Thursday, 31 October 2019

चार लघु स्तंभ लेख - 2🌹                       ( कौशांबी )

🌹चार लघु स्तंभ लेख - 2🌹
                      ( कौशांबी )

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मूल-लेख (लिप्यांतरण):-

१ देवानं पिये आनपयति कोसंबियं महामात

२ ...........समंगे कटे संघसि नो लहिये

३ ............संघं भाखति भिखु वा भिखुनि वा से पि चा

४ ओदातानि दुसानि सनंधपयितु अनावाससि
आवासयिय

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अनुवाद -

१ देवानंपिये आनपयति कोसंबियं महामात
(देवानंपिय ( इस प्रकार ) आज्ञा देते हैं :
कौशांबी के महामात)
. . . . . . . . . . . समग्र रहेगा
. . . . . . . . . . . . संघ में न लिया जाय ।
जो भी , भिक्खु या भिक्खुणी , संघ का भेद करेगा उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर विहार से बाहर अनावास - स्थान में रखा जाय ।

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दासः तदपि भारतः

ब्राह्मणोssसीत्तु विज्ञानी प्रबलः क्षत्रियः तथा।
वैश्योsपि चतुरोssसीन्नु दासः तदपि भारतः।।
रामहेत गौतमः गुजर्रा

गुर्जरा- जिला, दतिया - मध्यप्रदेश

गुर्जरा- जिला,  दतिया - मध्यप्रदेश
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मध्यप्रदेश के गुर्जरा नामक स्थान से  1924 ईस्वी मे  सम्राट अशोक का  एक शिलालेख प्राप्त हुआ था  । जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है  । सम्राट अशोक के अब तक के प्राप्त अभिलेखो मे  या  धर्मलिपियो मे केवल मासकी के अभिलेख मे ही अशोक का नाम देवान प्रिय की उपाधि के साथ मिला था ।
शेष मे सर्वत्र  केवल  देवानांप्रिय दर्शी की उपाधि का ही उल्लेख है नाम का नही ।
गुर्जरा से प्राप्त नए अभिलेख मे  जो बेराठ , सहसराम , रूपनाथ , यरागुडी , राजुलमंडगिरी ओर ब्रहागिरि तथा मासिकी के  अभिलेख की ही प्रति हे , अशोक का नाम उपाधि सहित दिया गया है । --

" दैवानां पियसपियदसिनो अशोक राजस "

इस प्रति के प्राप्त होने से इस अभिलेख के कई  संशयग्रस्त पाठ स्पष्ट हो गये है । इसका मुख्य विषय है  -- अशोक  256  दिन की धर्म यात्रा तथा बोध धर्म के प्रचार के लिऐ उसका अनथक प्रयास । जिस चट्टान पर यह लेख अंकित है  वह  " गुर्जरा " के निकट एक वन मे  अवस्थित है ।

बहिष्कार नहीं

जो लोग वास्तव में भारत का विकास चाहते हैं,
लेकिन दीप-दानोत्सव का बहिष्कार कर रहे हैं,
उनके लिए -
                     दो शब्द
                   👇👇👇

        🌹परिष्कार चुनो
                             बहिष्कार नहीं🌹

जिन्हे बदलना है उनका बहिष्कार उचित नहीं। इतिहास की समझ फैलानी होगी।
...........
🔸हमारा मगध साम्राज्य नष्ट किया गया हम चुप रहे।
🔸बुद्ध और अशोक की शान्ति की नीति को दोष दिया गया ।
🔸सारनाथ को अपना बना लिया ।
🔸मथुरा,अयोध्या, नागपुर,कन्नौज सबको खोदकर देखो हमारे थे ।
🔸बुद्ध  के ऊपर क्या- क्या नहीं  लपेटा -
         - काली धोती पहनाकर माता बना दिया। 🔸गाय को छीन कर लड़ाई का मुद्दा बना लिया।
🔸अशोक के अभिलेखों को  लिंग बता दिया। 🔸पीपल के बुद्ध को पीपल का भूत बना दिया।
🔸बुद्ध के स्वागत उत्सव को छीन लिया।
🔸विहारों को तोड़ डाला।
🔸नालंदा जैसे विश्व विद्यालय खत्म कर दिये गये।
🔸अशोक के कार्यों को भुला दिया ।

