🌹🌹दिवाली यह जैनों का त्यौहार है🌹🌹
२०१९ के वर्ष, फिर से मुझे कई लोगों के फोन और मेसेज आये कि आपका दिवाली वाला मेसेज फॉरवर्ड करो ताकि वे सच्चे इतिहास से लोगों को अवगत करा सके और दिवाली यह बौद्धों का त्यौहार नहीं है और बौद्धों ने दिवाली नहीं मनाना चाहिए इसका प्रचार कर सके. (वास्तव में मै दिवाली के विषय को लेकर एक पुस्तक लिखने की ठानी है. और उसके लिए कई संदर्भो और किताबों में खोजबीन कर रहा हूँ. लेकिन मै एक नौकरी पेशा व्यक्ति हूँ. अन्य सभी विभागों की तरह ही मेरा कार्यालय भी ब्राह्मणों द्वारा संचालित है. और वे मेरी गतिविधियों से पूरी तरह से अवगत है. उन्होंने मुझे पूरी तरह से कई विभागों का कार्य देकर जकड़ कर रखा है. इसलिए वक्त रहते इस विषय पर पुस्तक अवश्य लिखी जायगी).
खैर, कुछ संशोधन इस तरह हाथ लगा है कि यह अब निसंदेह कहा जा सकता है, *"दिवाली के दिन दीप जलाने का त्यौहार यह जैनों का त्यौहार है"*.
पिछले वर्ष के लेख में मैंने यह कहा था कि बौद्धों ने भी दिवाली मनाना चाहिए लेकिन एक विशिष्ट तरीके से. इस बात को और दोहराते हुए मै कहना चाहता हूँ कि बौद्ध या आम्बेडकारी लोग कार्तिक अमावस्या (दक्षिणी भारत के कलेंडर के अनुसार अश्विन अमावस्या) को अपने नजदीकी प्राचीन बौद्ध स्थल जैसे कि, लेणी, शिलालेख, स्तंभ, गुफा, स्तूप, इत्यादि प्राचीन अवशेषों पर *शुभ्र वस्त्र* परिधान कर जाये और वहां दीपक जलाकर उस स्थल पर अपना अस्तित्व प्रस्थापित करें. वहां जाकर सारी बुद्ध गाथाओं का पठन करें, ताकि बड़ी देर तक वहां रह सके. गीत, नृत्य का आयोजन करे.
वैसे केवल दिवाली वाली रात्रि को ही क्यों ? , साल की सारी अमावस्या को (केवल १२ होती है साल के ३६५ दिनों में से) वहां जा कर बौद्ध अस्तित्व निर्माण करे.
कुछ लोग प्रचार कर रहे है कि दिवाली बौद्धों का त्योंहार है. उन्होंने उसे बड़ा ही उमदा सा नाम दिया है -"दीपदानोत्सव". मेरे अल्प अभ्यास में किसी बौद्ध साहित्य में इस तरह का नाम नहीं मिला. नाही मेरे अल्प अभ्यास से यह साबित हो पाया कि दिवाली यह बौध्दों का त्यौहार है. कुछ लोगों ने जोड़ जाड कर गलत संदर्भो के आधार पर दिवाली को बौद्धों पर थोपने का प्रयास किया है. मैंने जो अभ्यास किया उससे इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि बौद्धों ने दिवाली को एक विशिष्ट बौद्ध स्वरुप में मनाना चाहिए.
