Friday, 25 October 2019

उदुम्बरिकसीहनाद-सुत्त (३।२)

🌹दीघ-निकाय🌹
   🍁25. उदुम्बरिकसीहनाद-सुत्त (३।२)🍁

१—न्यग्रोध द्वारा बुद्ध की निन्दा ।
२—अशुद्ध तपस्या ।
३—शुद्ध तपस्या ।
४—वास्तविक तपस्या—चार भावनायें । ५—न्यग्रोध का पश्चात्ताप ।
६—बुद्ध-धर्म से लाभ इसी शरीर में ।


ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् राजगह के गृध्र-कूट पर्वत पर विहार करते थे । उस समय न्यग्रोध परिब्राजक तीन हजार परिब्राजकों की बळी मण्डली के साथ उदुम्बरिका (नामक) परिब्राजक-आराम मे वास करता था।

१—न्यग्रोध द्वारा बुद्ध की निन्दा

तब सन्धान गहपति दोपहर को (=दिन ही दिन) भगवान् के दर्शन के लिये राजगह से निकला । तब सन्धान गहपति के मन मे यह हुआ— भगवान् के दर्शन के लिये यह ठीक समय नही है, भगवान् समाधि मे बैठे है । दूसरे भिक्खु जो ध्यान कर रहे है उनसे भी मिलने का यह ठीक समय नही है । सभी भिक्खु ध्यान मे बैठे है । अतः, मैं जहाँ उदुम्बरिका परिब्राजक-आराम है, और जहॉ न्यग्रोध परिब्राजक है, वहॉ चलूँ ।
तब सन्धान गहपति जहॉ उदुम्बरिका परिब्राजिक - आराम था और जहॉ न्यग्रोध परिब्राजक था, वहॉ गया ।
उस समय न्यग्रोध परिब्राजक,
राज-कथा,
चोर-कथा,
माहात्म्य-कथा,
सेना-कथा,
भय-कथा,
युद्ध-कथा,
अन्न-कथा,
पान-कथा,
वस्त्र-कथा,
शयन-कथा,
गंध-कथा,
माला-कथा,
ज्ञाति (=कुल)-कथा,
यान(=युद्धयात्रा)-कथा,
निगम-कथा,
नगर-कथा,
जनपद-कथा,
स्त्री-कथा,
शुर-कथा,
विशिखा (=चौरस्ता) कथा,
कुम्भस्थान (=पनघट)-कथा,
पूर्वप्रेत (=पहले मरों की)-कथा,
नानात्त्व-कथा,
लोक-अख्यायिका,
समुद्र-अख्यायिका,
इति-भवाभव (=ऐसा हुआ, ऐसा नही हुआ)-कथा
आदि निरर्थक कथा कहती,
नाद करती,
शोर मचाती,
तीन हजार परिब्राजकों की बळी भारी परिब्राजक-परिषद् के साथ बैठा था ।
न्यग्रोध परिब्राजक ने सन्धान गहपति को दूर ही से आते देखा ।
देखकर अपनी मण्डली को शान्त किया—
🙌
“आप लोग चुप हो जायँ, हल्ला न मचावे । यह श्रमण गौतम का श्रावक सन्धान गहपति आ रहा है । श्रमण गौतम के जितने उजले वस्त्र पहनने वाले गृहस्थ श्रावक राजगह में रहते हैं, उनमे यह सन्धान गहपति भी एक है। ये आयुष्यमान् नि:शब्द चाहने वाले है, नि:शब्द मे विनीत है, नि:शब्दता की प्रशसा करनेवाले है । ये नि:शब्द मण्डली मे ही जाना अच्छा समझते है ।”