🎯 लोगों को हर त्योहार पर पंचशील के
      उल्लंघन की छूट लोगों को भाने लगी।🎯

🎯अनपढ़ समाज को -
🔹दया,
🔹अहसान,
🔹कृपा,
🔹झूठन,
🔹कर्ज भेजने लगे ।

🎯 🔰 🎯
🔸दीप,
🔸पुष्प,
🔸पीला रंग,
🔸सुगंध  सबको अपनाकर
🔹वर्ण-व्यवस्था🔹को मजबूत करने में लगा
     दिया।
🎯
🔸आज भी -
🔺इतिहास की समझ और इतिहासकारों,
🔺 साहित्यकारों,
🔺सामाजिक कार्यकर्ताओं
🔺को बिना समझे भड़कना कहाँ तक उचित
     है।

🌹दो दशक पहले तक,
🔹कट्टर अंबेडकरवादी -
🔸रविदास जयंती और
🔸वाल्मीकि जयंती में नहीं जाते थे ।

❤ जिसके कारण दोनों के मंचों  पर
      जातिवादी लोग आकर गुरू रविदास जी
      और महर्षि  वाल्मीकि के मानने वालों को
      अंबेडकरवाद से दूर करने का काम करते
      थे।

और यह पहल और निर्णय सफल हुआ -
🔺जब अंबेडकरवादी दोनों मंचों पर पहुंचे तो
     रविदास जी और महर्षि वाल्मीकि के मानने
     वालों ने अंबेडकरवाद को समझा ।

जिन्हे बदलना है -
         🙏 उनका बहिष्कार नहीं कर सकते ।
         🙏 परिष्कार को चुनो, सोधन करो ।

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वृहद-स्तंभ-लेख-6

🌹वृहद-स्तंभ-लेख-6🌹

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मूल-लेख (लिप्यांतरण) -

१ देवानंपिये पिवदसि लाज हेवं आहा दुवाडस -

२ वस - अभिसितेन मे धंम - लिपि लिखापिता लोकसा

३ हित - सुखाये से तं अपहटा तं तं धंम - वढि पापोवा

४ हेवं लोकसा हित - [ सुखे ] ति पटिवेखामि अथ इयं

५ नातिसु हेवं पतियासंनेमु हेवं अपकठेसु

६ किमं कानि सुखं अवहामीति तथ च विदहामि हेमेवा

७ सव - निकायेसु पटिवेखामि सव - पासंडा पि मे पूजिता

८ विविधाय पूजाया ए चु इयं अत ना पचूपगमने ☝
९ से मे मोख्य-मते सडुवीसति-वस-अभिसितेन मे

१० इयं धंम - लिपि लिखापिता

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अनुवाद -

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :

अभिषेक के बारहवे वर्ष में मैंने लोगों के हित और सुख के लिए धम्म-लिपि लिखायी ताकि उनका पालन करते हए वे तदनुसार धम्म की वृद्धि करें ।

( यह सोचकर कि ) " केवल इसी प्रकार लोगों का हित और सुख हो सकता है "
मैं सिर्फ (अपने) संबंधियों का ही ध्यान नहीं रखता, बल्कि उनका भी जो नजदीक है या दूर, ताकि मैं उन्हें कैसे सुख दे सकता हूँ और मैं तदनुसार ही आदेश देता हूँ ।

इस प्रकार मैं सभी वर्गों का ध्यान रखता हूँ ।

मैं विविध प्रकार की पूजा से सभी संप्रदायों का आदर करता हूँ ।
किंतु जो अपना अभिगम ( या चयन ) है उसे मैं सबसे मुख्य मानता हूँ ।

अभिषेक के छब्बीसवें वर्ष में मैंने इस
धम्म-लिपि को लिखवाया ।

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टिप्पण -

🔹यह राजादेश बारहवे वर्ष में जारी किया,
🔹 लेकिन स्तंभों पर लिखकर सार्वजनिक
       करने का आदेश 26वें वर्ष में लिखवाया ।
🔹यह राजादेश सम्राट असोक के राज-धर्म के
     दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है ।
🎯
ऐसे राजादेशों के कारण ही सम्राट असोक दुनिया के लिए प्रेरणा-स्रोत (रोल-मॉडल) बना ।