......... नीचे दिये विवरण से स्पष्ट होगा कि कुछ लेखकों और विद्वानों द्वारा दिया गया दिवाली का दावा पुर्णतः गलत और बेबुनियाद है -
(१) यदि दीपदानोत्सव का त्यौहार अशोक ने शुरू किया होता या बौद्ध परम्पराओं में अस्तित्व में होता तो वह भारत के बाहर बौद्ध देशों में जैसे श्रीलंका, चाइना, जापान, इंडोनेशिया आदि में आज भी पाया जाता, लेकिन ऐसा नहीं है. (परन्तु थाईलैंड में ब्राहमणों की घुसपैठ के कारण वहां कुछ गिने चुने विहारों में ही गणपति और लक्ष्मी की मूर्ति भी बनाई गयी है और दिवाली भी मनाई जाने लगी है). .............. विशेष यह है कि उन देशों ने अशोक जयंती और सभी पूर्णिमा उत्सव मनाये जाने की सत्यता को स्वीकार किया लेकिन उसी के साथ ही ऐसे किसी उत्सव को मनाये जाने की बात को नकारा है. तथापि विजयादशमी और सारी पोर्णिमाये, अमावस्यये, अष्टमी, चतुर्थी सारे बौद्ध देशों में मनाए जाते है. और इन सारे तिथियों पर बड़ी संख्या में दिप जलाये जाते है. भारत के तिब्बतन बौद्ध विहारों में यह देखने को मिलेगा. अचरज तो तब होता है कि अशोक ने बौद्ध धर्म की सारी घटनाओं की तिथिओं का उल्लेख किया है लेकिन जिसने ८४००० हजार स्तूप सारी दुनिया में बनवाये, उसने उनपर दिए जलाने का आदेश भी दिया, वह अशोक उस दिन की तिथि का उल्लेख करना कैसे भूल गया. ऐसा हो ही नहीं सकता. ८४००० स्तूपों का निर्माण अशोक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सपना या उद्देश था. अगर उसने वहां पर किसी विशिष्ट दिन दिए जलाने का आदेश दिया होता तो उसने उसका उल्लेख किसी ना किसी शिलालेख में अवश्य करवाया होता. जैसे की सातवे स्तंभ के शिलालेख पर हर पोर्णिमा, अमावस्या को पवित्र मानने के आदेश का उल्लेख है. पाकिस्तान में स्थित शाहबाज गढ़ी के स्तूप के शिलालेख पर धम्मविजय दिवस का उल्लेख है.
(२) दिपदानोत्सव के विषय पर जिन्होंने किताब लिखी है उन लेखकों से मैंने खुद बात करके अश्विन या कार्तिक अमावस्या को उत्सव मनाये जाने के सबूत माँगे, तब उनहोंने स्वीकार किया कि कही पर भी ऐसा उल्लेख नहीं है.
(३) मेरे पास अशोकवदान के दो संस्करण है, लेकिन उसमें भी कही पर भी अशोक ने अश्विन अथवा कार्तिक अमावस्या को ऐसे किसी उत्सव को मनाने की बात अंकित नहीं है ................. और यह सब जानते है कि अशोक ने अपने हर आदेश को शिलालेखों ने स्वरुप में लिख रखा है. ........... तब उसने इतने महत्वपूर्ण उत्सव की बात कैसे छोड़ दी.
(४) कई लोगों ने भावनावश दिवाली के मजबूत समर्थन में वाराणसी के एक बौद्ध विद्वान की पोस्ट सब जगह फॉरवर्ड की है. वाराणसी के विद्वान द्वारा दिए गए सभी उद्धरण झूठ और गलत है, केवल एक ही सच के कि, सम्राट अशोक ने ८४००० स्तूप बनवाये थे और वहाँ दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था. उनके पोस्ट में वर्णित झूठ इस प्रकार है -
- राजा हर्षवर्धन लिखित 'नागानंद' में कही पर भी दिपदानोत्सव आश्विन या कार्तिक अमावस्या को ऐसे किसी उत्सव को मनाये जाना का लिखा नहीं है.
- दीपवंश, महावंश में भी कही पर भी अश्विन या कार्तिक अमावस्या को दीपदानोत्सव (दिवाली) मनाये जाने का उल्लेख नहीं है.
