'श्राद्धपक्ष में विशेष'
"मनुस्मृति में श्राद्ध विधान"
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★आखिर किसकी तृप्ति? पितरों की या पुरोहितों की? तार्किक व तथ्यपूर्ण लेख.
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★मनुस्मृति के अध्याय तीन में श्लोक संख्या 122 से लेकर श्लोक संख्या 283 तक, यानी 162 श्लोकों में 'पितर श्राद्ध' से संबन्धित कर्मकाण्ड का विधान है। जिनमें ब्राह्मणों को सादर आमंत्रित करके, उनकी पूजा अर्चना के बाद उन्हें जिमाने की व्यवस्था है। जिसमें बताया गया है कि, ब्राह्मणों को क्या-2 खिलाने से, पितरों को कितने-2 समय तक की तृप्ति मिलती है? प्रस्तुत हैं, उन्हीं में से अर्थ सहित कुछ चुने हुए श्लोक...
पित्रणां मासिकं
श्राद्धमन्वाहार्यं विदुर्बुधा।
तच्चामिषेण कर्तव्यं
प्रशस्तेन प्रयत्नतः।।
मनुस्मृति 3/123
भावार्थ- पितरों के मासिक श्राद्ध को, विद्वान 'पिण्डान्वाहार्यक' नामक श्राद्ध कहते हैं। और इसे यत्नपूर्वक उत्तम 'मांस' के द्वारा सम्पन्न करना चाहिए।
पूर्वेद्युरपरेद्युर्वा
श्राद्धकर्मण्युपस्थिते। निमन्त्रयेत त्र्यवरान्
सम्यक् विप्रान् यथोदितान्।।
मनु० 3/187
भावार्थ- श्राद्ध का समय आने पर, पहले दिन अथवा अगले दिन उपरोक्त कथनानुसार कम से कम तीन ब्राह्मणों को अवश्य निमन्त्रण दे।
उपवेश्य तु तान्विप्रान्
आसनेष्वजुगुप्सितान्।
गन्धमाल्यैः सुरभिभिः
अर्चयेत् देवपूर्वकम्।।
मनु० 3/209
भावार्थ- उन अनिन्दित ब्राह्मणों को आसनों पर बिठाकर सुगंधियों से युक्त चन्दन, केशर आदि पदार्थों तथा मालाओं से देवताओं की तरह उनका पूजन करे।
पाणिभ्यां तूपसंगृह्य
स्वयमन्नस्य वर्धितम्।
विप्रान्तिके पित्रन्ध्यायन् शनकैरुपनिक्षिपेत्।।
मनु० 3/224
भावार्थ- अन्न से भरे पात्रों को स्वयं पकड़कर, पितरों का ध्यान करते हुए धीरे से ब्राह्मणों के पास रखे।
भक्ष्यं भोज्यं च विविधं
मूलानि च फलानि च।
ह्रद्यानि चैव मांसानि
पानानि सुरभीणि च।।
मनु० 3/227
भावार्थ- विविध प्रकार के भोज्य पदार्थ, मूल और फल, उत्तम प्रकार के मांस तथा सुगन्धित पेय पदार्थ उनके सामने रखे।
हर्षयेद्ब्राह्मणांस्तुष्टो
भोजयेच्च शनैः शनैः।
अन्नाद्येनासकृच्चैतान्गुणैश्च
परिचोदयेत्।। मनु० 3/233
भावार्थ- हर्ष पूर्वक, ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करते हुए उन्हें खिलावे। खाद्य पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए बार-2 और लेने का आग्रह करे।
👌अब देखिए! किस चतुराई से, जिह्वालिप्सा के साथ इन्द्रियलिप्सा की पूर्ति का भी विधान बनाया...
आमन्त्रितस्तु यः
श्राद्धे वृषल्या सह मोदते।
दातुर्यद्दुष्कृतं किंचित्तत्सर्वं
प्रतिपद्यते।। मनु०- 3/191
अर्थ- और जो ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रित किए जाने पर शूद्र स्त्री के संग रमण करता है तो, दाता का जितना भी पाप है, उस सबको वही प्राप्त करता है।
★इस मन्त्र के मोह में, धर्मभीरु कितने, भोले-भाले लोग, अपने सिर का पाप उतारने के लालच में, अपनी पत्नियों का भी समर्पण कर देते होंगे?
