ष्य है। रामचरित मानस को निमित्त बनाकर संघर्ष को उकसाने वाले व्यक्तियों के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि "कहहि सुनहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिशाच। पाखण्डी हरि पद विमुख,जानहिं झूठ न सांच।" इन विवादप्रिय दयनीय व्यक्तियों के मानस ज्ञान को देखकर दुख होता है जो रामचरित मानस की लोकप्रियता को भूल बैठे हैं । जिन्हें मानस की चौपाई दोहों में निहित जीवन निर्माण के सूत्र दिखाई नहीं देते। नारी को मुद्दा बनाने पर भारतीय शिक्षण मंडल की समस्त मातृशक्तियां गोस्वामी तुलसीदास जी का समर्थन करती हैं। श्रीमती रश्मि मिश्रा ने कहा कि रामचरित मानस की चौपाइयां अति सम्वेदनशील हैं।इन चौपाइयों पर टिप्पणी करने के पहले समय, सन्दर्भ को समझना आवश्यक है। डॉ शोभा सराफ के अनुसार ढोल गवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी , चौपाई उस समय कही गई है जब समुद्र के द्वारा राम की विनय स्वीकार न करने पर राम ने समुद्र को सुखाने के लिए अपनी तरकश से बाण निकाला , तब समुद्र ने श्रीराम से कहा प्रभु आपने मुझ अज्ञानी को शिक्षा दी । अपनी अज्ञानता के वशीभूत ढोल, गवार, शुद्र, पशु, नारी सभी को ताड़ने की जरूरत है। श्रीमती सुनीता गुप्ता ने कहा कि जिस प्रकार भगवान को तारणहार कहा जाता है अर्थात माया मोह व बंधन से पार लगाने वाला उद्धार करने वाला उसी प्रकार सिद्ध होता है लाइन का अर्थ है उद्धार करना है न कि दंड या पिटाई करना।श्रीमती किरण चौड़ेले के अनुसार इस चौपाई का लोग गलत अर्थ निकालते हैं क्योंकि ढोल गवार शुद्र पशु नारी को तुलसीदास जी ने मारने के लिए नहीं कहा बल्कि सभी को प्रेम से रास्ते पर लाने के लिए कहा है । पूजा मल्होत्रा के अनुसार रामचरितमानस की इस चौपाई का हर कोई अपने हिसाब से अलग-अलग अर्थ निकालता है । गलत अर्थ के आधार पर कई बार हिन्दू धर्म और इसके धर्म ग्रंथों पर नारी, पशु और वंचित समाज के अपमान का आरोप लगाकर भ्रम फैलाते हैं. जबकि हकीकत यह है कि किसी भी तरह का भ्रामक दावा समाज में अशांति, आपस में वैमनस्य, सांप्रदायिक नफरत, किसी व्यक्ति का चरित्रहनन कर सकता है।श्रीमती सुनैना अग्रवाल- के अनुसार बेसुरा वाद्य ,लापरवाह व्यक्ति, समाज के छोटे लोग, बेजुबान जानवर और कोमल कमनीय नारी यह सभी सक्षम प्रेम छाया के अधिकारी हैं। डॉक्टर प्रतिभा भार्गव के अनुसार-ताड़न शब्द का प्रयोग अवधी भाषा में हुआ है जिसमें निम्न अर्थ ,देखना, शिक्षण, पहचानना,रेकी करना, और अनुशासित रहना है ।मनीषा अग्रवाल के अनुसार --स्त्री को 14 रत्नों में माना गया है सुरक्षा की दृष्टि से उसकी सुरक्षा करना पहला कर्तव्य है । डॉक्टर रश्मि दुबे के अनुसार- रामचरितमानस की उपरोक्त चौपाई में तुलसीदास जी ने ताड़न शब्द का अति सूक्ष्म वर्णन किया है ।इन सब में ताड़न शब्द का अलग-अलग प्रयोग किया गया है जिसका अलग-अलग अर्थ है! श्रीमती आराधना रावत के अनुसार-- यह पंक्तियां यह सिखाती है कि अपने ऊपर आश्रित व्यक्तियों जैसे पशु, सेवक, स्त्री की अपने ऊपर अत्याधिक जवाबदेही रहती है इन सब पक्तियों को संदेह की दृष्टि से देखना कहीं से भी उचित नहीं है ! मधु जैन के अनुसार-चौपाई का कुछ अति विद्वान जनों ने अधूरा अर्थ निकालकर रामचरितमानस जैसी कालजयी ग्रंथ और उसके रचनाकार पर ही आक्षेप लगा दिया जबकि इसके पूर्व की पंक्ति पर ध्यान ही नहीं दिया गया जिसमें कहा गया है ढोल गवार शुद्र पशु नारी शिक्षा और शिक्षण पाने के अधिकारी है !डॉक्टर प्रतिमा भार्गव के अनुसार ताड़न शब्द का प्रयोग अवधी भाषा में हुआ है जिसमें निम्न अर्थ देखना शिक्षण पहचानना रैकी करना और अनुशासित रहना है! श्रीमती आराधना रावत ने मंच का संचालन किया एवं श्रीमती मृदुला अग्रवाल ने सभी का आभार व्यक्त के साथ-साथ यह भी बताया कि इन चर्चाओं से हमारा ज्ञान वर्धन तो हो ही रहा है साथ ही साथ खोज की प्रक्रिया भी जारी है ,जिसमें अभी जयपुर में एक रामचरितमानस की पांडुलिपि मिली है जिसमें कुछ गलतियां हैं और शोध भी लगातार चल रही हैं कितने शर्म की बात है कि हमारे इतने पुराने वैदिक पौराणिक ग्रंथों पर हमारे हिंदू ही सवाल खड़ा करते हैं यह एक सोचनीय विषय है इसी का फायदा उठाकर विदेशी आक्रांताओं ने हमारे धर्म ग्रंथों, साहित्यिक धरोहर को संजोकर रखा, उसपर अनुसंधान किया । हमें अज्ञानी कहा, हमारे हिंदुस्तान पर आकर राज्य किया ।आज आजाद भारत में भी विवाद की आग से भारत को तोड़ने की कोशिश की जा रही है। परन्तु लोक मंगलकारी सम्भावनाओं को चरितार्थ करने के लिए हम सब मातृशक्तियां मिलकर भ्रष्टाचार मुक्त भारत, आतंकवाद मुक्त भारत के साथ रामराज्य की परिकल्पना को साकार करेंगे।