- साथ ही उनके द्वारा वर्णित यह भी झूठ है कि भगवान् बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति के बाद पहली बार जब कपिलवस्तु आये थे वह दिन अश्विन अमावस्या का था ......... जब कि सामान्य से सामान्य बौद्ध उपासक भी जानता है कि भगवान् बुद्ध 'फाल्गुन पूर्णिमा' (होली वाला दिन) को पहली बार कपिलवस्तु आये थे (इस विद्वान का होली को किस तरह मनाने का कोई सुझाव नहीं है. जबकि इस पावन पोर्णिमा के उपलक्ष में बौद्धों को होली न खलते हुए, बुध्द-धम्म-संघ इस त्रिरत्नो को वंदन करने का बहुत सुंदर ऐसा कार्यक्रम कई सालों से अब बौद्धों द्वारा पुरे भारत में चलाया जा रहा है).
(५) अतएव, ....... मै अपने सर्वप्रथम विचार का पुनः उल्लेख करना चाहूँगा कि अगर आप दीपदानोत्सव मनाना चाहते हो, तो जैसे कि इन सभी लेखकों ने स्पष्टरूप से लिखा है की अशोक ने स्तूपों पर दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था (जिस तथ्य को मै भी स्वीकार करता हूँ) ............ उस तथ्य को मान कर हम लोगों ने अपने शहर गाँव के समीप के बुद्ध स्तूप, शिलालेख, अशोक कालीन प्राचीन विहार, अशोक स्तंभ या बौद्ध लेणी (बौद्ध गुफा) पर अश्विन अथवा कार्तिक अमावस्या को ५ दिन जाकर बुद्ध वंदना के साथ दीपप्रज्वलित या दीप-अर्पित करने चाहिए ........... (अपनी बस्ती या घर या बस्ती के विहार में दीपदानोत्सव ना करे). कूछ लोगों ने अपनी बस्ती में दिए हाथ में लेकर जुलुस निकालना चालू किया है, वह भी एक अनुचित प्रकार होगा क्योंकि वह ब्राहमणों के समरसता अभियान का ही एक भाग होगा. और इससे बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म का ही एक अंग प्रदर्शित होगा.
(६) दिवाली के दिन पंचशील ध्वज और दिए हाथ में लेकर जुलुस निकालने की प्रक्रिया बड़ी ही बचकानी प्रतीत होती है. देखने वाले हिन्दू लोग तो इन बौद्धों की इस हरकत पर मन ही मन हँसते होंगे और आपस में ऐसे बौद्धों की खिल्ली उड़ाते होगे. वे अवश्य सोचते होंगे ये दलित लोग या बौद्ध लोग आज तक फटाके फोड़कर दिवाली मनाते थे, लेकिन अब बौद्ध बन जाने के बाद अपने मन के दिवाली मनाने की इच्छा को दबाने के लिए (और साथ में भारत के महत्वपूर्ण त्यौहार का विरोध करने के लिए) ऐसे उटपटांग हाथ में ध्वज और दिए लेकर रास्ते पर चल रहे है.
जुलुस निकालने की इस प्रक्रिया के बारे में विशेष् रूप से ध्यान देने योग्य बात यह है कि भले ही बौद्ध लोग जुलुस निकालकर ब्राह्मणी दिवाली का विरोध प्रदर्शन करने का प्रयत्न करते हो, मात्र वास्तव में इस प्रक्रिया द्वारा इस त्यौहार का विरोध ना होकर, दिवाली त्यौहार को समरस बनाने की प्रक्रिया है, जो बेहद घातक ही है. इसे समझना जरूरी है.
(७) सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, कोई भी सामाजिक क्रांति प्रस्थापित व्यवस्था को विरोध की भावना या प्रक्रिया के द्वारा ही संपन्न होती है. ......... अर्थात कोई भी परिवर्तन समरसता या मिलावट के विचार या मिलावटी संस्कृति द्वारा संपन्न नहीं होता. .............. इसलिए हमारे लोग यदि दिवाली को किसी अन्य तरीके से मनाने का प्रयास करे तो हिंदुओं द्वारा यह कहा जायेगा कि 'हम लक्ष्मी की पूजा करते है, तो उसके बजाय ये लोग बुद्ध की पूजा करते है'. ................. और इसप्रकार से बाबासाहब को अपेक्षित किसी भी सामाजिक परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती. (बाबासाहब भी अगर चाहते तो सावरकर की बात मानकर हिन्दू धर्म में थोड़े बहुत सुधार मानकर हिन्दू धर्म को ही अपनाए रख सकते थे लेकिन उन्होंने हिन्दू धर्म को पूरी तरह से त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाया है).
