Friday, 25 October 2019

कालसी10

🌹वृहद-सिलालेख-10🌹
               (चौदह चट्टान लेख-10)
                      ( कालसी )

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मूल-लेख (लिप्यांतरण):-

१ देवानंपिये पियदषा लजा यषो वा किति वा नो महथावा मनति अनता यं पि यसो वा किति वा इछति तदत्वाये अयतिये  चा जने धंम - सुसुषा सुसुपातु मे ति धंम-वतं वा अनुविधियंतु ति
धतकाये देवानंपिये पियदसि

२ लाजा यषो वा किति वा इछ अं चा किछि लकमति देवनंपिये पियदषि लजा त

षव पालंतिक्याये वा किति सकले अप-पलाषवे षियाति ति एषे चु पलिसवे ए अपुने दुकले चु सो एषे खुदकेन वा बगेना उषुटेन वा अनत अगेन पलकमेना षवं पलितिदितु हेत चि खो

३ उषटेन वा दुकले

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अनुवाद -

देवानंपिये पियदसि लाजा ,
🔹यश व कीर्ति को बड़ी-भारी वस्तु नहीं समझता सिवाय इसके कि,
🔹जो कुछ भी यश या कीर्ति वह चाहता है सो इसीलिए कि -
🔹प्रजा धम्म की सेवा और
🔹धम्म के व्रत में संप्रति भविष्य में और भी
    दृढ़ हो ।

🔸इसीलिए देवानंपिये पियदसि लाजा,
🔸यश और कीर्ति की कामना करता है ।
🔸और जो कुछ वह पराक्रम करता है,
🔸सो परलोक के लिए ही करता है और
🔸इसलिए कि सभी बंधन से मुक्त हो जायें।

🎯जो अ-पुण्य (पाप) है,
                        वही बंधन (वद्ध-जीव) है।🎯

🔸निरंतर पूर्व-प्रयत्न,
🔸सर्वस्व त्याग,
🔸के बिना कोई भी मनुष्य,
🔸चाहे वह छोटी या बड़ी हैसियत का हो,
🔸यह कार्य नहीं कर सकता ।

इन दोनों में,
बड़े आदमी के लिए तो यह और भी दुष्कर है ।

        - दशवां-वृहद-सिलालेख समाप्त -

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टिप्पण :-
1. दश संयोजन ही पाप के बंधन है,
इन बंधनों को काटे/छोडे बगैर न तो धम्म चिरस्थाई होगा और न ही यश/कीर्ति प्राप्त
हो सकती है ।

2.
      🌹दस संयोजन - बंधन🌹
                    *सहज-बोध*

💐अधोभागीय बंधन--
जो साधक साधनाभ्यास की सफल निरंतरता मे स्थिति हैं,
ऐसे उपचार अथवा अर्पणा समाधि मे स्थिति साधक के मानुषी भाव से नीचे की योनियों के बंधन--

1* सक्काय दिट्ठी = यहाँ पंचस्कंधो मे जहाँ कहीं भी- मैं हूँ, मैं इससे हूँ, यह मै हूँ ऐसी
आत्म दृष्टि ही सत्काय है।

2* विचिकिच्छा = यहाँ पंच-खन्धों मे अथवा धम्म खन्धो मे, विभ्रम.. संदेह.. अविश्वास..तथ्य और सत्य के परे, जो नहीं है उसे है समझना विचिकित्सा है।

3* सीलब्बत-परामर्श = जीवन के समाधान अथवा दुःख मुक्ति के लिए लोक मे प्रचलित नाना व्रत-उपवासों, कर्मकाँडों व मार्गो मे भटकना..अथवा अरिय-मग्ग लगे हुवे को, शीलों.. समापत्तियों मे संकल्प-विकल्प मे पड़ना.. कुछ निश्चय न कर पाना.. क्रमशः अभ्यास मे सुविधजनक विकल्प ढूँढना.. सीलब्बत परामर्श है

4*  कामराग = सांसारिक लिप्सा.. पंच काम गुणों मे अनुरक्ति.... अथवा समापत्तियों...मार्ग.... फलों मे जहाँ कहीं भी, दिव्य कामनाओं से ग्रस्त होना, काम राग है।

5*  व्यापाद = द्रोह = द्वैष... ईर्ष्या..प्रदाश..निष्ठुरता.. मात्सर्य... हिंसा.. आदि व्यापाद है।

💐 ऊर्ध्व भागीय बंधन--
प्रथम से  चतुर्थ ध्यान तक सफल स्थिर साधक के मनुषी भाव से ऊपर की योनियों के बंधन--

6* रूपराग =
पृथ्वी पर कुलीन ..मूर्धन्य कुलों मे सुवर्ण जन्मने की इच्छा अथवा किन्हीं देव लोकों मे देव काय मे जन्मने की प्रबल इच्छा रूप राग है।

7* अरूपराग =
अरूप कायिक ब्रम्हा भाव मे जन्मने की इच्छा।

8* मान = 
मैं के प्रति अतिशय संवेदनशील होना.. मैं को अति महत्व देना..मान..यश का अतिशय आग्रह.. दुराग्रह.. मान है।

9* उद्धच्च-कुक्कुच्च =
श्रुति, शील व साधनाभ्यास मे स्थिर न होना.. निरंतरता न रख पाना उद्धच्च यान उद्धतपना है।
धम्म संपादन मे कुविचार पैदा होना अथवा मन का कुकर्म कुक्कुच यानि मनोकुकृत्य है।

10*अविज्जा =
मैं के प्रति आग्रह- मोह ही अविद्मा है।

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