Saturday, 25 February 2023

जैन दर्शन

 

जैन दर्शन - प्रमाण मीमांसा

उपासक तत्व चर्चा whatsapp ग्रुप में डा. मंजू जी नाहटा द्वारा लिखे गए posts का संकलन :

प्रमाण का अर्थ:-
प्रमाण का अर्थ - किसी भी पदार्थ को जानने का माध्यम या साधन। definition- "प्रमाकरणं प्रमाणं"
प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआ– ज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है।
एक और शब्द है - न्याय । इसे भी जानें। कारण- प्रमाणप्रमेयप्रमितिप्रमाता - ये न्याय के ४ अंग हैं।– "चतुरंग: न्याय: " 
अभी हम न्याय के प्रथम अंग प्रमाण की चर्चा करेंगें।
जैनदर्शन में प्रमाण की शुरूआत:
जैनों के आगमों में पंच ज्ञान का सिद्धांत ही प्राचीन था।
जैन दर्शन में सर्वप्रथम पहली शती AD के आसपास उमास्वाति ने प्रमाण की चर्चा की।फिर भी इस प्रमाण के क्षेत्र में हम जैनों का प्रवेश बौद्धोंनैयायिकोंमीमांसकों के बहुत पश्चात् ही हुआ। पण्डित सुखलालजी के अनुसार
1/. आगम युग-1st century AD,
 2/.अनेकांतस्थापनायुग 2nd cent. AD से 8th cent.AD
3/. न्याय-प्रमाणस्थापना युग 8th cent.AD onwards.

जैनदर्शन में प्रमाण की आवश्यकता:
अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत रहा है।
आगमयुग में अनेकांत का उपयोग द्रव्य मींमांसा के लिए हुआ करता था।किंतु समय में परिवर्तन हुआ- खण्डन मण्डन का युग आया तब अनेकान्त का उपयोग क्षेत्र भी बदल गया। अब इस दर्शन युग में अनेकान्त का उपयोग विभिन्न दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने एवं एकांतवादी दर्शनों के सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित करने मे होने लगा। धीरे - धीरे प्रमाण व्यवस्था का विकास होने पर वहाँ भी अनेकान्त का व्यापक उपयोग होने लगा।
जैन आगम ज्ञान मीमांसा प्रधान रहे हैं किन्तु आगमोत्तर युग मे जैसे - जैसे न्याय विद्या का विकास हुआ वैसे - वैसे प्रमाण मीमांसा की आवश्यकता महसूस होने लगी।
प्रमाण के भेद :-
जैन दर्शन में प्रमाण के दो भेद माने गए हैं - प्रत्यक्ष परोक्ष । हम पदार्थ को या तो साक्षात् देखते हैं या किसी माध्यम से । अर्थात् जानने की दो पद्धतियाँ होती हैं ।

Notable:
प्रत्येक भारतीय दर्शन में प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष शब्द का ही प्रयोग हुआ है। लेकिन जैन ज्ञानमीमांसाप्रमाण मीमांसा में प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष शब्द के साथ परोक्ष का भी प्रयोग हुआ है।प्रमाण को बिस्तार से समझने से पहले आवश्यक है कि जैन आचार्यों द्वारा दी गई प्रमाण की परिभाषाओं को हम हृदयंगम करें।

प्रमाण की परिभाषाएँ :-

सही है कि हम किसी वस्तु को जानना चाहते हैं तो सर्वप्रथम उसकी परिभाषाओं पर दृष्टिपात करें।
आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण कह दिया। "ज्ञानं प्रमाणं"। 

लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए। अत: later दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं। 

जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई थी अत: अपनी तरफ़ से परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषा प्रस्तुत की -"प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" इस परिभाषा का अर्थ हुआ

अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते हैं कि ज्ञान स्वयंस्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयंस्वयं को नही काट सकता - एक चाक़ू  को काटने के लिए हमें दुसरे चाक़ू की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँदूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो वह चढ़ सकता है । अब दूसरी और देखिए जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थो को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।

ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराएवह प्रमाण है।
 सीधे शब्दों में वही ज्ञान प्रमाण की category में सम्मिलित होगा जो स्वयं को जानने के साथ पर को भी जाने।

इनके पश्चात अकलंक आए उन्होंने सिद्धसेन द्वारा प्रयुक्त 'बाधविवर्जित शब्द को स्वीकार नहीं किया और प्रमाण उसे कहा जो अविसंवादी ( सत्य ख्यापित करने वाला) और अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो वही ज्ञान प्रमाण है।- "प्रमाणमविसंवादीज्ञानमधिगतार्थलक्ष्णत्वात् "। इसका अर्थ हुआ - ज्ञात अर्थ को पुन: जानना प्रमाण नहीं।

इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।

इनके पश्चात विद्यानंदवादिदेवसूरि द्वारा दी गई परिभाषाएँ तो प्राय: आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र द्वारा दी गई परिभाषाओं से मेल खाती हुईं ही हैं। केवल उनके शब्दान्तर मात्र ही हैं।आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र ने 'अवभासपद का प्रयोग किया और और इन्होंने 'व्यवसायया निर्णीत पद का प्रयोग कर लिया। आचार्य विद्यानंद - "स्वपरव्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्"।

चतुर्थ वर्ग में हेमचंद्राचार्य ने 'स्वबाधविवर्जितअनधिगतया अपूर्वआदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय:"

भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषा दी – "यथार्थज्ञानं प्रमाणम्"-( वस्तु को जानने का साधन प्रमाण है)।

आइए अब समझें – ज्ञान और प्रमाण क्या हैंक्या दोनों में कोई समानता है?

