Friday, 25 October 2019

दीपावली

*दीपदानोत्सव* (दीपावली) *बौद्धिस्ट पर्व पर विशेष लेख...*

1. सही अर्थ में दीपावली को दीपदानोत्सव कहा जाता है । यह एक अतिप्राचीन बौद्धिस्ट पर्व है ।

2. इसकी शुरुआत प्रसिद्द सम्राट अशोक महान ने 258 ईसा पूर्व में की थी ।

3. महामानव तथागत गौतम बुद्ध अपने जीवनकाल में 84000 गाथाएं कहे थे । 

4. सम्राट अशोक महान ने चौरासी हज़ार बुद्ध बचन के प्रतिक के रूप में चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों का निर्माण करवाया था । पाटलिपुत्र का अशोकाराम उन्होंने स्वयं के निर्देशन में बनवाया था ।

5. सभी निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद सम्राट अशोक महान ने कार्तिक अमावश्या को एक भब्य उद्घाटन महोत्सव का आयोजन किया। इस महोत्सव के दिन सारे नगर, द्वार, महल तथा विहारों एवं स्तूपों को दीप माला एवं पुष्प माला से अलंकृत किया गया तथा सम्राज्य के सारे वासी इसे एक पर्व के रूप में हर्सोल्लास के साथ मनाये ।

6. प्रत्येक घरों में स्तूप के मोडल के रूप में आँगन अथवा द्वार पर स्तूप बनाया गया जिसे आज किला, घर कुंडा अथवा घरौंदा कहा जाता है ।

7. इस दिन उपसोथ (भिक्खुओं के सानिध्य में घर अथवा विहार में धम्म कथा सुनना) किया गया, बुद्ध वंदना किया गया तथा भिक्खुओं को कल्याणार्थ दान दिए गए ।

8. इस बौद्धिस्ट पर्व को दिप्दानोत्सव का नाम दिया गया । इसी दिन से प्रत्येक वर्ष यह पर्व मनाये जाने की परंपरा शुरु हुई ।

9. कार्तिक माह वर्षा ऋतू समाप्ति के बाद आता है । इस माह में बरसात के दौरान घर -मोहल्ला में जमा गंदगी, गलियों के कचरे के ढेर, तथा घरों के दीवारों और छतों पर ज़मी फफूंदी, दीवारों पर पानी के रिसाव के कारन बने बदरंग दाग-धब्बे आदि की साफ -सफाई की जाती है । रंग -रोगन किये जाते हैं । इसके बाद एक नई ताजगी का अनुभव होता है । यही कारण है कि अशोक महान ने सभी निर्माणों के उद्घाटन के लिए यह माह चुना था ।

10. प्रथम पक्ष की अमावश्या की रात्रि घनघोर कालिमा समेटे होती है । यह विषमतावादी अज्ञान और अन्धकारयुक्त युग का प्रतिक है । इसी दिन स्तूपों विहारों का उद्घाटन कर नगर में दीप जला कर उजाला किया गया । दीपक की लौ प्रकाश ज्ञान और खुशहाली का प्रतिक है । इस प्रकार कार्तिक प्रथम पक्ष अमावश्य को बुद्ध देशना के प्रेरणा स्रोत नव निर्मित विहारों, स्तूपों का दिप्दानोत्सव के साथ उदघाटन कर अशोक महान ने ब्राह्मणी युग रूपी अंधकार का पलायन और समतामूलक नए युग के आगमन का पुरे जम्बुद्वीप में दुदुम्भी बजा कर स्वागत का सन्देश दिया था ।

11. दिप्दानोत्सव दिवस के दूसरे अथवा तीसरे दिन गोबर्धन पूजा होता है जिसका सम्बन्ध असुर नायक कृष्ण से है । ऋग्वेद में काला असुर कृष्ण और इंद्र के बिच संघर्ष का वर्णन आया है । कृष्ण को देवदमन भी कहते हैं ।

12. गोबर्धन पूजा के एक दिन बाद बैल पूजा (गाय डाढ) होता है । यह सिन्धु घाटी सभ्यता के समय के सांड पूजा की परंपरा की मज़बूत कड़ी है ।

13. लेकीन मौर्य साम्राज्य के पतन और आर्य राज के आगमन के बाद दिप्दानोत्सव पर्व का ब्राह्मणी करण कर दिया गया ।

14- बुद्ध पूजा के स्थान पर काल्पनिक देवी-देवता की पूजा शुरू हो गई । दान के स्थान पर जुंआ प्रारंभ हो गया । शांति की जगह अशांति के प्रतिक पठाखे छूटने लगे । आर्यो के गठजोड़ से धनतेरस के नाम पर भोले-भाले लोगों को लूटने की परंपरा बहाल कर दी गई ।

15- बुद्ध के 84000 देशना को चौरासी लाख योनी का नाम दे दिया गया। इस प्रकार धम्म बंधुओं ! दिप्दानोत्सव का पवित्र बौध पर्व ब्राह्मणी पर्व दीपावली में बदल गया और इसका सम्बन्ध राम -सीता से जोड़ दिया गया ।

*एक विनम्र अपील-*

1. इस बौद्ध पर्व के गौरव को लौटाने के लिए हमें इसे बुद्ध संस्कृति के अनुसार मानना होगा ।

2. बुद्ध वंदना, धम्म वंदना, संघ वंदना, त्रिशरण, पंचशील का घर पर, विहार में सामूहिक पाठ करें। गरीबों, भिक्खुओं को दान दें । साफ श्वेत कपडा पहनें, मीठा भोजन करें, करवाएं, घरों पर पंचशील ध्वज लगायें ।

3. पठाखा न छोडें, जुआ ना खेलें और मांस मदिरा का सेवन से विरत रहे ।

🙏🏻 *भवतु सब्ब मङ्गलं* 🙏🏻

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