ऐसा कहने पर वे परिब्राजक चुप हो गये । तब सन्धान गहपति जहाँ न्यग्रोध परिब्राजक था वहॉ गया । जाकर कथा कुशलक्षेम पूछ संलाप करके एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठ सन्धान गहपति न्यग्रोध परिब्राजक से यह बोला−
🌀
“ये अन्यतीर्थिक (=दूसरे मतवाले) परिब्राजक, जो जमा होकर ० आदि निरर्थक कथा कहते ०
शोर मचाते दूसरे ही प्रकार के है, और वे भगवान् जो समाघि लगाने के योग्य, मनुष्यों से अगम्य, शांत, एकान्त और निर्जन वनों मे वास करते है, बिलकुल दूसरे है ।”
🙏
ऐसा कहने पर न्यग्रोघ परिब्राजक ने सन्धान गहपति से कहा—
“सुनो गहपति । जानते हो किस के साथ श्रमण गौतम संलाप करते है, किसके साथ साक्षात्कार करते है, किसको ज्ञानोपदेश करते है ॽ शून्यागार मे रहते रहते श्रमण गौतम की बुद्धि मारी गई है । श्रमण गौतम सभा से मुँह चुराते है । संवाद करने मे असमर्थ है । वे लोगों से अलग अलग भागे फिरते है, जैसे कानी गाय अकेले अलग ही अलग भागी फिरता है । इसी तरह श्रमण गौतम की प्रज्ञा मारी गई है ० ।
सुनो गहपति । यदि श्रमण गौतम इस सभा मे आवे, तो एक ही प्रश्न मे उन्हे चकरा दें, खाली घळे की तरह जिधर चाहे घुमा दें ।”

भगवान् ने अलौकिक, विशुद्ध, दिव्य श्रोत्र से न्यग्रोघ ० के साथ सन्धान गहपति का यह कथा संलाप सुना ।
तब भगवान् गृघ्रकूट पर्वत से उतर जहाँ सुमागधा (पुष्करिणी) के तीर पर मोर निवाप था, वहाँ गये।जाकर खुले स्थान मे टहलने लगे।

न्यग्रोघ परिब्राजक ने ० मोरनिवाप से भगवान् को टहलते देखा । देखकर अपनी मण्डली को सावधान किया—
“आप लोग चुप रहे ० । यह श्रमण गौतम ० खुले स्थान मे टहल रहे है । वे नि:शब्दता को पसंद करते है ० । यदि श्रमण गौतम इस सभा मे आवे तो उन्हे यह प्रश्न पूछूँ—
'भन्ते । भगवान् का वह कौन घर्म है, जिससे भगवान् अपने श्रावकों को विनीत करते है, जिसमे विनीत होकर भगवान् के श्रावक ब्रह्मचर्य पालन मे आश्वासन पाते है ॽ'
ऐसा कहने पर वे परिब्राजक चुप हो गये ।

तब भगवान् जहॉ न्यग्रोघ परिब्राजक था, वहॉ गये । तब न्यग्रोघ परिब्राजक ने भगवान् से कहा—
' पधारे, भगवान्, भगवान् का स्वागत है, भगवान् ने बहुत दिनों के बाद यहाँ आने की कृपा की, भगवान् बैठे, यह आसन बिछा है ।”
🌴
भगवान् बिछे हुये आसन पर बैठ गये । न्यग्रोघ परिब्राजक भी एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे न्यग्रोघ परिब्राजक से भगवान् ने यह कहा—
“न्यग्रोघ । अभी क्या बात चल रही थी, किस बात मे आकर रुके ॽ”

ऐसा कहनेपर न्यग्रोघ परिब्राजक बोला—
“भन्ते । हम लोगों ने भगवान् को सुमागधा के तीर पर मोरनिवाप मे खुले स्थान मे टहलते देखा । देखकर यह कहा—यदि श्रमण गौतम इस सभा मे आवे ० ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने मे आश्वासन पाते है ॽ भन्ते । इसी बात मे आकर हम लोग रुके कि भगवान् पघारे ।”

२-अशुद्ध तपस्या
🌴
“न्यग्रोघ । दूसरे मत वाले, दूसरे सिद्धान्त वाले तुम्हे यह समझाना बळा दुष्कर है कि मै कैसे अपने श्रावकों को विनीत करता हूँ, जिससे विनीत होकर मेरे श्रावक आदि ब्रह्मचर्य पालन करने मे आश्वासन पाते है । तो न्यग्रोघ । तपों की निन्दा करने वाले अपने मत (=आचार्यक) के बारे मे ही पूछो—
'भन्ते। क्या होने से तप-जुगुप्सा पूरी होती है, क्या होने से नही पूरी होती ॽ”
🙌
ऐसा कहने पर वे परिब्राजक हल्ला करने लगे—
“अरे, बळा आश्चर्य है। बळा अद्भुत है । श्रमण गौतम की शक्ति और महानुभावता को (तो देखो) कि अपने पक्ष का स्थापन करता है और दूसरो के पक्ष का निराकरण ।”

