Friday, 25 October 2019

शाहबाज गढी

🌹वृहद-सिलालेख-13🌹
           (चौदह चट्टान लेख-13)
                  ( शाहबाजगढ़ी )

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मूल-लेख (लिप्यांतरण):-

१ अठ-वष-अभिसितस देवनप्रिअस प्रिअद्रशिस रञो कलिग विजित
दिअध-मते प्रण-शत-सहस्रे ये ततो अंपवुढे
शत-सहस्र-मत्रे तत्र हते बहु-तवतके व मुटे

२ ततो पच अधुन न लधेषु कलिगेषु तिव्रे ध्रम- शिलन ध्रम-कमत ध्रमनुशस्ति च देवनप्रियस
सो अस्ति अनुसोचन देवनप्रिअस विजिनिति कलिगनि

३ अविजितं हि विजिनमनो यो ततत्र वध व मरणं व अपवहो व जनस तं बढ़ं वेदनिय- मतं
गुरु - मतं च देवनंप्रियस इदं पि चु ततो
गुरु - मततरं देवनंप्रियस ये तत्र

४ वसति ब्रमण व श्रमण व अंञे व प्रषंद ग्रहथ व येसु विहित एष अग्रभूटि-सुश्रुष मत-पितुषु सुश्रुष गुरुन सुश्रु ष मित्र-संस्तुत-सहय-

५ ञतिकेषु दस-भटकनं सम्म-प्रतिपति दृढ़-भतित तेष तत्र भोति अपग र्थो व वढो व अभिरतन व निक्रमणं येष व पि सुविहितनं सिहो अविप्रहिनो ए तेष मित्र-संस्तुत-सहय- ञतिक वसन

६ प्रपुणति तत्र तं पि तेष वो अपघ्रथो भोति प्रतिभगं च एतं सव्र-मनुशनं गुरु-मतं च देवनंप्रियस नस्ति च एकतरे पि प्रषडस्पि न नम प्रसदो सो यमत्रो जनो तद कलिगे हतो च मुटो च अपवुढ च ततो

७ शत - भगे व सहस्र - भगं व अज गुरु - मतं
वो देवनंप्रियस यो पि च अपकरेयति क्षमितविय - मते व देवनंप्रियस यं शको क्षमनये य पि च अटवि देवनंप्रियस विजिते भोति त पि अनुनेति अनुनिजपेति अनुतपे पि च प्रभवे

८ देवनप्रियस वुचति तेष किति अवत्रपेयु न च
हंञेयसु इछति हि देवनंप्रियो सव्र-भूतन अक्षति संयमं समचरियं रभसिये अयि च मुख - मुत विजये देवनंप्रियस यो ध्रम - विजयो सो च पुन लघो देवनंप्रियस इह च सवेषु च अतेषु

९ अ षषु पि योजन-शतेषु यत्र अंतियोको नम योन-रज परं च तेन अतियोकेन चतुरे रजनि तुरमये नम अंतिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निच चोङपंड अव तंबपंणिय एवमेव हिद रज-विषवस्पि योन-कं बोयेषु नभक-नभितिन

१० भोज - पितिनिकेषु अंध्र-पलिदेषु सवत्र देवनंप्रियस ध्रमनुशस्ति अनुवटंति यत्र पि
देवनंप्रियस दुत नो व्रचंति ते पि श्रुतु देवनंप्रियस ध्रम-वुटं विधनं ध्रमनुशस्ति ध्रमं अनुविधियिशं ति च यो स लधे एतकेन भोति सवत्र विजयो सवत्र पुन

११ विजयो प्रिति - रसो सो लष भोति प्रिति
ध्रमं-विजयस्पि लहुक तु खो सो प्रिति परत्रिकमेव मह-फल मेञति देवनंप्रियो एतये च अठये अयि ध्रम-दिपि निपिस्त किति पुत्र पपोत्र मे असू नवं विजयं व विजेतविअ मञिषु
स्पकस्पि यो विजये क्षंति च लहु-दंडित च रोचेतु तं च यो विज मञतु

१२ यो ध्रम - विजयो सो हिदलोकिको परलोकिको सव-चति-रति भोतु य ध्रम-रति
स हि हिदलोकिक परलोकिक

