🌹5. मङ्गलसुत्त🌹
(खुद्दकपाठ)
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मूल पाठ -
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एवं मे सुतं ।
एकं समयं भगवा सावस्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे । अथ खो अञ्जतरा देवता अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिकन्तवण्णा केवलकप्पं जेतवनं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा
एकमन्तं अट्ठासि ।
एकमन्तं ठिता खो सा देवता,
भगवन्तं गाथाय अज्झभासि -
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१ . " बहू देवा मनुस्सा च , मङ्गलानि अचिन्तयु । आकङ्घमाना सोत्थानं , ब्रूहि मङ्गलमुत्तमं " ।
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२ . " असेवना च बालानं , पण्डितानं च सेवना । पूजा च पूजनीयानं , एतं मङ्गलमुत्तमं ।
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३ . पतिरूपदेसवासो च , पुब्बे च कतपुञता । अत्तसम्मापणिधि च , एतं मङ्गलमुत्तमं ।
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४. बाहुसच्चं च सिप्पं च , विनयो च सुसिक्खितो ।
सुभासिता च या वाचा , एतं मङ्गलमुत्तमं ॥
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५ . मातापितुउपट्टानं , पुतदारस्स सङ्गहो । अनाकुला च कम्मन्ता , एतं मङ्गलमुत्तमं ॥
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६ . दानं च धम्मचरिया च , ञातकानं च सगहो।
अनवजानि कम्मानि , एतं मंगलमुत्तमं । ।
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७ . आरती विरतो पापा , मज्जपाना च संयमो ।
अप्पमादो च धम्मेसु , एतं मंगलमुत्तमं । ।
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८ . गारवो च निवातो च , सन्तुट्ठि च कतञ्ञुता।
कालेन धम्मस्सवनं , एतं मंगलमुत्तमं ।
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९ . खन्ती च सोवचस्सता , समणानं च दस्सनं ।
कालेन धम्मसाकच्छा , एतं मंगलमुत्तमं ।
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१० . तपो च ब्रह्मचरियं , अरियसच्चान दस्सनं ।
निब्बानसच्छिकिरिया च , एतं मंगलमुत्तमं । ।
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११.फुटस्स लोकधम्मेहि , चित्तं यस्सन कम्पति।
असोकं विरजं खेमं , एतं मंगलमुत्तमं ।
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१२ . एतादिसानि कत्वान , सम्बत्थमपराजिता । सब्बत्व सोत्थिं गच्छन्ति , तं तेसं मङ्गलमुतमं ति " ।
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अनुवाद -
महा-मङ्गल- सुत्त
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एक समय भगवान् ( बुद्ध ) श्रावस्ती स्थित अनाथपिण्डिक श्रेष्ठी द्वारा निर्मापित जेतवन में साधनाहेतु विराजमान थे ।
उस समय किसी चाँदनी रात्रि में कोई प्रभावान् देवता जेतवन को अतिशय रूप से प्रकाशित करते हुए भगवान् के सम्मुख आया ।
वहाँ आकर , भगवान् को प्रणाम कर एक ओर खड़ा हो गया ।
एक ओर खड़े उस देवता ने ,
गाथा के माध्यम से ,
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यह निवेदन किया -
1. " बहुत से देवता एवं मनुष्य , अपने कल्याण हेतु , मङ्गलकामना किया करते हैं , कृपया ( उन पर अनुकम्पा करते हुए ) किसी उत्तम मङ्गलपाठ का निर्देश करें " ।
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( भगवान् बोले - )
२ . " मूर्खों की सेवा न कर ,
पण्डित ( बुद्धिमान् ) एवं पूजनीय पुरुषों की ही सेवा करनी चाहिये -
- यही उत्तम मङ्गल है
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३ . अनुकूल देश में रहना , पूर्वजन्म में किया हुआ पुण्य , तथा किसी भी विषय पर अपना उचित निश्चय करना -
- यही उत्तम मङ्गल हैं । ।
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४ . अतिशय विद्वत्ता , शिल्प ( कला ) , भलीभाँति अभ्यस्त धर्मानु शासन , तथा
मधुर एवं प्रिय वाणी -
- यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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५ . माता - पिता की सेवा ,
बच्चों एवं पत्नी/पति आदि का संरक्षण ,
कुल-विनास के कर्म न करना (निदोष कर्म)-
- यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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६ . दान , धर्माचरण , ज्ञातिजनों ( परिजनों )
का संरक्षण, आजीविका के साधनों को समाप्त न करना (निर्दोष कर्मों की पूर्ति) -
- यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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७ . पापों से दूर रहना , पापों का त्याग करना ,
मद-पान में संयम , आलस/भूल न करना
( धर्माचरण में सदा सावधान रहना)-
- यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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८ . वृद्धों का सम्मान ( गौरव ) , एकान्तवास ,
अपने कृत एवं प्राप्त पर सन्तोष ,
किसी के द्वारा किये उपकार के प्रति कृतज्ञता
प्रकट करना ,
समय पर धर्म-प्रवचन सुनना तथा उसका
अभ्यास करना -
- यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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९ . किसी के द्वारा कृत अपकार (दोष) को
क्षमा करना , सबके सम्मुख विनम्रता ,
समण (बौद्ध-भिक्खु) के दर्शन ,
समय समय पर धर्म का साक्षात्कार करना-
- यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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१० . तपस्या , धर्मसाधना , चार आर्य-सत्यों का
श्रवण , मनन एवं निदिध्यासन , तथा
निर्वाण का साक्षात्कार -
- यही उत्तम मङ्गल हैं ।
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११ . जिस पुरुष का चित्त लोकधर्म ( सुख -
दुःख , यश - अपयश , हानि - लाभ ,
निन्दा प्रशंसा ) से सम्पर्क होने पर भी
कुछ भी विचलित नहीं होता ;
शोकरहित ,
निर्मल एवं आनन्दमय ही रहता है -
- यही उत्तम मङ्गल है ।
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१२ . ऐसे ( उपर्युक्त ) कर्म करने वाले सत्पुरुष
स्वयं को सर्वत्र अपराजित ( विजयी )
अनुभव करते हैं ,
अत : उनका सर्वत्र कल्याण ही होगा ;
क्योंकि उन का यह कर्म भी अपने आप में
उत्तम मङ्गल है " ।
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