तब न्यग्रोघ परिब्राजक उन परिब्राजकों को चुपकर भगवान् से यह बोला—
“भन्ते । हम लोग तो तप-जुगुप्सा के मानने नाले, तपो-जुगुप्सा (=तपों की निन्दा) मे रत, तप-जुगुप्सा मे लग्न हो विहरते है । भन्ते । क्या होने से तप-जुगुप्सा पुरी होती है, (और) क्या होने से पूरी नही होती ?”
🌴
“न्यग्रोघ ।
कोई तपस्वी नग्न रहता है,
आचार विचार को छोळ देता है,
हाथ चाट चाटकर खाता है ०१ ।
इस तरह वह आधे आधे महीने पर भोजन करता है,
वह साग मात्र खाता है, ०१ ।
० सुबह, दोपहर और शाम तीन बार जल-शयन
  करता है ।"

“न्यग्रोध । तो क्या समझते हो—यदि कोई ऐसा करे तो इस तपश्चर्य्या से उसके पापों का पूरा निराकरण होता है या नही ?”

“हाँ, भन्ते । ऐसा करने से इस तपश्चर्य्या से उसके पापों का पूर्ण निराकरण होता है, अपूर्ण नही ।”
🌴
“न्यग्रोघ । इस तरह पूर्ण होने पर भी मैं कहता हूँ कि इसमे अनेक प्रकार के क्लेश (=मैल) रह जाते है ।”

“भन्ते । इस तरह पूर्ण होने पर भी भगवान् कैसे कहते है कि इसमे अनेक प्रकार के क्लेश रह जाते है ?”
🌴
“न्यग्रोध । तपस्वी तप करता है, वह उस तप से सतुष्ट और परिपूर्ण सकल्प होता है । न्यग्रोध । यह भी तपस्वी का उपक्लेश है ।—
और फिर न्यग्रोध । (जब) तपस्वी तप करता है । वह उस तप करने के कारण अपने को बहुत बळा समझता है और दूसरो को छोटा ।
न्यग्रोघ । ० यह भी तपस्वी का उपक्लेश (=मल) है । —
० वह उस तप करने से बळा घमण्ड करता है, बेसुघ हो जाता है और प्रमाद करता है ।
० यह भी तपस्वी का उपक्लेश है ।—
० वह उस तप के करने से लोगों से बहुत सत्कार और प्रशंसा पाता है । वह उस सत्कार और प्रशंसा से सतुष्ट और परिपूर्ण सकल्प हो जाता है । ० यह भी तपस्वी का उपक्लेश है ।—०
वह उस सत्कार और प्रशंसा से अपने को बहुत बळा समझने लगता है, और दूसरों को छोटा ० यह भी तपस्वी का उपक्लेश है ।—
० वह उस सत्कार और प्रशंसा से घमण्ड करने लगता है, बेसुध हो जाता है और प्रमाद करता है ।—
० यह भी तपस्वी का उपक्लेश है ।"
“और फिर न्यग्रोघ । तपस्वी तप करता है । उसे भोजन मे द्वैवी भाव हो जाता है — यह भोजन मुझे खाना बनता है ओर यह नही । जो भोजन खाना उसे नही बनता, उसको इच्छा रहने पर भी छोळ देता है, और जो भोजन खाना बनता है उसे अत्यन्त लालच से बिना उसके गुण-दोष को विचारे खूब ठूस ठूस कर खा लेता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।"
🌷
“न्यग्रोघ । तपस्वी लाभ, सत्कार और प्रशंसा की प्राप्ति के हेतु तप करता है—
राजा, मन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गहपति और दूसरे साधु लोग मेरा सत्कार करेंगे । ० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोघ । तपस्वी दूसरे श्रमण और ब्राह्मणों को बतलाता है—
' क्यो यह सब तरह की जीविका वाला मूलबीज,१ खन्ध-बीज (स्कन्घबीज)
(जैसे ईख), फलबीज, अग्रबीज और पाँचवे बीज-बीज असनि-विचक्क दन्तकूट श्रमणों के प्रमाद से सब कुछ खा जाते है, । ० यह भी उपक्लेश ।"