उत्तर- हर ज्ञान प्रमाण नहीं होगा। लेकिन प्रमाण ज्ञान ही होगा।
जैन परंपरा ज्ञान को ही प्रमाण मानती है।ज्ञान को प्रमाण किस आधार पर कहा गयाऔर प्रमाण के विभाग कैसे किये गये? - आचार्य महाप्रज्ञ का उत्तर- "ज्ञान केवल आत्म का विकास है। प्रमाण पदार्थ के प्रति ज्ञान का सही व्यापार है। ज्ञान आत्मनिष्ठ है। प्रमाण का संबंध अंतर्जगत् और बहिर्जगत् दोनों से है। बहिर्जगत् की यथार्थ घटनाओं को जब अंतर्जगत् तक पहुँचाए यही प्रमाण का जीवन है। बहिर्जगत् के प्रति ज्ञान का व्यापार एक सा नहीं होता। ज्ञान का विकास प्रबल होता है तब वह बाह्य साधन की सहायता के बिना ही विषय को जान लेता है।विकास कम होता है तब वह बाह्य साधन का सहारा लेना पड़ता है।"

ज्ञान को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।
१/. यथार्थ- केवल प्रमाण
२/. अयथार्थ- प्रमाण नहींकेवल(only) ज्ञान।
अयथार्थ ज्ञान प्रमाण नहीं होता है। अयथार्थ ज्ञान तीन प्रकार का होता है।- विपर्ययसंशयअनध्यवसाय।
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भारतीय परंपरा में मात्र ज्ञान पर विश्लेषण नंदी सूत्र में ही पाया जाता है। आगमों में कहीं परोक्ष शब्द का प्रयोग  इस context में नहीं मिलता है। वहाँ ५ ज्ञान की चर्चा है।

आगम युग में ज्ञान चर्चा के विकास क्रम में तीन भूमिकाएं बनती हैं।:

१/. भगवती सूत्र में ज्ञान को ५ भेदों में विभक्त किया गया है।

२/. स्थानांगसूत्र में ज्ञान को २ भेदों में विभक्त किया गया है।प्रथम दो ज्ञान परोक्ष हैं वे इंद्रिय उत्पन्न ज्ञान हैं। द्वितीय अंतिम ३ ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। हम उन्हें आत्म -सापेक्ष ज्ञान कह सकते हैं।
यहाँ problem यह है कि जिस इंद्रिय ज्ञान को अन्य सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष स्वीकार करते थे– वह इंद्रिय ज्ञान जैन परंपरा में परोक्ष ही रहा। यह जैनों के आगम युग की देन थी।

 ३/. नंदी सूत्र में ज्ञान को ५ भागों में विभक्त करके फिर इनका समावेश प्रथम बार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में किया।

यह सब बाद के दार्शनिकों ने develop कियाविस्तार किया। 'परोक्षएक ऐसा शब्द है जो जैन ज्ञान मीमांसा या प्रमाण मीमांसा में ही प्रयुक्त हुआ है। Jain Logicians का यह original contribution है– " परोक्ष की अवधारणा"।

इस विभाजन की यह विशेषता है कि इसमें इंद्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दोनों भेदों के अंतर्गत स्वीकार किया गया है।

इंद्रिय ज्ञान वस्तुत: तो परोक्ष ही है लेकिन लोकव्यवहार के कारण उसको प्रत्यक्ष कहा है। वास्तविक प्रत्यक्ष तो अवधिमन:पर्यव एवं केवल ज्ञान ही है।

Conclusion:

1/. अवधिमन:पर्यव एवं केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है।
2/. श्रुतज्ञान परोक्ष ही है।
3/. इंद्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यवहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है। 
4/. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है।

जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने सर्वप्रथम 'विशेषावश्यक भाष्यमें इंद्रिय ज्ञान के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया। हालाँकि लोग इसके प्रथम उपयोग करने वाले को आचार्य अकलंक मानते हैं।
आचार्य अकलंक को मानने के कारण:-

१/. अकलंक उत्तरवर्ती आचार्य हैं।
२/. अकलंक के ग्रंथ संस्कृत में थे इसलिए लोग उन्हें आसानी से पढ़ पाते थे। इसलिए अकलंक का नाम लिया जाता है।

 सारे दार्शनिक उस समय इंद्रिय से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मान रहे थे– वाद विवाद का समय था। तब जैनों ने जटिल परिस्थिति में स्वयं की सुरक्षा के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को स्वीकार किया।
प्रत्यक्ष का अर्थ है -

१/. आत्मा,
२/. इंद्रिय। 

इसलिए इसका समाहार इंद्रिय-प्रत्यक्ष और आत्म-प्रत्यक्ष में करते हैं। "
आत्मा के दो गुण हैं।
१/. ज्ञान और २/. दर्शन।

दर्शन प्रमाण नहीं बनता केवल (only) ज्ञान ही प्रमाण बनता है।

प्रमाण की आवश्यकता:-
वस्तु का अर्थ स्वत: सिद्ध होता है।
ज्ञाता उसको जाने या न जाने इससे उसके अस्तित्व में अंतर नहीं पड़ता। हाँ जब वह वस्तु ज्ञाता के द्वारा जानी जाय तब वह प्रमेय बन जाती है। और ज्ञाता जिससे जानता हैवह ज्ञान यदि सम्यक् और निर्णायक होता है तो प्रमाण बन जता है।

भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषित करते हुए लिखा है
 "युक्त्यार्थपरीक्षणं न्याय:"– युक्ति के द्वारा पदार्थ का परीक्षण करना न्याय है। यहाँ दो शब्दों को समझना ज़रूरी है– युक्ति और परीक्षा।

१/. युक्ति- साध्य और साधन के अविरोध का नाम है युक्ति।
२/. परीक्षा- एक वस्तु के बारे में अनेक विरोधी विचार सामने आते हैं। तब उनके बलाबल अर्थात् सही ग़लत के निर्णय करने के लिए जो विचार किया जाता है उसका नाम परीक्षा है।

प्रयोजन of न्याय:- पदार्थ का ज्ञानवस्तु को जानना। वस्तु को जानने के साधन: वस्तु को जानने के साधन दो हैं।

१/. लक्षण
२/. प्रमाण
१/. लक्षण:- लक्षण का अर्थ पहचान, identity, यह वस्तुगत होती है। लक्षण के दो प्रकार हैं:-
१/. आत्मभूत लक्षण
२/. अनात्मभूत लक्षण
१.आत्मभूत लक्षण:- जिस लक्षण से स्वयं को अलग न किया जा सके।जैसे- गेहूँ से लकीरजीव से चेतनागाय से सास्ना( गलकंबल)साधु से महाव्रत। intrinsic nature.
२. अनात्मभूत लक्षण:- जो लक्षण लक्ष्य से अलग किया जा सके। जैसे दण्डी से दण्डचश्मुद्दीन से चश्मालाल टोपी वाले से टोपी।
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Qu.1. प्रमाण क्या है?