👇क्या खिलाने से कितने दिनों की पितृतृप्ति?
तिलैव्रींहियवैर्मापैरद्भिर्मृलफलेन वा। दत्तेन मासं तृप्यन्ति विधिवत्पितरो नृणाम्।।
मनुस्मृति- 3/267
भावार्थ- तिल, चावल, जौ, उड़द, जल, कन्दमूल अथवा फल विधिवत देने से मनुष्यों के पितर एक महीने तक तृप्त रहते हैं।
द्वौ मासौ मत्स्येनमासेन
त्रीनमासान्हरिणेन तु।
औरभ्रेणाथ चतुरो
शाकुनेनाथ पञ्च वै।।
मनुस्मृति- 3/268
भावार्थ- मछली के मांस से दो महीने, हिरण के मांस से तीन महीने, भेड़ के मांस से चार महीने, तथा पक्षी के मांस से पांच महीने तक पितर तृप्त रहते हैं।
षणमासांश्छागमांसेन
पार्षतेन च सप्त वै।
अष्टावेणस्य मांसेन
रौरवेण नवैव तु।।
मनुस्मृति- 3/269
अर्थात- बकरे के मास से छह महीने, प्रषत (चित्रमृग) के मास से सात महीने, एण (कृष्णमृग) के मास से आठ महीने और रुरु नामक मृग के मास से नौ महीने तक पितरों की तृप्ति होती है।
दशमासांस्तु तृप्यन्ति
वराहमहिषामिषैः।
शशकूर्मयोस्तु मांसेन
मासानेकादशैव तु।।
मनुस्मृति- 3/270
भावार्थ- सुअर और भैंसे के मांस से दस महीने तथा खरगोश और कछुए के मांस से ग्यारह महीने तक पितर तृप्त रहते हैं।
संवत्सरं तु गव्येन
पयसा पायसेन च।
वार्ध्रीणसस्य मांसेन
तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी।।
मनुस्मृति- 3/271
भावार्थ- गौ के दूध व खीर से एक वर्ष तक तथा वार्ध्रीणस (पानी पीते समय जिसके कान पानी में भींगते हों) बकरे के मांस से बारह वर्ष तक पितरों की तृप्ति होती है।
कालशाकं महाशल्काः
खङ्गलोहामिषं मधु।
आनन्त्यायैव कल्पन्ते
मुन्यन्नानि च सर्वशः।।
मनुस्मृति- 3/272
भावार्थ- कांटेदार मछली, गेंडा और लाल वर्ण के बकरे का मांस, मधु तथा सभी तरह के मुनिअन्नों से पितरों को अनन्त काल तक तृप्ति होती है।
★यह सारा विधान तो अन्य वर्णों के लिए है। ब्राह्मणों के लिए तो पितृ तर्पण हेतु अंजुलिभर जल ही पर्याप्त है।
👎यथा-
यदेव तर्पयत्यद्भिः
पित्रृन्स्नात्वा द्विजोत्तमः।
तेनैव कृत्स्नमाप्नोति
पितृयज्ञक्रियाफलम्।।
मनुस्मृति- 3/283
भावार्थ- ब्राह्मण स्नान करके जो जल से पितृतर्पण करता है, उसी से वह नित्य श्राद्धक्रिया का फल पाता है।
★पितरों की तृप्ति के नाम पर, आत्मतृप्ति और मनमानी मौजमस्ती का कितना बढ़िया पाखंडपूर्ण विधान?
हाथ हिले ना पइयाँ।
बैठे ही देइ गुसइयाँ।।
अमानवीय और शोषणकारी इस व्यवस्था को देखकर ही, कदाचित किसी दिलजले की जुबाँ से निकला होगा...
आए कनागत फूले काँस।
वामन ऊले नौ-नौ बाँस।।
भीष्मपाल सिंह यादव(M.A, M.J.)
संस्थापक- "सजग समाज"
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