“न्यग्रोघ । दूसरे श्रमण या ब्राह्मणों को गृहस्थ-कुलों मे सत्कृत=गरुकृत, सम्मानित, पूजित देखकर तपस्वी के मन मे यह होता हे—
' इन्ही का गृहस्थ कुलों मे लोग सत्कार करते है, गुरुकार करते है, सम्मान करते है, पूजा करते है । मुझ रूखे रहनेवाले तपस्वी को गृहस्थ कुलों मे लोग न सत्कार करते है ० न पूजा करते है । अतः वह गृहस्थ कुलों के प्रति ईर्ष्या और मात्सर्य उत्पन्न करता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोघ । तपस्वी, लोगो के आने जाने के स्थान मे आसन लगाता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोध । तपस्वी अपने गुणों का वर्णन आप करते कुलों मे जाता है―
‘यह मेरा तप है, यह भी मेरा तप है ।’
० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोध । तपस्वी चुपचाप छिपाकर कुछ काम करता है । ‘आपको ऐसा करना बनता है ?’ पूछे जाने पर जो बनता है उसे ‘नही बनता है’, और जो नही बनता हे उसे ‘बनता है’ कह देता है । यह जान बूझकर झूठ बोलना होता है ।
० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोध । तपस्वी तथागत या तथागत के श्रावकों के घर्मोपदेश को अनुमोदन करने के योग्य होने पर भी नही अनुमोदन करता ।
० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोध । तपस्वी क्रोधी ० और बुद्धवैरी होता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोध । तपस्वी,
कृतघ्न,
डाह करने वाला,
ईर्ष्यालु,
कृपण,
शठ,
मायावी,
फुर,
अभिमानी,
दुष्ट इच्छावाला,
पाप इच्छाओं के वस मे पळा,
बुरी घारणाओं मे विश्वास करनेवाला,
उच्छेद-दृष्टिवाला,
अपने मत पर अभिमान करनेवाला,
अपने मत पर हठ करने वाला,
जिद्दी होता है ।
० यह भी उपक्लेश ० ।"

“न्यग्रोध । तो क्या समझते हो―तप करना क्लेश-सहित है या क्लेश के बिना ?”

“भन्ते । तप करना क्लेश-सहित होता है, क्लेश के बिना नही । भन्ते । यही कारण है कि तपस्वी इन सभी उपक्लेशों के सहित होता है, इनमे से किन्ही किन्ही की तो बात ही क्या ?”

                   🌹३―शुद्ध तपस्या🌹
🌴
“न्यग्रोघ । तपस्वी तप करता है । वह उस तप से न तो सतुष्ट होता है और न परिपूर्ण-संकल्प। ० इस तरह वह वहॉ परिशुद्ध रहता है ।―
० वह उस तप से न तो अपन को बहुत बळा समझता है और न दूसरों को छोटा ।
० इस तरह वह वहॉ परिशुद्ध रहता है ।―
० वह न घमण्ड करता है, न बेसुध होता है, न प्रमाद करता है ।
० परिशुद्ध रहता है ।—
० लाभ, सत्कार और प्रशंसा से न सतुष्ट होता और न परिपूर्ण-सकल्प ।
० परिशुद्ध ० ।―
० लाभ ०से न अपन ेको बळा समझता है और न दूसरो को छोटा ।
० परिशुद्ध ०।―
० लाभ ० से न घमड करता है, न बेसुघ होता है, न प्रमाद करता है ।
० परिशुद्ध ० । ―
०भोजन मे द्वैधीभाव नही लाता ० न ठूस ठूस कर खाता है ।
० परिशुद्ध ०।―
० लाभ, सत्कार और प्रशंसा के लिये तप नही करता है ०।
० परिशुद्ध ०।―
० दुसरे श्रमण, ब्राह्मणों को नही बताता है ०।
० परिशुद्ध ० ।―
० दूसरे श्रमण या ब्राह्मणों को गृहस्थ कुलों मे सत्कृत ० देखकर उसके मन मे ऐसा नही होता ० न गृहस्थ कुलों के प्रति ईर्ष्या और मात्सर्य उत्पन्न करता है ।
० परिशुद्ध ० ।—
० न मनुष्योके आने जानेके स्थानपर बैठता है ।
० परिशुद्ध ० ।—
० न अपने गुणों का वर्णन आप करते गृहस्थ कुलों मे जाता है ० ।
० परिशुद्ध ० ।—
० न अकेल ेमे चुपचाप कोई काम करता है ० ।
० परिशुद्ध ० ।―
० तथागत या तथागत के श्रावकों के घर्मोपदेश को अनुमोदन करने योग्य होने पर अनुमोदन करता है ।
० परिशुद्ध ० । ―
० क्रोध और वैर से रहित रहता है ।
० परिशुद्ध ० ।―
० कृतध्न नही होता, डाह नही करता, ईर्ष्या नही करता, मात्सर्य नही करता ० ।
० परिशुद्ध ० ।
“न्यग्रोघ । तो क्या समझते हो―
'यदि ऐसा हो तो तप शुद्ध होता है या अशुद्ध'?”