(८) अभी हम लोगों ने होली के त्यौहार के विरोध में, अपने लोगों द्वारा नजदीकी प्राचीन स्तूप, लेणी, अशोक स्तंभ, शिलालेख, मूर्ति पर जाकर दिनभर धम्म संगोष्टी करना शुरू किया है. क्योंकि बौद्धों ने होली नहीं मनाना है. लेकिन हम अगर अपनी बस्ती या घर में रहे तो कोई ना कोई आकर रंग लगाकर जायेगा ही और इस तरह आप होली खेल ही लोगे. बच्चों को तो रोका ही नहीं जा सकता. वास्तव में होली के दिन फाल्गुन पोर्णिमा होती है. और बौद्ध धम्म की सबसे पवित्र और प्राचीन परंपरा के अनुसार हर पोर्णिमा को नजदीकी बुद्ध स्तूप, लेणी पर जाकर बुद्ध वंदना अर्पण करना बौद्धों का कर्तव्य है. इसलिए अब बौद्धों ने होली के दिन इस परंपरा को निभाकर होली नहीं खेलने का अपना कर्तव्य पूरा करना शुरू किया है. इससे होली ना खेलने का संस्कार तो निभाया जाता है, साथ ही बौद्ध धर्म का एक नया अस्तित्व निर्माण होता है. और विरोध का कार्य भी संपन्न होता है.
(९) दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ हिन्दू कैलेन्डर में दिवाली 'कार्तिक अमावस्या' को दर्शाई जाती है तो कुछ हिन्दू कैलेन्डर में 'अश्विन अमावस्या' को. वास्तव में मध्य और दक्षिणी भारत में 'विक्रम संवत' के हिसाब से कैलेन्डर तयार किये जाते है तो उत्तरी भारत में 'शक संवत' के हिसाब से. इसलिए उत्तरी भारत के कैलेन्डर में दिवाली कार्तिक अमावस्या को दर्शाई जाती है तो दक्षिणी भारत के कैलेन्डर में वह अश्विन अमावस्या को. कुछ भाग में तो पूरा संभ्रम है. इतना ही नहीं तो दिवाली के अंत में एक देव दिवाली भी मनाई जाती है जो उत्तरी भारत के कैलेन्डर में कार्तिक माह के अंत में तो अन्य भाग विशेषत महाराष्ट्र कैलेन्डर में मार्गशीर्ष महीने के प्रतिपदा को मनाई जाती है. इसतरह विक्रम संवत और शक संवत में १३५ साल का अंतर है. शक संवत बौध्द शक राजा कनिष्क ने शुरू किया था तो विक्रम संवत वैदिक राजा विक्रमादित्य ने. इसतरह तिथियों में भी संभ्रम है और राम के वापस आने के दिन में भी. तो फिर कौनसी तिथि को हिन्दू अर्थात ब्राह्मणों के गुलाम पवित्र मानते है, यह वे खुद भी नहीं जानते ?
(१०) इत्सिंग, हुएन त्सांग और फाहियान इन चीनी बौद्धों की विश्व (या भारत यात्रा) और साथ ही बानाभट्ट का हर्षचरित और हर्षवर्धन का नागानंद का जो अध्ययन कर पाया हूँ, उससे यह तो साबित हो जाता है कि दिवाली नाम का उत्सव सम्राट हर्षवर्धन के काल तक अस्तित्व में नहीं था. अगर सम्राट अशोक ने दीपावली या दिवाली (आज का नया नाम दिपदानोत्सव) की शुरुवात की होती तो अंतिम चीनी यात्री हुएन त्सांग की भारत यात्रा के काल तक इस उत्सव ने विशाल रूप धारण कर लिया होता और उसके 'भारत यात्रा वर्णन' में उसका उल्लेख अवश्य आया होता. अर्थात इसवी सन ७०० के काल तक दिवाली उत्सव का कहीं पर भी अस्तित्व नहीं था. जबकि चैत्र शुक्ल अष्टमी अर्थात सम्राट अशोक की जयंती, पोर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी, चतुर्थी इनका उल्लेख है.