Ans.1. किसी भी पदार्थ को जानने का माध्यम या साधन।

Qu.2.प्रमाण की परिभाषा क्या है

Ans.2."प्रमाकरणं प्रमाणं" 

प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआ– ज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है।

Qu.3.न्याय क्या है।

Ans.3.युक्ति के द्वारा पदार्थ (प्रमेय) – वस्तु की परीक्षा करना । इसके चार अंग है 

i.  प्रमाण – (यथार्थ ज्ञान) – मीमांसा का मानदंड
ii.  प्रमेय – (पदार्थ) – जिसकी मीमांसा की जाए
iii. प्रमाता (आत्मा) – तत्त्व की मीमांसा करने वाला
iv. प्रमिति (हेय-ज्ञेय-उपादेय बुद्धि) – मीमांसा का फल

Qu.4.प्रमाण और न्याय में क्या कोई संबंध है?

Ans.4. प्रमाणन्याय का ही एक अंग है ।

Qu.5.जैन दर्शन में प्रमाण-मीमांसा की शुरुआत कब और कैसे हुई 

Ans.5. भगवान् महावीर के समय में भी वादी मुनि थेजो अपने मत की स्थापना व दूसरे मत का युक्ति सहित निराकरण करते थेपरन्तु आप्तपुरुष की उपस्थिति में शायद उस समय इसको प्रमाण-मीमांसा में नहीं माना गया ।  

जैन दर्शन में सर्वप्रथम पहली शती AD के आसपास उमास्वाति ने प्रमाण की चर्चा की।फिर भी इस प्रमाण के क्षेत्र में हम जैनों का प्रवेश बौद्धोंनैयायिकोंमीमांसकों के बहुत पश्चात् ही हुआ। आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र और आचार्य अकलंक आदि ने इसके क्रमशः विकास में योगदान दिया।

Qu.6. जैन दर्शन में प्रमाण मीमंसा की आवश्यकता क्यों पड़ी?

Ans.6.अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत रहा है।
आगमयुग में अनेकांत का उपयोग द्रव्य मींमांसा के लिए हुआ करता था।किंतु समय में परिवर्तन हुआ- खण्डन मण्डन का युग आया तब अनेकान्त का उपयोग क्षेत्र भी बदल गया। अब इस दर्शन युग में अनेकान्त का उपयोग विभिन्न दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने एवं एकांतवादी दर्शनों के सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित करने मे होने लगा। धीरे - धीरे प्रमाण व्यवस्था का विकास होने पर वहाँ भी अनेकान्त का व्यापक उपयोग होने लगा।

Qu.7.प्रमाण के भेद कितने है !(मौटे तौर पर)

Ans.7.  1/प्रत्यक्ष ,
             2/. परोक्ष।

Qu.8.जैनों की प्रमाण मीमांसा में एक विशेषता क्या है  जैन आचार्यों द्वारा दी गई परिभाषाओं को क्रमश: समझें और अनुभव करें कि किसकी परिभाषा किस दर्शनमें प्रभावित है?

Answer8:

1. आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण कह दिया। "ज्ञानं प्रमाणं"। लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए।

2. तदुपरान्त दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं। जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई अत: इस परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषाएँ  प्रस्तुत की।

अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते है कि ज्ञान स्वयंस्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयंस्वयं को नही काट सकता - एक चाकु को काटने के लिए हमें दुसरे चाकु की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँदूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो चढ़ सकता है ।

3. जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थों को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।

ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराएवह प्रमाण है।
सीधे शब्दों में वही ज्ञान प्रमाण की category में सम्मिलित होगा जो स्वयं को जानने के साथ पर को भी जाने।

4. इनके पश्चात अकलंक आए उन्होंने सिद्धसेन द्वारा प्रयुक्त 'बाधविवर्जितशब्द को स्वीकार नहीं किया और प्रमाण उसे कहा जो अविसंवादी ( सत्य ख्यापित करने वाला) और अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो वही ज्ञान प्रमाण है।- "प्रमाणमविसंवादीज्ञानमधिगतार्थलक्ष्णत्वात् "। इसका अर्थ हुआ - ज्ञात अर्थ को पुन: जानना प्रमाण नहीं।

इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।

5. इनके पश्चात विद्यानंदवादिदेवसूरि द्वारा दी गई परिभाषाएँ तो प्राय: आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र द्वारा दी गई परिभाषाओं से मेल खाती हुईं ही हैं। केवल उनके शब्दान्तर मात्र ही हैं।आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र ने अवभास पद का प्रयोग किया और और इन्होंने व्यवसाय या निर्णीत पद का प्रयोग कर लिया। आचार्य विद्यानंद - "स्वपरव्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्"।

6. हेमचंद्राचार्य ने स्वबाधविवर्जितअनधिगतया अपूर्व आदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय: प्रमाणम्"

7. भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषा दी – "यथार्थज्ञानं प्रमाणम्"।

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Question:  "युक्ति- साध्य और साधन के अविरोध का नाम है युक्ति।" साध्य और साधन में अविरोध कैसे होगा कोई उदाहरण