“भन्ते । ऐसा होने पर तप शुद्ध होता है अशुद्ध नही ।”

🌹४-वास्तविक तपस्या ―चार भावनायें🌹
🌴
“न्यग्रोध । इतने से ही तप प्रशंसनीय, सार्थक नही होता । यह तो वृक्ष के ऊपर की पपळी मात्र है।”

“भन्ते । क्या होने से तप प्रशंसनीय और सार्थक होता है ?
साघु भन्ते । भगवान् मुझे प्रशंसनीय और सार्थक तप क्या है, उसे बतलावे ।”

“भन्ते । क्या होने से तपश्चरण श्रेष्ठ और सार्थक होता है ॽ
साधु भन्ते । भगवान् मुझे श्रेष्ठ और सार्थक तपश्चरण बतलावे ।”
🌴
“न्यग्रोध । तपस्वी चातुर्याम संवरो से संवृत होता है ० उत्साहित होता है । वह एकान्त-वास करता है ० उपक्लेशों को प्रज्ञा से दुर्बल करने के लिये मैत्री-युक्त चित्त से ०
उपेक्षा-युक्त चित्त से ० ।
वह् अनेक प्रकार से अपने पूर्वजन्मों को स्मरण करता है,
जैसे कि एक जन्म० अनेक लाख जन्म० ।
वह अलौकिक विशुद्ध दिव्य चक्षु से प्राणियों (=सत्वो) को च्युत होते और उत्पन्न होते देखता है—
नीच सत्वों को,
उत्तम सत्वों को,
सुन्दर सत्वों को,
कुरुप सत्वों को,
अच्छी-गति-प्राप्त सत्वों को,
बुरी-गति-प्राप्त सत्वों को, तथा
अपने कर्मों के अनुसार ही गति-प्राप्त सत्वों को ठीक ठीक जान लेता है ।—
ये सत्व कायिक दुराचार से,
वाचिक दुराचार से,
मानसिक दुराचार से युक्त हो,
आर्य धर्म के निन्दक रह,
बुरी धारणाओं मे विश्वास कर,
बुरी धारणा के अनुसार काम करके,
मरकर नरक मे उत्पन्न हो अति-दुर्गति को प्राप्त  हैं। और ये दूसरे सत्व कायिक सदाचार से ० युक्त हो आर्य धर्म को स्वीकार कर, ० सुगति को प्राप्त हैं ।"

“न्यग्रोध । तो क्या समझने हो—० परिशुद्ध होता है या अपरिशुद्ध ॽ”

“भन्ते । ० परिशुद्ध होता है, अपरिशुद्ध नही । श्रेष्ठ और सार्थक होता है ।”
🌴
“न्यग्रोध । इतनेहीसे तपश्चरण श्रेष्ठ और सार्थक होता है । न्यग्रोध । तुमने जो मुझ पूछा था— ‘भन्ते । भगवानका वह कौनसा धर्म है जिससे भगवान् अपने श्रावकोको विनीत करते है, ओर जिससे विनीत होकर श्रावक आदि-ब्रह्मचर्य पालन करनेमे आश्वासन पाते है ॽ’ सो न्यग्रोध । यही कारण है, इससे भी बढ चढकर ओर इससे भी प्रणीत (कारण) है जिससे मै अपने श्रावकोको विनीत करता हूँ, जिससे विनीत होकर श्रावक आदि-ब्रह्मचर्य पालन करनेमे आश्वासन पाते है ।”
🙌
ऐसा कहनेपर वे परिबाजक बहुत शोर करने लगे—“हाय । गुरु-सहित हम लोग नष्ट हो गये, विनष्ट हो गये । हम लोग इससे कुछ अधिक नही जानते ।”

