🌹वृहद-स्तंभ-लेख-4🌹
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मूल-लेख (लिप्यांतरण) -
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१ देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा सडुवीसति - वस -
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२ अभिसितेन मे इयं धंम - लिपि लिखापिता लजूका मे
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६ बहूसुु पान-सत-सहसेसु जनसि आयता तेसं ये अभिहाले वा
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४ दंडे वा अत - पतिये मे कटे किंति लजूका अस्वथ अभीता
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५ कंमानि पवतयेवू जनस जानपदसा हित-सुखं
उपद-हेवू
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६ अनुगहिनेवु चा सुखीयन - दुखीयनं जानिसंति धंम - युतेन च
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७ वियोवदिसंति जनं जानपदं किंति हिदतं च पालतं च
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८ आलाधयेवू ति लजूका पि लघंति पटिचलितवे मं पुलिसानि पि मे
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१ छंदंनानि पटिचलिसंति ते पि च कानि वियोवदिसंति येन मं लजूका
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१० चघंति आलाधयितवे अथा हि पजं वियताये धातिये निसिजितु
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११ अस्वथे होति वियत धाति चघति मे पजं सुखं पलि-हटवे
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१२ हेवं ममा लजूका कटा जानपदस हित -सुखाये येन एते अभीता
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१३ अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतयेवू ति एतेन मे लजूकानं
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१४ अभिहाले व दंडे वा पत - पतिये कटे इछितविये हि एसा किंति
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१५ वियोहाल - समता च सिय दंड - समता चा अव इते पि च मे आवुति
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१६ बंधन - बधानं मुनिसानं तीलित - दंडानं
पंत - वधानं तिंनि दिवसानि मे
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१७ योते दिंने नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं
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१८ नासंतं वा निझपयिता दानं
दाहंति - पालतिकं उपवासं व कछंति
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१९ इछा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाधयेवू ति जनस च
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२० वढति विविधे धंम - चलने संयमे
दान - सविभागे ति
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अनुवाद -
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देवानंपिये पियदसि लाजा ने इस प्रकार कहा : -
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अभिषेक के छब्बीसवें वर्ष में मैंने इस
धम्म-लिपि को लिखवाया ।
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मैंने राजूकों को लाखों प्राणियों के ऊपर रखा है।
अभिहार ( = व्यवहार = कानून ) और
दंड ( न्याय ) ( के प्रशासन )
मैंने उनके अधीन कर दिये हैं ताकि आश्वस्त और निर्भय होकर वे अपने कार्यों का प्रवर्तन करें , जानपद जनों को हित और सुख वितरित करें और अनुग्रह भी बांटें ।
वे सुख और दुःख के कारण जानें।
और धम्मिक जनों की सहायता से जानपद जनों को याद दिलायें कि वे इहलोक और परलोक पा सकते हैं ।
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राजूक भी मेरे आदेशों के पालन के लिए उत्सुक रहते हैं ।
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वे पुरूषों के भी आदेशों का पालन करेंगे जो जानते हैं कि (मेरी) इच्छाएं क्या हैं, वे भी उनको प्रेरित करेंगे ताकि राजूक मुझे प्रसन्न कर सकें ।
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जैसे कोई अपने बच्चे को किसी "चतुर-धाय" को सौंपकर आश्वस्त हो जाता है और सोचता है कि -
"चतुर-धाय मेरे बच्चे को ठीक तरह से रखेगी,"
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इसी तरह मैंने जानपद-जनों के हित और सुख के लिए राजूक बनाये हैं ।
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राजूकों को मैंने व्यवहार और दंड के क्षेत्र में स्वतंत्रता दे दी है ताकि वे निर्भय और आश्वस्त होकर एकचित्त से अपने काम मन लगाकर करें।
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व्यवहार-समता और दंड-समता वांछित है, अत: अब से मेरा आदेश है -
"जो कैद में हैं,
जिनका विचार हो गया है, और
उन्हें मृत्यु-का-दण्ड दिया जा चुका है,
उन्हें मैंने तीन दिन की मोहलत दी है ।
(इस मोहलत की अवधि में) चाहे (उनके रिश्तेदार) उनके जीवन के लिये उन (राजूकों) को अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिए राजी करेंगे या यदि ऐसा कोई नहीं है जो उन्हें राजी करा सके तो वे (कैदी) दान करेंगे ताकि परलोक बने या उपवास करेंगे ।
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क्योंकि मेरी इच्छा है कि (मोहलत की) अवधि बीत जाने पर भी वे परलोक बना सकते हैं, और धम्म और संयम और दान के साथ-साथ लोगों के धम्माचरण में वृद्धि हो सकती है ।
- चतुर्थ-स्तंभ-लेख समाप्त -
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टिप्पण -
राजूक भी एक राजकीय पद था, जैसेकि -
महामात, धम्म-महामात, इथिझग-महामात, इत्यादि थे ।
इस राजादेश में सम्राट असोक ने अपनी शासन-नीति पर प्रकाश डाला है ।
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