(१०) इस बात का मै पूर्ण समर्थन करता हूँ कि बौद्ध अर्थात मूल भारतीय उत्सवों का विकृतिकरण ब्राह्मणों ने किया था, लेकिन इसका यह मतलब नही होता कि उस त्यौहार का विरोध करने के लिए हम कोई विकृत नयी परम्परा शुरू करे. जैसे कि कुछ लोग दिवाली के दिन सफ़ेद कपड़े पहनकर, हाथ में पंचशील ध्वज और दिए लेकर, बुद्धं शरणं का घोष करते हुए रास्तों पर जुलुस निकालते है. कुछ लोग अपने घर के पास के विहार में जाकर वंदना या ध्यान विपस्सना करते है. वे तर्क देते है कि हमारे विहार भी तो लेणी ही है. अब इन्हें कौन समझाए कि भाई आपके पास अपने प्राचीन स्थलों को भेट देने का कोई प्रोग्राम है भी या नहीं. विहार में तो पुरे साल भर जाते ही रहते है. साल में एक या दो बार तो अपने प्राचीन स्थलों पर भी भेंट देना चाहिए या नहीं. वैसे भी "हर रविवार को बुद्ध विहार में जाकर बुद्ध वंदना करने के" बाबासाहब के अंतिम आदेश का पालन भी हमारे लोग कहाँ करते है. मुझे बड़ा ही आश्चर्य होता है बौद्धों के आलस और उदासीनता को देखकर. बौद्ध लोगों की यह उदासीनता हमें निराश करती है.
(११) पुरातात्विक तथ्य: बौद्ध स्तूप और लेणी में अंकित कलाकृतियों पर कही पर भी दिए जलते हुए नहीं दिखते है. दिए जलाने की प्रथा तिब्बत, थाईलैंड और श्रीलंका आदि बौद्ध देशों में है. या फिर संभवतया दिए जलाकर वातावरण को सम्मोहित पूर्ण बनाने की प्रथा विश्व के हर प्रदेश में होगी. (जलती हुई अग्नि एक सम्मोहन पूर्ण वातावरण निर्माण करती है, इसे कृपया समझे. जलता हुआ दीपक एक मन्त्रमुग्ध, या सम्मोहन पूर्ण या ध्यानपूर्ण वातावरण निर्माण करता है). पारसी लोग तो केवल अग्नि की ही पूजा करते है. उनके पूजा स्थल या मंदिरों को 'अग्यारी मंदिर' कहा जाता है. ब्राहमण लोग पारसी लोगों के देश अर्थात पर्शिया से संबंधित होने से वे भी अग्नि की ही पूजा करते है, जिसे आज हवन कहा जाता है.
(१२) किसी उपासक ने मुझे इस बारे में पूछा कि, एक पुस्तक प्रकाशक ने अपने ही प्रकाशन की पुस्तक में ऐसा छपवा दिया कि 'सम्राट अशोक ने कार्तिक अमावस्या को सारे स्तूपों पर दिए प्रज्ज्वलित करने का आदेश दिया था'. उन्होंने उसका विडिओ भी बनाया है. मुझे लगता है, इस बात को ज्यादा महत्व देने की आवश्यकता नहीं है.