Answer: युक्ति 

•  साध्य और साधन में अविरोध ।
•  It means there is no contradiction between probandum (साध्य) and probans (साधन) ।
•  साध्य है अग्नि और साधन है धुआं ।
•  यदि इनमें विरोध हुआ तो उसका अर्थ हुआ धुआं हैअग्नि नहीं है” । यह कोई युक्ति नहीं हुई ।
क्या कभी आग के बिना धुआं उठेगा यदि इनमें अविरोध होगा तो अर्थ होगा जहाँ- जहाँ धुआं हैवहाँ-वहाँ अग्नि है । यह युक्ति हुई ।

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मिथ्या ज्ञान को प्रमाणाभास कहते हैं। वे तीन हैं:-
 1/.  संशय
2/.  विपर्यय
3/. अनध्यवसाय

१/. संशय-विरुद्ध अनेक कोटि स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैजैसे यह सीप है या चांदी। व्यक्ति doubtful रहता है।

२/. विपर्यय- विपरीत एक कोटि ज्ञान के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते है। जैसे सीप को चांदी जानना।wrong knowledge.

३/. अनध्यवसाय- यह क्या है! ऐसे प्रतिभास को अनध्यवसाय कहते हैं जैसे-मार्ग में चलते हुए तृण का ज्ञान करना। actually अनध्यवसाय आलोचना मात्र होता है। किसी पक्षी को देखाऔर एक आलोचना शुरू हो गयी -इस पक्षी का नाम क्या हैचलते चलते किसी पदार्थ का स्पर्श हुआ। यह जान लिया स्पर्श हुआ है किन्तु किस वस्तु का हुआ हैयह नहीं जाना। इस ज्ञान की आलोचना में ही परिसमाप्ति हो जाती हैकोई निर्णय नहीं निकलता। इसमें वस्तु स्वरूप का अन्यथा (उलटा-पुल्टा) ग्रहण नहीं होता इसलिए यह विपर्यय से भिन्न है और यह विशेष का स्पर्श नहीं करताइसलिए संशय से भिन्न है।

Conclusion:

1.यथार्थ ज्ञान=यह रस्सी है।
2.विपर्ययज्ञान =यह साँप है।
3.संशय ज्ञान =यह रस्सी हैया साँप है।
4.अनध्यवसाय ज्ञान= रस्सी को दैख कर भी पता नहीं चलता कि यह किया हैविषय का स्पर्श मात्र हुआनामोल्लेख नहीं होता। अगर यह आगे बढ़े तो अवग्रह के अंतर्गत आ जाएगा।
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प्रत्यक्ष प्रमाण

प्रत्यक्ष प्रमाण की चर्चा :-

जैन दर्शन के अनुसार आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रमाण है जबकि प्रायः सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में 'अक्षपद का अर्थ इन्द्रिय मानकर कर रहे थे । उनमें से किसी दर्शन ने भी 'अक्षशब्द का 'आत्माअर्थ मानकर व्युत्पत्ति नहीं की ।

न्याय- वैशेषिकसांख्य-योगमीमांसा आदि दर्शनों के अनुसार इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है ।

इन दर्शनों में प्रसिद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण जैन आगमिक परम्परा के अनुसार परोक्ष-प्रमाण कहलाता है । जैन दार्शनिकों ने इस विरोध को दूर करने के लिए और अन्य दर्शनों के साथ समन्वय करने की दृष्टि से प्रत्यक्ष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन किया और कहा 'विशदः प्रत्यक्षम्' -विशद् (स्पष्ट) ज्ञान प्रत्यक्ष है ।

प्रत्यक्ष के उन्होंने दो भेद कर दिये-१/. पारमार्थिक प्रत्यक्ष और  २/. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष।
सर्व प्रथम जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और आचार्य अकलंक ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में इन्द्रिय प्रत्यक्ष को प्रतिष्ठापित कर आगमिक और दार्शनिक युग का समन्वय किया । इस प्रकार जैन दृष्टि से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अन्य दर्शनों के साथ समन्वय का फलित रूप है।

जैन दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार माने गए हैं।

1/ पारमार्थिक प्रत्यक्ष,
2/ सांव्यव्हारिक प्रत्यक्ष।

1/. पारमार्थिक प्रत्यक्ष                  (transcendent)
जिस ज्ञान में इन्द्रिय,मन या किसी अन्य प्रमाणों की सहायता की अपेक्षा नहीं होती तथा जो आत्मा से सीधा होता हैउसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं।

इसके तीन प्रकार है-

1. अवधिज्ञान,
2. मनः पर्यवज्ञान,
3. केवलज्ञान।

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परोक्ष प्रमाण

जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष प्रमाण समझने के पश्चात् हम परोक्ष प्रमाण को समझें

Qu. परोक्ष प्रमाण के भेद?

Ans. मुख्य ५ हैं।

१/. स्मृति
२/. प्रत्यभिज्ञा
३/. तर्क
४/. अनुमान
५/. आगम

१/. स्मृति  हम अपना अधिकांश व्यवहार स्मृति के आधार पर ही चलाते हैं। पानी पीते हैं और प्यास बुझ जाती है। यह हमारा जो अनुभव किया हुआ है उसकी स्मृति के आधार पर ही हमें जब-जब प्यास लगती है हम पानी पीते हैं। और पाते हैं कि easily प्यास बुझ जाती है। अत: जैन स्मृति को प्रमाण मानते हैं।
लेकिन कुछ लोग ऐसा तर्क भी देते हैं कि कभी कभी स्मृति गलत भी हो जाती है। ऐसी अयथार्थ स्मृति को प्रमाण कैसे समझा जाय?
इस आरोप का जैन कुछ इस तरह समाधान देते हैं– जैसे कभी उड़ती हुई धूल को दूर से देख कर प्रत्यक्ष लगता है कि धुंआ उठ रहा है। अत: ऐसे अयथार्थ ज्ञान कभी कभी प्रत्यक्ष में भी हो जाते हैं। ऐसे ही कभी स्मृति से भी ऐसे अयथार्थ ज्ञान होने की संभावना हो सकती है। प्रमाणयुग में अन्य दार्शनिकों ने  जैनों द्वारा स्मृति को प्रमाण मानने की युक्तियों पर आक्षेप लगाए गए। जैनों द्वारा दूसरों के द्वारा लगाए हुए आक्षेपों की समीक्षाओं के उत्तर में ये युक्तियाँ दी गईं।

Question:

अन्य दार्शनिकों द्वारा जैनों के परोक्ष प्रमाण स्मृति पर लगाए गए आक्षेप क्या थेऔर जैनों द्वारा स्मृति को परोक्ष प्रमाण सिद्ध करते हुए क्या उत्तर दिए गए?