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🌹वृहद-स्तंभ-लेख-7🌹

🌹वृहद-स्तंभ-लेख-7🌹

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मूल-लेख (लिप्यांतरण) -

१ देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा ये अतिकंतं

२ अंतलं लाजाने हुसु हेवं इछिसु कथं जने

३ धंम - वढिया वढेया नो चु जने अनुलुपाया धंम-वढिया

४ वढिथा एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा एस मे

५ हुथा - अतिकंतं च अंतंलं हेवं इछिसु लाजाने कथं जने

६ अनुलुपाया धंम - वढिया वढेया ति नो च जने अनुलु - पाया

७ धंम - वढिया वढिथा से किनसु जने
अनुपटिपजेया

८ किनसु जने अनुलुपाया धंम - वढ़िया वढेया ति किनसु कानि

९ अभ्युनामयेहं धंम - वढिया ति एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं

१० आहा एस मे हुथा धंम - सावनानि सावापयामि - धंमानुसथिनि

११ अनुसासामि एतं जने सुतु अनुपटीपजीसति अभ्युंनमिसति

१२ धंम - वढिया च बाढं वढिसति एताये मे अठाये धंम - सावनानि सावापितानि धंमा नुसथिनि विविधानी पानपितानि यथा पुलिसा  पि बहुने
जनसि आयता ए ते पलियोवदिसंति पि पविथलिसंति पि लाजूका पि बहुकेसु पान - सत - सहसेसु आयता ते पि मे आनपिता हेवं च हेवं च पलियोवदाथ

१३ जनं धंम - युति
देवानंपिये पियदसि हेवं आहा
एतमेव मे अनुवे - खमाने धंम - थंभानि कटानि धंम - महामाता कटा धंम-सावने कटे
देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा
मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगनि होसंति
पसु - मुनिसानं अंबा - वडिक्या लोपापिता अढ - कोसिक्यानि पि मे उदुपानानि

१४ खानापापितानि निंसिढया च कालापिता आपानानि मे बहुकानि तत तत कीलापितानि पटीभो - गाये पसु - मुनिसानं
लहुके चि एस पटीभोगे नाम
विविधाया हि सुखायनाया पुलिमेहि पि लाजीहि ममया च सुखयिते लोके इमं चु धंमानुपटीपती अनुपटीपजंतु ति एतदथा मे

१५ एस कटे देवानंपिये पियदसि हेवं आहा
धंम - महामाता पि मे ते बहुविधेसु अठेसु अनुग- हिकेसु वियापटासे पवजीतानं चेव गिहिथानं च सव-पासंडेसु पि च वियापटासे
संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ति हेमेव
बाभनेसु आजीविकेसु पि मे कटे

१६ इमे वियापटा होहंति ति निगंठेसु पि में कटे इमे वियापटा होहंति नाना - पासंदेसु पि में कटे इमे वियापटा होहंति ति पटिविसिठं पटीविसिठं तेसु तेसु ते ते महामाता धंम - महामाता चु मे एतेसु चेव वियापटा सवेसु च अंनेसु पासंडेसु देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा

१७ एते च अंने च बहुका मुखा दान - विसगसि वियापटासे मम चेव देविनं च सवसि च मे आलोधनसि ते
बहुविधेन आकालेन तानि तानि तुठायतनानि पटीपादयंति हिद चेव दिसासु च
दालकानं पि च मे कटे अंनानं च देवि - कुमालानं इमे दान - विसगेसु वियापटा होहंति ति

१८ धंमापदानठाये धंमानुपटिपतिये
एस हि धंमापदाने धंमपटीपति च या इयं दया दाने सचे सोचवे मधवे साधवे च लोकस हेवं वढिसति ति देवानंपिये पियेदसि लाजा हेवं आहा यानि हि कानिचि ममिया साधवानि कटानि तं लोके अनूपटीपंने तं च अनुविधियंति तेन वढिता च

१६ वढिसंति च माता - पितिसु सुसुसाया गुलुसु सुसुसाया वयो-महालकानं अनुपटीपतिया बाभन - समनेसु कपन-वलाकेसु आव दास - भटकेसु संपटीपतिया
देवानंपिय पियदसि लाजा हेवं आहा
मुनिसानं चु या इयं धंम - वढि वढिता दुवेहि
येव आकालेहि धंम-नियमेन च निझतिया च

२० तत चु लहु से धंम - नियमे निझतिया व भुये धंम - नियमे चु सो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि
अंनानि पि चु बहुकानि धंम - नियमानि यानि मे कटानि निझतिया व चु भुये मुनिसानं धंम-वढि वढिता अविहिंसये भुतानं