(१३) इस दिन क्या करे ?- खैर, दिवाली का हमें विरोध तो करना है, लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि हमारी क्रिया हास्यापद ना लगे. हमारा सुझाव यह है कि इस दिन या इन दिनों में छुट्टिया होती है. हम लोग इन दिनों में बुद्ध लेणी और स्तूप पर सामूहिक यात्रा का आयोजन करे. वैसे भी हम दिवाली या दीपावली को लेकर सम्राट अशोक और बुद्ध स्तूपों को याद करते है, तो फिर क्यों ना हम प्रतिवर्ष अपने गाँव या शहर के समीप स्थित बुद्ध स्तूपों और लेणियों को भेंट देकर वहां जाकर दिप जलाकर बुद्ध वंदना अर्पण करने की सबसे पवित्र परम्परा का निर्वाह करे. इस तरह हमारे बच्चों को भारत के वैभवशाली बौद्ध इतिहास का परिचय होगा और साथ ही बौद्ध धरोहरों का संगोपन भी. जैनों में जिसतरह से उनके प्राचीन स्थलों पर भेंट और पूजा पाठ का प्रयोजन होता है. उसीतरह से हम लोग भी दिवाली की छुट्टियों का उपयोग अपने प्राचीन बुद्ध स्तूपों को भेंट देने के लिए करे. भारत के हर राज्य में प्राचीन वैभवशाली बौद्ध स्तूप और लेणीयाँ है. इससे बौद्दों का बौद्ध स्थलों पर आवागमन बढेगा और बौद्ध लोगों का उन जगहों पर अस्तित्व भी. आवागमन यह एक आंदोलन (पेंडुलम के क्रियाशील रहने की प्रक्रिया) का भाग है. इस आवागमन के आंदोलन का ही उपयोग हिन्दू और जैन धर्म में बखूभी निभाया जाता है. हमें भी आवागमन के आंदोलन को समझना होगा और अपने प्राचीन स्थलों पर *सामूहिक सैर* का आयोजन करना चाहिए. मुबई के आसपास के जैन पुणे के पास की एक 'पाबल' नामक जगह पर जाते है. जैनों में प्रति माह इस तरह की सैर का आयोजन होता है, जो मुफ्त होती है. प्रति माह की इस सैर का आयोजन दो-पांच लोगों का गुट आयोजित करता है. इसके लिए वे अमीर लोगों से दान लेते है. हम बौद्धों में भले ही इसप्रकार का दान मिलना कठिन है लेकिन कुछ प्रयास किये जा सकते है.
(१४) कुछ लोगों का कहना है कि बौद्धों में कोई रंगी बिरंगी कपडे पहनकर उत्सव मनाने का कोई त्यौहार है या नहीं, ताकि उस दिन के निमित्त नए कपड़े सिलवाये जाए. जिसतरह मुसलमानों के ईद के समय सारे दर्जी, मुसलमानों के लिए नये कपड़े सिलने में व्यस्त होते है और दिवाली के समय सारे दर्जी हिन्दुओं के कपडे सिलने में व्यस्त होते है. कपड़ों के दुकानदारों के लिए यह बड़े धंदे का मौसम होता है. तो क्या इसीतरह बौद्धों के किसी त्यौहार पर भी दर्जी व्यस्त नहीं पाए जा सकते ?
हमें लगता है, अवश्य होना चाहिए. हमारे लिए बुद्ध पूर्णिमा और अशोक जयंती का वक्त ऐसा हो सकता है, जब हम नए कपडे सिलवाये. बाबासाहेब की जयंती का दिन भी इसमें शामिल किया जा सकता है. अप्रैल महिना तो भारतियों के लिए बड़ा ही पावन है, इस महीने में महात्मा फुले, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर और सम्राट अशोक की जयंती आसपास ही होती है. इस समय हम नए कपडे सिलवा सकते है. अपने पड़ोसियों में मिठाई बाँट सकते है. घर में रोशनाई कर सकते है. मित्रों को आमंत्रित कर सकते है.
(१५) राम और रामायण एक काल्पनिक वस्तु है ये सभी जानते है. कुछ नहीं तो आम्बेडकारी जनता तो पूरे विश्वास के साथ इस तथ्य को कई दशकों पहले से जानती है. इसलिए दिवाली उत्सव किस तरह से राम या रामायण से समबन्धित नहीं है, इसे अलग से समझने की जरुरत ही नहीं है. चाहे हम, वाल्मीकि रामायण में कार्तिकी अमावस्या का उल्लेख ही नहीं है, या तुलसी रामायण में दो विभिन्न तिथियों का उल्लेख है, इस व्यर्थ की बहस ही चर्चा करे, यह विषय पूरी तरह से नदारद है.