1/ बौद्ध: 
बौद्धो ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना। उसे प्रमाण न मानने के पीछे उनका यह तर्क था की स्मृति पूर्व अनुभव के अधीन होती है इसीलिए वह अपूर्व नहीं होती अत: वह प्रमाण नहीं हो सकती । इनके अनुसार प्रमाण वह ज्ञान होता है जो अपूर्व अर्थ को जानता है (अपूर्व= पहले  कभी न जाना गयावह ) स्मृति में अपूर्वता नहीं होती अतः वह प्रमाण नहीं।

2/ मीमांसक:
कुमारिल (एक आचार्य) आदि मीमांसक ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना। इनका कहना है की स्मृति गृहीतग्राही ज्ञान है। (गृहीतग्राही ज्ञान का अर्थ है ग्रहण किये हुए ज्ञान को पुनः ग्रहण करना)और   गृहीतग्राही ज्ञान कभी प्रमाण नहीं बन सकता।मीमांसक बौद्ध आदि के अनुसार स्मृति गृहीतग्राही होने के कारण या आप यू कह दे की अपूर्व अर्थ का प्रकाशन न होने के कारण अप्रमाण हैं।
अब इस आपेक्ष के उपरांत स्मृति को प्रमाण साबित करते हुए जैन अपने पक्ष को पुष्ट इस प्रकार करते हैं:-जैन कहते हैं की पहले से गृहीतग्राही हर ज्ञान अप्रमाण कहा जाए तब तो फिर यदि किसी व्यक्ति ने पहले पर्वत पर उठते हुए धुंए को देख कर वहां अग्नि है ऐसा अनुमान से जाना और फिर वहां on the spot जाकर अनुमान से जानी हुई अग्नि को प्रत्यक्ष से जाना तो वह प्रत्यक्ष भी अप्रमाण कहलाएगा।
क्योंकि यहाँ पर भी गृहीतग्राही होने के कारण अपूर्वता नहीं हैं।क्योंकि जिस अग्नि को अनुमान से जाना उस अग्नि को ही प्रत्यक्ष से जाना गया हैं।जैनो का कहना हैं की अनुमान से जानी हुई अग्नि को प्रत्यक्ष से जानने पर उस में कुछ अपूर्वता रहती हैं।अतः जब प्रत्यक्ष प्रमाण हैं तो स्मृति को अप्रमाण क्यों माने ?

3/नैयायिक :

ये स्मृति को प्रमाण नहीं मानतेइसका कारण हैं यह कहते हैं की स्मृति पदार्थ जन्य नहीं हैं।अब जैन कहते हैं की यदि नैयायिक स्मृति को प्रमाण नहीं मानते तो उन्हें अनुमान को भी प्रमाण मानने में कठिनाई होगी(जबकि नैयायिक अनुमान को प्रमाण मानते हैं-इसकी हम आगे चर्चा करेंगे)।
एक उदहारण से जैन अपने पक्ष पुष्ट करते हैं-जैसे सुबह नदी में बाढ देख कर रात में वर्षा होने का अनुमान किया जाता हैं।
यहाँ पर भी रात्रि में हुई वर्षा को हमने प्रत्यक्ष नहीं देखा था,फिर भी वर्षा का अनुमान कर लियातो यह  अनुमान जिसे नैयायिक  प्रमाण मानते हैं,ये कैसे संभव होगा ?
अतः जैन कहते हैं की स्मृति अर्थ जन्य (पदार्थजन्य) न होने पर भी प्रमाण हैं।

Conclusion:

जैनो के अनुसार स्मृति प्रमाण हैंक्योंकि उसका अपना स्वरुपकारणविषय एवं प्रयोजन हैं।
प्रमाण का आधार  अपूर्वता ,अगृहीतग्राहिता या अर्थ जन्य नहीं अपितु  प्रमाण की कसोटी हैं -
अविसंवादिता (यथार्थ ज्ञान) हैं।और यह अविसंवादीता स्मृति में पायी जाती हैं।अत:स्मृति प्रमाण हैं।

'प्रत्यभिज्ञा'
2/ प्रत्यभिज्ञा :- स्मृति के पश्चात् यह परोक्ष प्रमाण का दूसरा भेद है।
प्रत्यभिज्ञा अनुभव और स्मृति के योग से उत्पन्न होता है । जैसे:- यह वही हैयह उसके समान हैयह उससे भिन्न हैविलक्षण है,
प्रतियोगी है आदि।
अर्थात् की यह एक संकलनात्मक ज्ञान हुआ।
A/.स्मृति का कारण जहाँ धारणा हैवहाँ  प्रत्यभिज्ञा के दो कारण है- प्रत्यक्ष और स्मृति।

B/.  स्मृति का विषय जहाँ अनुभूत पदार्थ हैवहाँ प्रत्यभिज्ञा का स्वरूपस्मृति और प्रत्यक्ष इन दोनों अवस्थाओं के बीच रहा एकत्व है।

C/.  स्मृति का स्वरूप जहाँ 'वह मनुष्य है' ; वहाँ प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप, 'यह वही मनुष्य हैहै।

conclusion:  'यहमनुष्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय हैऔर 'वहीस्मृति में है।
इन दोनों का प्रत्यक्ष और स्मृति का योग हो जाने पर जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञा है।