२१ अनालंभाये पानानं
से एताये अथाये इयं कटे पुतापपोतिके चंदमसु- लियिके होतु ति तथा च अनुपटीपजंतु ति
हेवं हि अनुपटीपजंतं हिदत - पालते आलधे होति
सतविसति - वसाभिसितेन मे इयं धंम - लिपि लिखापापिता ति एतं देवानंपिये आहा इयं

२२ धंम - लिपि अत अथि सिला - थंभानि वा सिला - फलकानि वा तन कटविय एन एस
चिल - ठितिके सिया

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अनुवाद -

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :

पहले जो राजा हुए है उनकी इच्छा होती थी : कैसे धम्म की वृद्धि के साथ लोग बढ़ें ? पर धम्म-वृद्धि के अनुरूप लोगों की वृद्धि नहीं हुई ।

अब देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा : मुझे ऐसा हुआ :
पहले के राजाओं की इच्छा होती थी : कैसे धम्म की वृद्धि के साथ लोग बढ़ें ? पर धम्म की वृद्धि के अनुरूप लोग नहीं बढ़े । फिर किस उपाय से धम्म की वृद्धि के अनुरूप लोग बढ़ेगे? 
कैसे धम्म की वृद्धि के साथ लोग बढ़ेगे ? कैसे मैं धम्म की वृद्धि के साथ उनका अभ्युदय कर सकता हूँ ?

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
मुझे ऐसा हुआ :
मैं धार्मिक संदेश घोषित कराऊंगा , धार्मिक उपदेश दिलाऊंगा । लोग उन्हें सुनकर उनका पालन करेंगे और अपना अभ्युदय करेंगे । वे धम्म की वृद्धि के अनुरूप बढ़ेंगे ।
इसीलिए मैंने धार्मिक-संदेश घोषित कराये है , विभिन्न धार्मिक उपदेश बतलाये है ,
ताकि मेरे पुरुष भी , जिनको बहुत से लोगों पर नियुक्त किया गया है ,  इसका उपदेश करें और ( इनफा ) विस्तार करें ।
राजुक भी , जिन्हें लाखों लोगों के ऊपर नियुक्त किया गया है - उन्हें भी मैंने आदेश दे दिया है कि -
" धम्मिक जनों को इस - इस प्रकार से प्रेरित करें । "

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
मैंने यह देखकर ही धम्म - स्तभ लगवाये है , धम्म - महामात्र नियुक्त किये है , धम्म लेख लिखवाये हैं ।

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
राजमार्गों पर मैंने बरगद के वृक्ष लगवाये हैं ताकि मनुष्यों और पशुओं को छाया मिले , आम के बगीचे लगवाये हैं,
आधे - आधे कोस पर कुएं खुदवाये हैं , धर्मशालाएं बनवायी हैं ,
यत्र तत्र बहुत से प्याऊ बनवाये हैं,
ताकि मनुष्यों और पशुओं को सुख मिले ।
यह सुख तो थोड़ा ही है , क्योंकि मेरे पहले के राजाओं ने और मैंने भी लोगों के सुख के लिए विविध प्रकार के काम किये थे । पर लोग धम्म के मार्ग पर चलें यह काम मैंने ही किया ।

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
मेरे वे ' धम्म - महामात्र भी बहुत से कामों के लिए नियुक्त हैं । वे राजा के अनुग्रह के कामों में - प्रव्रजितों पर गृहस्थों दोनों के , सभी संप्रदायों के बीच नियुक्त हैं ।
उन्हें संघ के काम के लिए भी मैंने आदेश दिया है ।
इसी तरह मैंने आदेश दिया है कि वे -
ब्राह्मणों और आजीविकों के बीच नियुक्त किये जायें ।
वे निग्रंथों में भी नियुक्त किये जायें ।
मैंने आदेश दिया है कि ये विभिन्न संप्रदायों में नियुक्त किये जायें ।
ये - ये महामात्र ( विशेष कर ) अमुक - अमुक ( संप्रदाय ) के लिए नियुक्त हैं ।
पर मेरे धम्म - महामात्र  इनके और अन्य संप्रदायों के बीच नियुक्त हैं ।