*लेकिन, दिवाली राम से या हिन्दू धर्म से ताल्लुक नहीं रखती, इसलिए दिवाली बौद्ध धर्म से संबंधित है, इस निष्कर्ष पर पहुँचना, उतावलापन होगा.*
(१६) कम से कम बौद्ध लोगों में तो इस उत्सव का अस्तित्व नहीं था.
लेकिन यह उत्सव भारत में जैनों में अवश्य मनाया जाता था और अभी भी है. जैनों में इस दिन का अनन्य साधारण महत्व है. वे इस दिन को बड़ी ही सिद्धत से मनाते है क्योंकि जैन धर्म में इस त्यौहार का ऐतिहासिक कारण है. इस दिन भगवान् महावीर का परिनिर्वाण हुआ था. वे इस दिन को दिए जलाकर ही मनाते थे. इसके काफी सबूत इन्टरनेट पर विद्यमान है. (इस विषय को और गहराई से खोजबीन करने के लिए जैनों के ग्रंथ पढना जरुरी है. जैनों के ग्रंथ इतिहास की काफी जानकारी देते है.) जैनों की संख्या सम्राट अशोक के काल के बाद से ही अल्प मात्रा में होने से इस उत्सव का अस्तित्व भी नगण्य होना चाहिए. लेकिन जब ब्राह्मण तुलसीदास गोस्वामी में १६वी सदी में 'रामचरित मानस' लिखी तो इस उत्सव को उसने राम की कहानी से जोड़ दिया. भले ही जैन अल्प संख्या में थे, लेकिन दक्षिण भारत में उनका प्रमाण ज्यादा था. इसलिए आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक राज्यों में जैनों के प्राचीन मंदिर (और गुफाएं) भी पाई जाती है, जिन्हें वैदिक स्थलों में परिवर्तित कर दिया गया था. दक्षिण प्रदेश में ५०००० जैन मुनियों की हत्या वैदिकों ने की थी, ऐसा उल्लेख मिलता है. जैनों में दीप जलाने का बड़ा महत्व है. इसलिए दक्षिणी मंदिरों में उत्सवों के समय बड़े पैमाने पर दीप जलाए जाते है. भगवान महावीर के परिनिर्वाण के उपलक्ष में, कार्तिक अमावस्या के दिन पुरे दक्षिण प्रदेश में और जैन धर्म से जुड़े कुछ उत्तरी भारत के इलाकों में बड़े पैमाने पर दिए जलाए जाते होंगे. जैन मंदिरों और लेणियों को तो ब्राहमणों ने हथिया लिया था पर इस उत्सव को ब्राहमनी जामा पहनाने के लिए ब्राहमणों को इतिहास में भी तबदीली करना जरुरी हो गया था. इसलिए कार्तिक अमावस्या (या अश्विन अमावस्या) को राम की कहानी से तुलसीदास गोस्वामी ने अपनी रामायण में निर्णायक स्वरुप दे दिया.
(जिस प्रकार व्यंकटेश स्वामी, तिरुपति का मंदिर यह बौध मंदिर है, ऐसा कुछ बौद्ध इतिहासकारों ने लिखा, उसीप्रकार जैन धर्मियों ने तो सुप्रीम कोर्ट में केस डालकर यह सिद्ध करवाया कि वह एक जैन मंदिर है. यहाँ यह बताना अनुचित नहीं होगा कि कुछ प्रसिद्द इतिहासकार भी भगवान बुद्ध और भगवान् महावीर की मूर्ति में धोखा खा जाते है. प्राचीन शिल्प कला का अभ्यास करना बहुत महत्वपूर्ण है. उसीप्रकार कर्नाटक राज्य की सीमा से लगे हुए कोल्हापुर शहर का महालक्ष्मी का मंदिर भी मुख्यतः एक जैन मंदिर है. कर्नाटक राज्य एतिहासिक दृष्टी से जैनों का बहुत महत्वपूर्ण केंद्र था क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यहाँ जैन धर्म अपनाकर दक्षिण भारत में बड़े पैमाने पर जैन मंदिर और मुर्तिया बनवाये थे.)