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अनुवाद -

अभिषेक के आठ वर्ष बाद,
देवानंपियस पियदसिनो राजा ने,
कलिंग की विजय की ।
👆
वहॉ,
डेढ़ लाख व्यक्तियों का देशनिकाला हुआ,
एक लाख मारे गए, और
इससे कई गुने (घायल होने से) मरे।

इसके बाद अब जब कि,
कलिंग जीत लिया गया है,
देवानंपियस का,
धम्मानुशासन ,
धम्म-प्रेम और
धम्मोपदेश तीव्र हो गया है ।

कलिंग जीतने पर देवानंपियस को पश्चात्ताप हुआ है ।
क्योंकि जब किसी अविजित देश की विजय की जाती है तो,
लोगों की हत्या ,
मृत्यु और देश - निकाला होता है,

जिससे देवानंपियस को बड़ा दुःख और खेद हुआ है ।
देवानंपियस को इस बात से और भी दुख हुआ कि वहां,
ब्राह्मण ,
श्रमण और
अन्य संप्रदायों के लोग रहते हैं ।

जिनमें वृद्धजनों की सेवा ,
माता - पिता की सेवा ,
आचार्य की सेवा ,
मित्रों , परिचितों , सहायकों और रिस्तेदारों , सेवकों और अाश्रितों के प्रति उचित व्यवहार और भक्तिता पायी जाती है ।
ऐसे लोगों का,
विनाश ,
वध या
प्रियजनों से बलात वियोग होता है ।

या जो लोग स्वयं तो सुरक्षित होते हैं,
पर जिनके मित्र , परिचित , सहायक , या संबंधी विपत्ति में फंस जाते हैं ।
उन्हें भी अत्यन्त स्नेह के कारण बड़ी पीड़ा होती है ।

यह विपत्ति सबके हिस्से में बराबर पड़ती है , पर इससे देवानंपियस को विशेष पीड़ा हुई ।
ऐसा किसी भी देश में कोई स्थान नहीं जहाँ,
इस या उस संप्रदाय को न मानते हों ।

इसलिए,
कलिंग देश की विजय में जितने,
लोग घायल हुए ,
मारे गए या
देश से निष्कासित हुए,
उसके सौवें या हजारवें हिस्से का नाश भी देवानंपियस को बड़े दुःख का कारण होगा ।

यदि कोई देवानंपियस का अपकार करता है,
तो;
यदि यह क्षमा के योग्य हो तो देवानंपियस उसे क्षमा कर देगा ।
देवानंपियस के राज्य में जितने वनवासी लोग हैं वह उन्हें भी अपने विचारों में ढालने की कोशिश करता है ।
उनको कहा जाता है कि पश्चात्ताप में भी देवानंपियस का कितना प्रभाव है कि,
वे (अपने अपराधों के प्रति) लज्जित हों और
मृत्यु-दण्ड से बचे रहें ।

देवानंपियस चाहता है कि सभी प्राणियों के साथ,
अहिंसा,
संयम,
समानता, और
मृदुता का व्यवहार किया जाये।

जो धम्म-विजय है,
देवानंपियस उसे ही सबसे बड़ी विजय मानता है और
देवानंपियस ने यहॉ (अपने राज्य में) और सभी सीमांतवासियों में छह-सो-योजन दूर तक जहॉ 'अंतियोकस' नाम का यवन राजा है और
उस 'अंतियोकस' के भी परे,
'चार राजा' - 
'तालेमी' ,
'अंतिगोनस',
'मगस', और
'अलेक्जेंडर' हैं ; और
उसी प्रकार अपने राज्य के नीचे -
'चोलों,
पाण्डयों, और
ताम्रपर्णी (वर्तमान में श्रीलंका)
तक बार-बार प्राप्त की है ।

इसी प्रकार,
यहॉ राजा के राज्य में -
यवनों और कंबोजों में,
नाभकों और नाभितों में,
पितिनिकों में,
आंध्रों और पुलिंदों में,
सभी जगह लोग,
देवानंपियस के,
धम्मानुशासन का अनुसरण करते हैं ।