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
ये और अन्य मुख्य अधिकारी मेरे और देवियों के दान - विसर्ग में व्यस्त रहते हैं ।
और मेरे रनिवासों में , यहाँ और प्रान्तों में ,
भी ये विभिन्न प्रकार के सुखदायी कार्य करते
हैं ।
मैंने आदेश दिया है कि -
(रानियों और मेरे अलावा) वे मेरे पुत्रों ,
अन्य देवियों के कुमारों के दान - विसर्ग का काम देखेंगे ताकि धम्म के कार्यों की वृद्धि हो और धम्म का पालन हो ।
धम्म के उत्तम कार्य और उनका पालन यह है जिससे ये बढ़ते है अर्थात् इस तरह -
दया , दान , सत्य ,
शौच , मृदुता और लोगों के कल्याण की वृद्धि होगी ।

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
मैंने जो भी अच्छे काम किये हैं,
लोग उनका अनुसरण करते हैं और
वे उनका अनुकरण करेंगे और
इस तरह उनकी माता - पिता की सेवा ,
गुरुओं की सेवा , वयोवृद्धों की सेवा बढ़ेगी ,
ब्राह्मणों और श्रमणों ,
निर्धन और दुःखी जनों के प्रति ,
यहाँ तक कि दासों और आश्रितों के प्रति उचित व्यवहार बढ़ेगा ।

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
मनुष्यों की धार्मिक उन्नति दो तरह , मात्र दो प्रकार से हुई है :
धम्म - नियमन और आंतरिक चिंतन से ।

पर इन में धम्म - नियमन का महत्त्व कम है ।
पर आंतरिक चिंतन ( से धम्म की ) प्रचुर वृद्धि हो सकती है ।
धम्म - नियमन यह है कि मैंने यह आदेश दिया है कि अमुक - अमुक प्राणियों की हत्या न की जाय ।
इनके अलावा भी बहुत से धम्म के नियम कहे हैं ।
किंतु आंतरिक चितन से लोगों में धम्म की काफी वृद्धि हुई है ।
वे जीवों को कष्ट पहुँचाने और उनके वध से बचते हैं ।

इसीलिए यह किया कि मेरे पुत्रों और पौत्रों के समय तक यह यावत् चंद्र दिवाकर कायम रहें और लोग इस मार्ग का अनुसरण करें ।

क्योंकि यदि लोग इस मार्ग का अनुसरण करेंगे तो इहलोक और परलोक में सुख पायेंगे ।

अभिषेक के छब्बीसवें वां में मैंने यह धम्म लेख लिखवाया ।

इस बारे में -
देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :
यह धम्म-लिपि, जहॉ पत्थर के स्तंभ हों या पत्थर के फलक हों, लिखाये जायें ताकि चिरस्थायी हों ।

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टिप्पण :-
सम्राट असोक द्वारा किये गये लगभग सभी जन-हितकार्य इस लेख में उपलब्ध हैं ।
यह इस पंक्ति का अंतिम लेख है ।

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चार लघु स्तंभ लेख ( सारनाथ )

🌹चार लघु स्तंभ लेख - 1🌹
                     ( सारनाथ )

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मूल-लेख (लिप्यांतरण):-

१ देवा ' . . . (देवानंपिय)
२ एल् . . . . . .
३ पाट . . . . . .(पाटलिपुत्त) ये केनपि संघे भेतवे ए चुं खो

४ भिखू वा भिखुनि वा संघं भाखति से ओदातानि दुसानि संनंधापयिया आनावाससि

५ आवासयिये हेवं इयं सासने
भिखु - संघसि च भिखुनि संघसि च विनपयितवे

६ हेवं देवानंपिये आहा हेदिसा च इका लिपी तुफाकंतिकं हुवति संसलनसि निखिता

७ इकं च लिपिं हेदिसमेव उपासकानंतिकं निखिपाथ ते पि च उपासका अनुपोसथं यावु

८ एतमेव सासनं विस्वंसयितवे अनुपोसथं च धुवाये इकिके महामाते पोसथाये

९ याति एतमेव सासनं विस्वंसयितवे आजानितवे च आवते च तुफाकं आहाले

१० सवत विवासयाथ तुफे एतेन वियंजनेन हेमेव सवेसु कोट - विषवेसु एतेन

११ वियंजनेन विवासापयाथा

-                  -                  -                 -

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अनुवाद -

देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा : . . . . . . पाट(लिपुत्र ) . . . . . . . . . . . .
कोई भी क्यों न हो -
वह संघ का भेद नहीं कर सकता ।
जो भी -
भिक्खु या भिक्खुणी ,
संघ का भेद करेगा, उसे श्वेत वस्त्र पहना कर विहार से बाहर अनावास - स्थान में रखा जाय । ☝
🔸इस प्रकार भिक्खुओं और भिक्खुणियों के संघों में यह आदेश विज्ञापित किया जाय ।