५—न्यग्रोध का पश्चात्ताप

जब सन्धान गृहपति ने समझा कि अब ये दूसरे मत-वाले परिबाजक भगवान् के कहे हुए को सुनेगे, कान देगे, जानकर (उसमे) चित्त लगावेंगे, तब उसने न्यग्रोध परिब्राजक से कहा—
🌀
“भन्ते न्यग्रोध । आपने जो मुझे कहा था—‘सुनो गृहपति । जानते हो श्रमण गोतम किसके साथ सलाप करते है ० वे लोगो से मुँह चुराकर अलग ही अलग रहते है । ० यदि श्रमण गौतम इस सभामे आवे तो ० उन्हे खाली घळे की तरह जिधर चाहे हेर फेर दे ।’
भन्ते । वे भगवान् अर्हत्, सम्यक्-सम्बुद्ध यहॉ पधारे है, उन्हे सभा से मुँहचोर बनाइये न, कानी गाय की तरह अलग ही अलग चलनेवाला बनाइये न ॽ क्यो नही एक ही प्रश्न से उन्हे चकरा देते, जैसे कि खाली घळे को हेर फेर देते है ॽ”

ऐसा कहने पर न्यग्रोध परिब्राजक चुप हो, गूँगा बन, कन्धा गिरा, नीचे मुँहकर, चिन्तित और उदास होकर बैठा रहा ।
🌴
तब भगवान् ने न्यग्रोध परिब्राजक को चुप, गूँगा बन ० उदास होकर बैठा देख, यह कहा— “न्यग्रोध । क्या सचमुच तुमने ऐसी बात कहीॽ”

“भन्ते । सचमुच मैने बालक मूढ जैसे अजान बात कही ।"
🌴
“न्यग्रोध । तो तुम क्या समझते हो ॽ क्या तुमने वृद्ध बळे आचार्य और प्राचार्य परिब्राजकों को कहते सुना है कि अतीत काल में (जो) अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध हो गये है, वे अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध क्या तुम्हारे जैसा हल्ला मचाने वाला और अनेक प्रकार की निरर्थक कथायें कहने वाले थे ० ॽ या वे भगवान् जंगलों मे एकान्तवास ० करने वाले थे, जैसा कि इस समय मैं ॽ”

“भन्ते । ऐसा मैने ० आचार्य प्राचार्य परिब्राजकों को कहते सुना है ० । वे मेरे जैसा हल्ला मचाने ० वाले नही थे, किन्तु जंगलो मे एकान्तवास ० करने वाले थे जैसा कि इस समय भगवान् ।”
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“न्यग्रोध । तब क्या तुम्हारे जैसे सुविज्ञ पुरुष को यह भी समझ मे नही आता—बुद्ध हो भगवान् बोधी के लिये धर्मोपदेश करते है, दान्त हो भगवान् दमन के लिये धर्मोपदेश करते है, शान्त हो, भगवान् शमन के लिये धर्मोपदेश करते है, तीर्ण (=भवसागर पार) हो, भगवान् तरुण के लिये धर्मोपदेश करते है, परिनिवृत हो, भगवान् परिनिर्वाण के लिये धर्मोपदेश करते है ।”

ऐसा कहने पर न्यग्रोध परिब्राजक ने भगवान् से यह कहा—

“भन्ते । बाल-मूढ अजान के जैसा मुझ से बळा भारी अपराघ हो गया, कि मैने आपके विषय मे ऐसा कह दिया । भन्ते । भविष्य मे संयम के लिये मेरे अपराध को क्षमा करे ।”
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“न्यग्रोध । सुनो बाल ० के जैसा तुमने बळा भारी अपराध किया, जो कि तुमने मेरे विषय मे वैसा कहा, किन्तु न्यग्रोध । जब तुम अपने अपराध को स्वंय स्वीकार कर धर्मानुकूल प्रतीकार करते हो, तो मै उसे क्षमा करता हूँ । न्यग्रोध । अरिय विनय मे यह बुद्धिमानी ही समझी जाती हे, कि पुरुष भविष्य मे संयम के लिये अपने अपराध को स्वंय स्वीकार कर धर्मानुकूल प्रतीकार करे ।"