समार्ट हर्षवर्धन की हत्या के बाद, शंकराचार्य द्वारा बौद्ध भिक्कुओं की हत्या का सिलसला चल पड़ा तब बड़े पैमाने पर बौद्ध लोग वैदिक/ब्राहमनी धर्म अर्थात हिन्दू धर्म में शामिल हो गये और वे आज के ओबिसी कहलाये. जो हिन्दू धर्म में शामिल नहीं हुए वे एससी, एसटी या अछूत हो गए. लेकिन सब तरफ ब्राह्मणों का बोलबाला होने से बौद्धों और जैनियों के त्योहारों को ब्राहमनी अर्थात हिन्दू धर्म में तब्दील कर दिया गया.
(१७) लक्ष्मी की पूजा का कारण : जैन धर्म में निर्वाण या मोक्ष को लक्ष्मी माना जाता है. सभी धर्मो के मंदिरों के प्रवेश द्वार पर लक्ष्मी की मूर्ति होती है. शिल्पकारों ने बुद्ध लेनी और स्तूपों पर भी इस लक्ष्मी का शिल्प बनाया है, जहाँ खडी या बैठी स्त्री के शीर्ष पर दोनों तरफ से दो हाथी जल का कुंभ उंडेलते हुए दीखते है या फिर अपनी सुंड से पानी डालकर अभिषेक करते हुए दर्शाए जाते है. प्राचीन बौद्ध स्थलों में कई जगह पर यह शिल्प है और इसका संबंध महामाया से है, जो कि बुद्ध जन्म से संबंधित है. लेकिन इस शिल्प को जैन और हिन्दुओं के मंदिरों पर भी पाया जाता है. हिन्दुओं के मंदिर तो गुप्त काल में अर्थात सम्राट अशोक के ४००-५०० साल बाद बनाना चालू हुए थे लेकिन जैनो के मंदिर सम्राट अशोक काल के तुरंत बाद बने हुए पाए जाते है. जैन लोग जब निर्वाण को ही लक्ष्मी समझते है, तब वे लक्ष्मी के इस शिल्प की भी पूजा करते है. महावीर की माता त्रिशला के १४ सपनों (कुछ जगहों पर १६ दिव्य सपनों का उल्लेख है) में लक्ष्मी का स्वप्न उल्लेखित है. दिवाली की अमावस्या के बाद के दिन अर्थात प्रतिपदा को जैन व्यापारी लोग अपना नया साल मानते है और इस दिन से अपने हिसाब किताब की नई किताब लेकर उसकी पूजा करते है और नया बहीखाता चालू करते है. जैनों का दिवाली के दिनों से काफी गहरा संबंध पाया जाया है जो वास्तविक है.
(१६) शुरुवात में जैनों के यह त्यौहार दीप जलाने और पूजा तक सिमित होगा लेकिन ब्राहमण तुलसीदास द्वारा लिखे रामायण के आधार पर धीरे धीरे पटाखे उड़ाने की प्रथा शुरू हो गई होगी.
आखिर, दिवाली के दिन दीप जलाने का त्यौहार यह जैनों का है, इसपर अब कोई शंका नहीं है. इसलिए बौद्ध जन इस विषय पर विवेकपूर्ण निर्णय ले, यह अपेक्षित है.
साथ ही पढ़े-
(१) पुस्तक- "बौद्ध व्यक्ति की परिभाषा"
(२) http://www.ashokajayanti.blogspot.in
(३) http://www.mahashivratri-buddhist-festival.blogspot.in
नमो बुद्धाय .... जयभीम🌹🙏🙏
डॉ परम आनंद- 8805460999
(कृपया ग्रुप में ऐड *ना* करें )
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