हेवं देवानंपिये आहा :
🎯 (देवानंपिय ने इस प्रकार कहा) :
🔸ऐसा एक लेख आपके पास विहार के संसरण में रख दिया जाये और
🔸इसकी दूसरी प्रति उपासकों के पास रखी जाये ।

🔸वे उपासक उपोसथ के दिन आकर इस आदेश से परिचित हो जायेंगे ।

🔹प्रति उपोसथ के दिन निश्चित रूप से हर महामात उपोसथ के लिए जाएगा ताकि वह इस आदेश से परिचित हो और इसे पूरी तरह समझे
🔹जहॉ तक आपका अधिकार-क्षेत्र है,
आप सर्वत्र इसी आशय का आदेश भिजवाएँगे।

🔹इसी प्रकार सभी कोट नगरों में और जिलों में इसी आशय का आदेश भेज दें ।

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टिप्पण :
संघ-भेद को प्रतिबंधित करता यह लेख -
संभवत: यह लेख पाटलिपुत्र के महामात्रों को संबोधित है,
जैसे की कौशांबी का लेख वहाँ के महामात्रों को है;
लेकिन यह लेख सारनाथ के स्तंभ पर भी लिखा गया है ।

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Tuesday, 29 October 2019

Rakshavandhan

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1771806452964345&id=100004050231037

Monday, 28 October 2019

वृहद-स्तंभ-लेख-5

🌹वृहद-स्तंभ-लेख-5🌹

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मूल-लेख (लिप्यांतरण) -

१ देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा सडुवीसति - वस

२ अभिसितेन मे इमानि जातानि अवधियानि कटानि सेयथा

३ सुके सालिका अलुने चकवाके हंसे नंदीमुखे गेलाटे

४ जतूका अंबा - कपीलिका दली अनठिक - मछे वेदवेयके

५ गंगा - पुपुटके संकुज - मछे कफट-सयके
पंन-ससे सिमले

६ संडके ओकपिंडे पलसते सेत - कपोते
गाम - कपोते

७ सवे चतुपदे ये पटिभोगं नो एति न च खादियती अजका नानि

८ एलका चा सूकली चा गभिनी व पायमीना व अवधिया पोतके

९ पि च कानि आसंमासिके वधि - कुकुटे नो कटविये तुसे सजीवे

१० नो झापेतविये दावे अनठाये वा विहिसाये वा नो झापेतविये

११ जीवेन जीवे नो पुसितविये तीसु चातुंमासीसु तिसायं पुंनमासियं

१२ तिंनि दिवसानि चावुदसं पंनहसं पटिपदाये  धुवाये चा

१३ अनुपोसथं मछे अवधिये नो पि विकेतविये एतानि येवा दिवसानि

१४ नाग-वनसि केवट-भोगसि यानि अंनानि पि जीव - निकायानि

१५ नो हंतवियानि अठमी - पखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये

१६ पुनावसुने तीसु चातुंमासीसु सुदिवसाये गोने नो नील-खितविये

१७ अजके एडके सूकले ए वा पि अंने नीलखियति नो नीलखितविये

१८ तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुमासि - पखाये अस्वमा गोनसा

१९ लखने नो कटविये याव - सडुवीसति वस - अभिसितेन मे एताये

२० अंतलिकाये पंनवीसति बंधन - मोखानि कटानि

-                    -                    -                  -

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अनुवाद -

देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा :

अभिषेक के छब्बीसवें वर्ष में मैंने इन जीवों को अवध्य घोषित किया , यथा ' शुक , सारिका , चमर घेंघ (लाल-पक्षी) , चक्रवाक , हंस , नन्दीमुख , गेलाट ( संभवतः सारस ) , चमगादड़ , पिपीलिका, रामानंदी कछुवा ,
झींगा मछली , एदवेयक , गंगापुपुटक ( एक मछली ) , संकुज-मत्स्य , कछुवा , साही मछली , गिलहरी , बारासिंगा हिरन , सांड , ओकपिंड ,  गैंडा , श्वेत - कपोत , ग्राम - कपोत , और अन्य चौपाये जिनका इस्तेमाल नहीं होता और जिन्हें खाया नहीं जाता । 