जैनों के अतिरिक्त अन्य किसी ने भी प्रत्यभिज्ञा के स्वतन्त्र प्रमाण्य को स्वीकार नहीं किया। एक उदाहरण से समझें– किसी एक व्यक्ति ने किसी व्यक्ति को बतायाजो दूध और पानी को अलग करेवह हंस होता है। वक्ता के ये दो शब्द उसके मन में संस्कार स्वरूप निर्मित हो गए। एक दिन उसने देखा की पक्षी की चोंच प्याले में पड़ी और दूध फट गया। क्षीरनीर अलग हो गए।
यहाँ उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों का योग हुआऔर वह हंस नामक पक्षी को जान गया।
 इस प्रकार स्मृति और प्रत्यक्ष के निमित्त से होने वाले जितने संकलनात्मक ज्ञान हैंवे सब प्रत्यभिज्ञा के ही प्रकार हैं।

जैनों के अनुसार प्रत्यभिज्ञा ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैक्योंकि उसका अपना स्वरूपकारण तथा विषय है। प्रत्यभिज्ञा में भी यथार्थ ज्ञान होता है,अतः वह भी प्रमाण है।

'तर्क'

3/. परोक्ष  प्रमाण का तीसरा प्रकार 'तर्कहै ।
इसका अपना स्वतन्त्र कार्य है। चिंतन के क्षेत्र में तर्क का महत्व बहुत पहले से है और न्याय शास्त्र में इसकी विशेष भूमिका रही है। अब मुझे आप लोगो को दो नए शब्दों से परिचित करवाना होगा-अन्वय और व्यतिरेक । अन्वय और व्यतिरेक के निर्णय को तर्क कहा जाता है।

A/ अन्वय: " यत्र यत्र धूमः तत्र- तत्र वह्नि"। जहाँ जहाँ धुँआ होता हैवहाँ- वहाँ अग्नि होती है। अब देखिये यहाँ दो चीजे हैं -
1/ साधन और 2/ साध्य

इस उपरोक्त पंक्ति में साधन "धुँआ" है (साधन= medium)। और
साध्य अग्नि हैअर्थात् हमारा लक्ष्य अग्नि को जानना है और अग्नि को जानने के लिए साधन धुँआ होता है।
अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे की जहाँ-जहाँ धूम (साधन) हैवहाँ-वहाँ अग्नि (साध्य) है।
अर्थात् साधन के होने पर साध्य के होने को अन्वय कहते हैं।इसे तर्क की भाषा में अन्वय व्याप्ति भी कह देते हैं।

B/ व्यतिरेक:- साध्य के अभाव में साधन का अभाव होना व्यतिरेक है। जैसे- जहाँ-जहाँ अग्नि का अभाव हैवहाँ-वहाँ धूम का भी अभाव है । हम यह न भूलें अग्नि साध्य हैधूम साधन है। धुँआ देखकर ही हम अग्नि के होने को जानते हैंअग्नि के अभाव में धुँए का भी अभाव होता है। अतः साध्य के न होने पर साधन के न होने को व्यतिरेक कहा जाता है । इसे तर्क की भाषा में व्यतिरेक व्याप्ति  कहते हैं।

अन्वय और व्यतिरेक के सम्बन्ध का ज्ञान तर्क से होता है।अतः तर्क का विषय है व्याप्ति को ग्रहण करना। अनुमान के लिए व्याप्ति की अनिवार्यता होती हैऔर व्याप्ति के लिए तर्क की अनिवार्यता होती है।क्योंकि तर्क के बिना व्याप्ति की सत्यता निर्णय नहीं किया जा सकता। प्रायः सभी परम्पराएँ  जो तर्क शास्त्रीय हैंइसके महत्व को स्वीकार करती हैं। इनमें यदि मतभेद होतो वह अपने प्रामाण्य के विषय में है। अर्थात् कि कोई उसे प्रमाण और कोई उसे अप्रमाण मानता है।

तर्क प्रमाण या अप्रमाण:  जैन परम्परा में तर्क प्रमाण रूप से स्वीकृत है। जहाँ-जहाँ धूम होता हैवहाँ-वहाँ अग्नि होती है- यह व्याप्ति है। यह व्याप्ति का ज्ञान हमें तर्क प्रमाण के द्वारा होता है।

'अनुमान'

4/. अनुमान: यह न्याय शास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। चार्वाक के
अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शन
'अनुमान प्रमाणको स्वीकार करते हैं।
अनु +मान= अनुमान।
अनु का अर्थ है पश्चात् और मान का अर्थ है ज्ञान। अर्थात् बाद मे होने वाला ज्ञान अनुमान है।

भिक्षुन्याय कर्णिका में अनुमान की परिभाषा है– 'साधनात् साध्यज्ञानमनुमानम्। साधन से साध्य का ज्ञान करना अनुमान है।
इस परिभाषा से यह फलित होता है कि अनुमान के मुख्य दो अंग है 
 1/ साधन और 2/ साध्य।

1/. साधन प्राय: प्रत्यक्ष होता है और साध्य परोक्ष होता है। हम सबसे पहले साधन को (धूम को) प्रत्यक्ष देखते हैं।
फिर जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। इस व्याप्ति की स्मृति करते हैं और उसके बाद साध्य
अग्नि) का ज्ञान करते हैं।

उदाहरण स्वरुप: पर्वत पर धुआँ है क्योंकि वहाँ पर अग्नि है। इस अनुमान वाक्य मे धूम साधन है।  और अग्नि साध्य है। और जिससे सिद्ध किया जाता हैं वह साधन कहलाता है। पर्वत पर उठता हुआ धुआँ जो कि साधन हैवह हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है और उस धुएँ को देखकर हम पर्वत पर अग्नि होने का अनुमान कर लेते हैं।
जैन दर्शन में 'अनुमान' (परोक्ष प्रमाण) के दो भेद हैं।

A/  स्वार्थानुमान: जो अपने अज्ञान की निवृति करने में समर्थ होवह स्वार्थानुमान है ।
B/  जो दुसरों के अज्ञान को दूर करने में समर्थ होवह परार्थानुमान है।