जहॉ-जहॉ देवानंपियस के दूत नहीं जाते,
वहॉ-वहॉ भी लोग देवानंपियस का,
धम्माचरण,
धम्म-विधान और
धम्मानुशासन
सुनकर धम्म का पालन करते हैं और करेंगे ।

इस प्रकार सर्वत्र जो विजय हुई है,
वह विजय वास्तव में प्रीति देने वाली है ।
धम्म की विजय में अपार प्रीति होती है,
यह आनन्द तुच्छ हो सकता है,
पर देवानंपियस इसे,
परलोक में महान फलदायी समझता है ।

यह,
धम्म-लिपि,
इसलिए लिखवायी गयी ताकि मेरे,
पुत्र (संताने) ,
प्रपोत्र,
जो भी हों नई विजय करने की न सोचें,

किंतु यदि उन्हें विजयों में रस मिलता ही है तो, वे
क्षमा और
दया से काम लें और  
धम्मविजय को ही विजय समझें ।

उससे इहलोक और परलोक दोनों बनते हैं । त्याग में उनकी रति हो और धम्म में निरति हो । इससे इहलोक और परलोक दोनों सिद्ध होते हैं।

        - तेरहवा-वृहद-सिलालेख समाप्त -

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टिप्पण :
यह विशेष सिलालेख -
जो सम्राट असोक द्वारा,
कलिंग पर विजय के साथ,
धम्म-विजय पर प्रकाश डालता हैं ।

सम्राट असोक से संबन्धित,
बहुत सी,
गलत अवधारणाओं को समाप्त भी करता है -

1. लेख महत्वपूर्ण है क्योंकि इस लेख में 'कलिंग-विजय' करने का उल्लेख है ।

2. लघु-लेख-1 व इस लेख को जानने पर निष्कर्ष निकलता है कि 'सम्राट-असोक' कलिंग युद्ध प्रारंभ करने से पूर्व ही बौद्ध-उपासक बन चुका था ।

3. बौद्ध-उपासक होते हुऐ भी कलिंग विजय करने के बाद, बुद्ध-धम्म को प्रचारित करने के लिये विदेशों में विशेष मिशन भेजे गये ।
🌷
4. सम्राट असोक (274-270-232ई0पू0) -

'अंतियोकस' ,
सम्राट सीरिया, 261-243 ई0पू0 ;

'तालेमी' ,
सम्राट मिश्र, 285-247 ई0पू0 ;

'अंतिगोनस',
सम्राट मैसिडोनिया, 278-239ई0पू0 ;

'मगस',
सम्राट साइरन, 285-258 ई0पू0 ;

और
'अलेक्जेंडर' ,
सम्राट एपिरस, 272-258 ई0पू0 ;
का समकालीन था ।
🎯
5. यह विचार गलत है कि सम्राट असोक विजयदसमी को 'कलिंग-विजय' के उपरांत बौद्ध-उपासक बना, सत्य यह है कि सम्राट अशोक 'कलिंग युद्ध' प्रारंभ करने के पूर्व ही बौद्ध-उपासक था । (लघु-सिलालेख-1 व वृहद-सिलालेख-13 के मिलान से यह निष्कर्ष निकलता है) ।
🎯
6.
🌹लघु-सिलालेख-1🌹-
"अढ़ाई वर्ष से अधिक हुए कि मैं उपासक बना, मैंने पराक्रम (उद्योग) नहीं किया।
पर एक वर्ष-एक वर्ष से कुछ अधिक हुए जब मैं संघ में गया, मैंने खूब पराक्रम किया । "

🌹वृहद-सिलालेख-13🌹-
" अभिषेक के आठ वर्ष बाद देवानंपियस पियदसिनो राजा ने कलिंग की विजय की । "
🎯
7. 🌹वृहद-सिलालेख-13🌹कलिंग में प्राप्त नहीं होता है,
कलिंग में इसके स्थान पर दो विशेष सिलालेख प्राप्त होते हैं, 'कलिंग-सिलालेख-1व2' यह दोनो कलिंग-सिलालेख अन्य किसी स्थान पर प्राप्त नहीं होते हैं ।

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