वे बकरियां , भेड़ें या शूकरियां जो गाभिन हों या दूध दे रही हों या उनके बच्चे जो छह महीने से कम उम्र के हों ।

मुर्गों को बधिया करना मना है । ऐसा तूस जलाने की मनाही है जिसमें, जीव हों ।

व्यर्थ या ( प्राणियों की ) विहिंसा के लिए जंगल जलाने की मनाही है । 

किसी जीव से किसी जीव का पोषण करने की मनाही है ।

तीन चातुर्मासियों
(अर्थात् पूणिमाएं जो चार मास की ऋतुओं के पूर्व ( या बाद ) पड़ती हैं )
और तिष्या ( = पौष मास ) की पूर्णिमा पर तीन दिन अर्थात चौदस , पंचदसी पहले पक्ष की और दूसरे पक्ष की प्रतिपदा के दिन न तो मछलियों का वध किया जाएगा , न अन्य भोज्य के लिए बिक्री , यह ध्रव नियम है ।

इन्हीं दिनों में नागवनों में और केवटभोगों में अन्य जीवों के वध की भी मनाही है ।

प्रति पक्ष की अष्टमी ( तिथि ) चोदसी व अमावस्या , तिष्या , और पुनर्वसु के दिन ,
तीनों ऋतुओं की पूर्णिमा के दिन और सुदिवसों पर बैलों को , न बकरों को , मेढों को , सूअरों को या दूसरे जानवरों को , जिन्हें प्राय : बधिया करते हैं , बधिया करने की मनाही है ।

तिष्या और पुनर्वसु के दिन , ऋतुओं की पूणिमाओं , और ऋतुओं की पूर्णिमामों से सबंध रखने वाले पक्षों में घोड़ों और बलों को दागने की मनाही है ।

यावत् अभिषेक के छब्बीसवें वर्ष में अब तक मैंने पच्चीस बार जेल से रिहाइयां करायी हैं ।

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टिप्पण -

प्राणी-हिन्सा को प्रतिबंधित करता राजादेश ।

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Sunday, 27 October 2019

5. मङ्गलसुत्त

🌹5. मङ्गलसुत्त🌹
                      (खुद्दकपाठ)
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मूल पाठ -

एवं मे सुतं ।
एकं समयं भगवा सावस्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे । अथ खो अञ्जतरा देवता अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिकन्तवण्णा केवलकप्पं जेतवनं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा
एकमन्तं अट्ठासि ।
एकमन्तं ठिता खो सा देवता,
भगवन्तं गाथाय अज्झभासि -
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१ . " बहू देवा मनुस्सा च , मङ्गलानि अचिन्तयु । आकङ्घमाना सोत्थानं , ब्रूहि मङ्गलमुत्तमं " ।
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२ . " असेवना च बालानं , पण्डितानं च सेवना । पूजा च पूजनीयानं , एतं मङ्गलमुत्तमं ।
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३ . पतिरूपदेसवासो च , पुब्बे च कतपुञता । अत्तसम्मापणिधि च , एतं मङ्गलमुत्तमं ।
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४. बाहुसच्चं च सिप्पं च , विनयो च सुसिक्खितो ।
सुभासिता च या वाचा , एतं मङ्गलमुत्तमं ॥
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५ . मातापितुउपट्टानं , पुतदारस्स सङ्गहो । अनाकुला च कम्मन्ता , एतं मङ्गलमुत्तमं ॥
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६ . दानं च धम्मचरिया च , ञातकानं च सगहो।
   अनवजानि कम्मानि , एतं मंगलमुत्तमं । ।
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७ . आरती विरतो पापा , मज्जपाना च संयमो ।
   अप्पमादो च धम्मेसु , एतं मंगलमुत्तमं । ।
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८ . गारवो च निवातो च , सन्तुट्ठि च कतञ्ञुता।
    कालेन धम्मस्सवनं , एतं मंगलमुत्तमं ।
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९ . खन्ती च सोवचस्सता , समणानं च दस्सनं ।
   कालेन धम्मसाकच्छा , एतं मंगलमुत्तमं ।
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१० . तपो च ब्रह्मचरियं , अरियसच्चान दस्सनं ।
  निब्बानसच्छिकिरिया च , एतं मंगलमुत्तमं । ।
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११.फुटस्स लोकधम्मेहि , चित्तं यस्सन कम्पति।
    असोकं विरजं खेमं , एतं मंगलमुत्तमं ।
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१२ . एतादिसानि कत्वान , सम्बत्थमपराजिता । सब्बत्व सोत्थिं गच्छन्ति , तं तेसं मङ्गलमुतमं ति " ।

