🌹वृहद-सिलालेख-08🌹
(चौदह चट्टान लेख-08)
( शाहबाजगढ़ी )
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मूल-लेख (लिप्यांतरण):-
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१ अतिक्रतं अतरं देवनंप्रिय विहर-यत्र नम निक्रमिषु अत्र म्रु गय अञनि च एदिशनि अभिरमनि अभूवसु सो देवनंप्रियो प्रियद्रशि रज दशवषभिसितो सतं
निक्रमि सबोधि
तेनद ध्रुम - यत्र
अत्र इयं होति श्रमण - ब्रमणनं द्रशने दनं वुढनं दशन हिरञ-प्रटिविधने च जनपदस जनस द्रशन ध्रमनुशस्ति ध्रम - परिपरूछ च ततोपयं एषे भुये रति भोति देवनंप्रियस प्रियद्रशिस रञो भगो अंञि
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अनुवाद :-
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अतीत काल में देवनंप्रिय लोग,
🔺विहार-यात्राओं🔺
पर निकलते थे ।
इन यात्राओं में मृगया (शिकार) और इसी
तरह के दूसरे आमोद-प्रमोद होते थे ।
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किंतु देवनंप्रियस प्रियद्रशिस रज (राजा)
अभिषेक के
💐 दस वर्ष बाद संबोधि (बुद्ध-गया) 💐
को गए तब से
🎯 धम्म-यात्राएं 🎯
हुई जिनमें यह होता है :
🔸 स्रमण - ब्रमणनं का दर्शन करना और उन्हें
दान देना ;
🔸 वृद्धजनों का दर्शन और उन्हें सोने का दान
करना ;
🔸 ग्रामवासियों का दर्शन और उन्हें धम्मोपदेस
देना, और
🔸 उनके तद-उपयोगी धम्म की चर्चा करना।
🎯 देवनंप्रियस प्रियद्रशिस की -
🔹 इसमें बड़ी प्रीति है और
🔹 यह उसका अतिरिक्त भाग (लाभ) है ।
- आठवॉ-वृहद-सिलालेख समाप्त -
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टिप्पण : -
🌹इस लेख में सम्राट असोक द्वारा
धम्म-यात्राओं का वर्णन आया है ।
🌹महामंगल-सुत्त का क्रियांवयन सुनिश्चित
करना ही धम्म-यात्रायों का ध्येय था,
यही यह सिलालेख साबित करता है ।
🌹केवल भगवान् तथागत गोतम बुद्ध या
उनसे पूर्व के 27- बुद्ध से संबन्धित स्थलों
पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देना ही,
धम्म-यात्राओं का उद्देश्य नहीं था ।
🌹देखें महामंगल-सुत्त (सुत्तनिपात) ।
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