६-बुद्ध-धम्म से लाभ इसी शरीर में
🌴
“न्यग्रोध । मै तो ऐसा कहता हूँ—कोई सज्जन, निश्छल, और सरल स्वभाव वाला बुद्धिमान् पुरुष आवे । मैं उसे अनुशासन करता हूँ, धर्मोपदेश देता हूँ, मेरी शिक्षा के अनुसार आचरण करे, तो जिसके लिये कुलपुत्र ० प्रब्रजित होते है उस अनुपम ब्रह्मचर्य के अन्तिम लक्ष्य को सात वर्ष मे ही स्वंय जानकर साक्षात्कार कर प्राप्त कर विहरेगा ।
न्यग्रोध । सात वर्ष तो जाने दो, छै वर्ष मे ही, ० पॉच ० चार ० तीन ० दो ० एक वर्षमे ० एक सप्ताह मे ० ।"

“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मन मे ऐसा हो—अपने चेलों की संख्या या बढाने के लिये श्रमण गौतम ऐसा कहते है, तो न्यग्रोघ । ऐसा नही समझना चाहिए । जो तुम्हारा आचार्य है वही तुम्हारे आचार्य रहे ।"

“न्यग्रोघ । यदि तुम्हारे मन मे ऐसा हो—हमे अपने उदेश्य से च्युत करने के लिये श्रमण गौतम ऐसा कहते है, तो न्यग्रोध ऐसा नही समझना चाहिये । जो तुम्हारा अभी उदेश्य है वही उदेश्य रहे ।"

“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मन मे ऐसा हो—हम लोगों को अपनी जीविका छुळा देने के लिये श्रमण गौतम ऐसा-कहते है, तो ० । जो तुम्हारी अभी जीविका है वही जीविका रहे ।"

“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मन मे ऐसा हो—हमारे मताचार्यों की जो बुराइयाँ (=अकुशल धर्म) है, उनमे प्रतिष्ठित करने की इच्छा से श्रमण गौतम ऐसा कहते है, तो न्यग्रोध । ऐसा नही समझना चाहिए । आचार्यो के साथ तुम्हारे वे अकुशल धम्म अकुशल ही रहे ।"

“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मन मे ऐसा हो— ० कुशल धर्म ० ।

“न्यग्रोध । अत:  न तो मैं अपने चेलों की संख्या बढाने के लिये, न उदेश्य से च्युत करने के लिये ० ऐसा कहता हूँ ।"

“न्यग्रोध । जो अ-नष्ट (=अप्रहीण) बुराइयाँ (=अकुशल धर्म) क्लेशो को उत्पन्न करने वाली, आवागमन के कारण भूत, सभी प्रकार की पीडाओं को देनेवाली, दुख-परिणामवाली, जाति, जरा, और मरण के कारण है, उन्ही के प्रहाण (नाश) के लिये मैं धर्मोपदेश करता हूँ जिसमे कि तुम्हारे क्लेश देने वाले धम्म नष्ट हो जावे और शुद्ध धम्म बढे, और तुम प्रज्ञा की पूर्णता और विपुलता को प्राप्त होकर, उसे इसी संसार मे जानकर साक्षातकार कर प्राप्त कर विहार करो ।”
🙌
ऐसा कहने पर वे परिब्राजक चुप हो, गुँगे बन, ० बैठे रहे, जैसे कि उनके चित्त को मार ने जकळ लिया हो ।
🎯
तब भगवान् के मन मे यह हुआ—
‘ये सभी मूर्ख पुरुष मार के बन्धन मे बँधे है, जिससे इनमे एक के मन मे भी यह नही होता, कि ‘मै ज्ञान-प्राप्ति के लिये भगवान् के शासन मे रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करुँ । सप्ताह क्या करेगा ॽ’

तब भगवान् उदुम्बरिका परिब्राजक - आराम मे सिंहनाद कर, आकाश में ऊपर उठ, गृघ्रकूट पर्वत पर जा बिराजे ।

सन्धान गहपति भी राजगह चला गया ।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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