1/. दूसरे शब्दों में अनुमान के मानसिक क्रम को स्वार्थानुमान और वाचिक क्रम को परार्थानुमान कहते हैं।
2/. स्वार्थानुमान में अनुमान करने वाला स्वयं अपने संशय की निवृति करता है और परार्थानुमान में दुसरों की संशय निवृति के लिए कुछ वाक्यों का प्रयोग करता है जिसे पंच अवयव वाक्य कहते हैं।

उदाहरण स्वरुप : स्वार्थानुमान में व्यक्ति स्वयं धुएँ को देख कर अनुमान
कर लेता है। उसे किसी प्रकार के वचनों की सहायता लेनी नहीं पड़ती।
पर जब उसी बात का किसी दूसरे को अनुमान करवाना होता है तो उसे कुछ वाक्य बोलकर ही समझाया जा सकता है। ये वाक्य ही अनुमान के अवयव कहलाते हैं। ये पांच अवयव निम्न हैं।

1/ प्रतिज्ञा:- पर्वत अग्नि से युक्त है।
2/ हेतु:-  क्योंकि वहाँ धुँआ है।
3/  उदाहरण:- जहाँ जहाँ धुँआ होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है। जैसे - रसोई घर।
4/  उपनय:  क्योंकि पर्वत पर धुँआ है।
5/  निगमन:  इसीलिए पर्वत पर अग्नि है।

Notable words:
1. व्याप्ति: किसी एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का मिला होना
2. अन्वयी : पाया जाने वाला
3. व्यतिरेकी: न पाया जाने वाला

प्रश्न - परोक्ष प्रमाण के सारे भेद क्या मति के भेद ही हैसिर्फ आगम को छोड़कर जो कि श्रुतज्ञान का भेद लग रहा है ।
Answer: - मति श्रुत दोनों मिले जुले से ही होंगें।
Question - अगर हाँ - तो क्या अवग्रहइहाअवायधारणा आदि के साथ स्मृति आदि का कोई सम्बन्ध है?
Answer -स्मृति का संबंध धारणा के साथ है। धारणा पक्की हो कर स्मृति बन जाती है।
Question - जैसे ये साँप ही हैयहां यथार्थ ज्ञान में आया ज्ञान मीमांसा में ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान अवाय में आता है  ।
Answer - आ सकता है।
Question - ऐसे ही अनुमान यहां ईहा जैसा लग रहा है । दोनों वर्तमान में ही है । स्मृति भूतकाल से है ।
Answer अनुमान पक्का करके आप धारणा भी बना सकते हैं। स्मृति तो definitely भूतकाल है।

5/  आगम यह परोक्ष प्रमाण का अंतिम भेद है।
 जैन आगमिक परम्परा में इसका आगमिक नाम श्रुत है। जैसे – जैन आगमिक परम्परा का मतिज्ञान जैन तार्किक परम्परा में  सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के नाम से अभिहित हुआ।वैसे ही श्रुत भी आगम के नाम से अभिहित हुआ।

Actually- आगम श्रुत ज्ञान या शब्द ज्ञान है।  उपचार से आप्त वचन या द्रव्य श्रुत को भी आगम कहा जाता हैं।
 किन्तु वास्तव में आगम वह ज्ञान हैजो श्रोता या पाठक को आप्त वचन की मौखिक या लिखित वाणी से होता है।

जैन दर्शन सम्मत श्रुत ज्ञान का क्षेत्र काफी व्यापक है।  यह सभी असर्वज्ञ प्राणियों में होने वाला वाच्यवाचक संबंधात्मक ज्ञान हैजो शब्दसंकेत आदि माध्यमों से होता है।

चार्वाक दर्शन के अनुसार कोई आप्त नहीं ,अतः किसी के वचन प्रमाण नहीं हो सकते। वैशेषिक दर्शन और बौद्ध दर्शन के अनुसार शब्द प्रमाण अनुमान का ही रूप है। जैन दर्शन को ये दोनों ही मत मान्य नहीं हैं ।  शब्द सुनते ही श्रोता उसका अर्थ समझ जाता हैं ।  अतः उसे घट शब्द सुनने के बाद 'घटशब्द और 'घटपदार्थ में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं जोड़ना पड़ता।  अतः शब्द स्वतंत्र प्रमाण है,अनुमान के अधीन नहीं है। शब्द सुनने पर यदि अवबोध ना हो ,उसके लिए  व्याप्ति का सहारा लेना पड़े तो आप शब्द को प्रमाण कहना उचित नहीं,- ऐसा कह सकते हैं। actually वह अनुमान के अंतर्गत नहीं गिना जा सकता।
जैन दृष्टि के अनुसार आगम स्वतः प्रमाणपौरुषेय तथा आप्त  प्रणीत होता है। ये दो प्रकार के हैं।
1.लौकिक आगम
2.लोकोत्तर आगम

1. लौकिक आगम:-  जो जिस समय जिस लौकिक विषय  का यथार्थ  ज्ञान एवं यथार्थ वक्ता होता हैवह आप्त है। उसके वचन लौकिक आगम हैं।
2.लोकोत्तर आगम:- आत्माकर्मपुनर्जन्म का यथार्थ ज्ञान रखने वाला तथा यथार्थवादी महापुरुष लोकोत्तर आप्त कहलाता है।  उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य लोकोत्तर आगम के विषय हैं।

 वस्तुतः जैन दृष्टि  से पुस्तकग्रन्थ ,आदि उस ज्ञान के साधन होने से उपचारतः आगम हैं।
मुख्य आगम तो वह आप्त स्वयं हैं।
अतः आगम पुरुष हैग्रन्थ नहीं।
जिन ग्रंथों में प्रत्यक्ष,  युक्ति तथा तर्क नहीं चल सकतेउन परोक्ष और अहेतुगम्य विषयों में आगम ही एक मात्र ज्ञान का साधन है।  अतः आगम को प्रमाण  न मानने वाले दार्शनिक प्रस्थानों के समक्ष उन विषयों को जानने का कोई आधार नहीं।

Conclusion: जैन परोक्ष प्रमाण केस्मृतिप्रत्यभिज्ञातर्कअनुमान,
और आगमये पाँच भेद हैं।