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अनुवाद -
                     महा-मङ्गल- सुत्त

एक समय भगवान् ( बुद्ध ) श्रावस्ती स्थित अनाथपिण्डिक श्रेष्ठी द्वारा निर्मापित जेतवन में साधनाहेतु विराजमान थे ।
उस समय किसी चाँदनी रात्रि में कोई प्रभावान् देवता जेतवन को अतिशय रूप से प्रकाशित करते हुए भगवान् के सम्मुख आया ।
वहाँ  आकर , भगवान् को प्रणाम कर एक ओर खड़ा हो गया ।
एक ओर खड़े उस देवता ने ,
गाथा के माध्यम से ,
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यह निवेदन किया -
1. " बहुत से देवता एवं मनुष्य , अपने कल्याण हेतु , मङ्गलकामना किया करते हैं , कृपया ( उन पर अनुकम्पा करते हुए ) किसी उत्तम मङ्गलपाठ का निर्देश करें " ।
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( भगवान् बोले - )
२ . " मूर्खों की सेवा न कर ,
     पण्डित ( बुद्धिमान् ) एवं पूजनीय पुरुषों की ही सेवा करनी चाहिये -
                   - यही उत्तम मङ्गल है
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३ . अनुकूल देश में रहना , पूर्वजन्म में किया हुआ पुण्य , तथा किसी भी विषय पर अपना उचित निश्चय करना -
                    - यही उत्तम मङ्गल हैं । ।
🌳
४ . अतिशय विद्वत्ता , शिल्प ( कला ) ,  भलीभाँति अभ्यस्त धर्मानु शासन , तथा
मधुर एवं प्रिय वाणी -
                  - यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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५ .  माता - पिता की सेवा ,
     बच्चों एवं पत्नी/पति आदि का संरक्षण ,
    कुल-विनास के कर्म न करना (निदोष कर्म)-
                  - यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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६ . दान ,  धर्माचरण , ज्ञातिजनों ( परिजनों )
   का संरक्षण, आजीविका के साधनों को समाप्त न करना (निर्दोष कर्मों की पूर्ति) -
                  - यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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७ . पापों से दूर रहना , पापों का त्याग करना ,
   मद-पान में संयम , आलस/भूल न करना
   ( धर्माचरण में सदा सावधान रहना)-
                     - यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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८ . वृद्धों का सम्मान ( गौरव ) , एकान्तवास ,
   अपने कृत एवं प्राप्त पर सन्तोष ,
   किसी के द्वारा किये उपकार के प्रति कृतज्ञता
   प्रकट करना ,
   समय पर धर्म-प्रवचन सुनना तथा उसका
   अभ्यास करना -
                    - यही उत्तम मङ्गल हैं ।
🌳
९ . किसी के द्वारा कृत अपकार (दोष) को
    क्षमा करना , सबके सम्मुख विनम्रता ,
    समण (बौद्ध-भिक्खु) के दर्शन ,
     समय समय पर धर्म का साक्षात्कार करना-
                  - यही उत्तम मङ्गल हैं ।
🌳
१० . तपस्या , धर्मसाधना , चार आर्य-सत्यों का
      श्रवण , मनन एवं निदिध्यासन , तथा
     निर्वाण का साक्षात्कार -
                 - यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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११ . जिस पुरुष का चित्त लोकधर्म ( सुख -
         दुःख , यश - अपयश , हानि - लाभ ,
         निन्दा प्रशंसा ) से सम्पर्क होने पर भी
         कुछ भी विचलित नहीं होता ;
         शोकरहित ,
         निर्मल एवं आनन्दमय ही रहता है -
                      - यही उत्तम मङ्गल है ।
🌳
१२ . ऐसे ( उपर्युक्त ) कर्म करने वाले सत्पुरुष
       स्वयं को सर्वत्र अपराजित ( विजयी )
       अनुभव करते हैं ,
       अत : उनका सर्वत्र कल्याण ही होगा ;
      क्योंकि उन का यह कर्म भी अपने आप में
       उत्तम मङ्गल है " ।

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